Monday 17 October 2011

मैं जीत जाऊँगी

मैं 
बार-बार हारकर भी 
हार नहीं मानती 
अकेले लड़ती रहती हूँ 
एक लम्बी लड़ाई 
जिंदगी 
और वक्त के 
कठोर ..क्रूर पंजों में 
तिलमिलाती 
छटपटाती 
मैं 
सोचती रहती हूँ 
कभी तो कोई आएगा 
चिर प्रतीक्षित 
और 
मैं 
जीत जाऊँगी|

2 comments:

  1. बढ़िया प्रस्तुति शुभकामनायें आपको !
    आप मेरे ब्लॉग पे आये आपका में अभिनानद करता हु

    दीप उत्‍सव स्‍नेह से भर दीजिये
    रौशनी सब के लिये कर दीजिये।
    भाव बाकी रह न पाये बैर का
    भेंट में वो प्रेम आखर दीजिये।
    दीपोत्‍सव की हार्दिक शुभकामनाओं सहित
    दिनेश पारीक

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  2. संघर्ष और प्रतीक्षा भिन्न दिशायें। संघर्ष में नित नयी उपलब्धियाँ है। प्रतीक्षा में नियति के प्रति मौन समर्पण। समर्पण संघर्ष नहीं हो सकता।
    प्रतीक्षा एक कठिन साधना है। एक शून्य जो अनन्त है या फिर कुछ भी नहीं।

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