गाँव के बाहर का
जटाधारी बूढ़ा बरगद
जाने कब से भुतहा कहलाता था
उसके नीचे प्रेत का
चढावा चढ़ता था
शाम ढले के बाद
कोई उधर नहीं गुजरता था
उसी बरगद के पीछे
टूटे-फूटे खंडहर में
छिपकर रहता था वह
लोगों द्वारा
प्रेत को चढ़ाये गए
चढ़ावों से
चलता था उसका काम
एक दिन रंगे-हाथों
पकड़ लिया गया
और पीट-पीटकर
मार डाला गया
अब वह भी प्रेत है
लोग उससे भी
भय खाने लगे हैं
उसके नाम चढ़ावा
चढाने लगे हैं |
जटाधारी बूढ़ा बरगद
जाने कब से भुतहा कहलाता था
उसके नीचे प्रेत का
चढावा चढ़ता था
शाम ढले के बाद
कोई उधर नहीं गुजरता था
उसी बरगद के पीछे
टूटे-फूटे खंडहर में
छिपकर रहता था वह
लोगों द्वारा
प्रेत को चढ़ाये गए
चढ़ावों से
चलता था उसका काम
एक दिन रंगे-हाथों
पकड़ लिया गया
और पीट-पीटकर
मार डाला गया
अब वह भी प्रेत है
लोग उससे भी
भय खाने लगे हैं
उसके नाम चढ़ावा
चढाने लगे हैं |
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