Friday 14 October 2011

स्त्री-जागरण

सर्पिणी प्रसन्न थी 
अब डर की कोई बात नहीं 
बिल में छिप कर रहने का समय गया 
वह भी है आजाद 
घूम-फिर सकती है मर्जी से 
नाच सकती है 
प्रेम-बीन पर 
स्त्री-शक्तिकरण के इस युग में 
पेड़ की डाल पर बैठा बंदर 
कुढ़ रहा था सर्पिणी को देखकर 
कई बार कर चुका था कोशिश 
उसे लुभाने की 
डराने की 
चाहता था कि उसकी बोली बोले सर्पिणी
पर सर्पिणी थी कि नहीं आती थी हाथ 
हो गयी हद तो एक दिन 
नाराज बंदर ने लपक कर पकड़ ली उसकी गर्दन 
और जा बैठा सबसे ऊंची डाल पर 
सर्पिणी का चेहरा अपने चेहरे के सामने लाकर  बोला 
-बोल कू ऊउउऊ 
कैसे बोलती सर्पिणी 
गर्दन दबी हुई थी   

मुँह लाल था
बंदर और नाराज हुआ-
"नहीं निकली अभी अकड़" 
और रगड़ डाला बेदर्दी से उसका मुँह 
डाल से 
फिर चलता ही रहा यह क्रम
मुँह का डाल से रगड़ना 
फिर लाकर चेहरे के सामने 
अपनी बोली बोलने को कहना
सर्पिणी कमजोर नहीं थी 
था उसे नियम-कानून भी पता 
छूट पाती तो हर लेती अपने विष से 
बंदर के प्राण 
वह इसलिए विवश थी 
कि कमजोर नस दबी हुई थी 
आखिर मर गयी सर्पिणी 
निर्जीव देह फेंक दी 
 बंदर ने बेदर्दी से 
धरती पर 
और जोर से हँसा- स्त्री और जागरण ! 

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