वह पहली भेंट न थी
हमारी
तुमसे
जश्नों -समारोहों में
मिले थे हम
कई –कई बार
लेकिन
अपनी –अपनी दूरियों को सहेजते हुए
तब हम नहीं
मिलती थीं हमारी
परछाईयां
सम्वाद करती हँसती -मुस्कुराती
सजग और चौकन्नी
इतनी कि
खुल न जाय
कहीं किसी भूल से
आत्मा के ...मन के भीतर
छिपा कोई मर्म
स्मृतियों में कहीं भी कुछ भी दर्ज नहीं हुआ
किसी भी भेंट का कोई भी क्षण
कोई भी घटना ऐसी कि
जिसका कैसा भी चिह्न
तनिक भी अंकित हो मन पर
कल्मष और
मन की मलिनता को
मुस्कान की सभ्यता से
आच्छादित करने की कला के
पीछे –पीछे चलते हुए जैसे हम
मिलते हैं किसी परिचित या अपरिचित से
मिलते थे वैसे ही हम भी
शब्दों और ध्वनियों की कर्कशता के बीच
एक –दूसरे को सुनने –सराहने का स्वांग करते हुए
और इस तरह
भद्र भेंटों के बीच
हमने कायम रखी अपरिचय की दूरियाँ
अभेद्य बचाए रखा
अपने भीतर का तलघर
उघरने से
जैसे एक भद्र से अपेक्षा की जाती है
जाने कैसे क्या हुआ
उस दिन भेंट हुई कुछ इस तरह कि
जैसे मिल रहे हों पहली बार
पहली बार व्याकुल हुए हम
निरावृत होने को
उझिल दिया एक ही बार में
सारा कुछ
खोल दिया आत्मा की गांठे
आदम इच्छाएँ अपनी –अपनी
घुला-मिला दिया एक-दूसरे में
और इस तरह अपनी ही छवियों की कारा से
मुक्त हो रहे थे हम
पहली बार
देखते हुए दिखाते हुए अपने को
अपने से बाहर
अकलंक निर्मलता के क्षितिज पर
सभ्यता के संविधान से बेपरवाह
उस वक्त शायद हम
चाहते थे
शुरू करना जीवन को
जीना शुरू से
दो अस्मिताओं का
निःशब्द सम्वाद वह
भाषा और अर्थ के बाहर
एक दुर्लभ घटना थी
सभ्यताओं के इतिहास में
हम दोनों लौट रहे थे
अपनी शिशुता में
जन्म ले रहा नया इंसान
इंसानी इच्छाओं से भरा और उन्मुक्त
हमारे ही भीतर से
जैसे कोई अचरज
कितना अद्भुत है
आदमी के भीतर खोए हुए
आदमी को आकार लेते देखना
तुम्हारी परिचित छवि से उबी –उकताई मैं
अचम्भित हुई देखकर तुमको
दुःख भी हुआ कि
सुंदर है कितना सरल और सुविज्ञ भी
रूप यह भीतर का तुम्हारा जिसे
कुचल दिया फेंक दिया आत्मा के तलघर में
जाने किस शाप से डर या संताप से
मुग्धकारी रूप वह तुम्हारा
अनिन्द्य सम्वेदना से आलोकित
तुम्हारी
सच्ची सरलता की सम्मोहक आभा में डूबकर मैंने
देखा तुम्हें तुम्हारेपन में
पहली बार
डूबी हूँ आज भी
अनझिप आँखों से देख रही हूँ
रूप वह तुम्हारा उत्साहित उस क्षण में
गुजर गए कितने दिन.....कितनी रातें
पर जी रही हूँ अब भी उसी चुम्बकीय क्षण को
दृश्य वही आँखों में खुभा है अभी भी
अब
इतिहास हो चुका है किन्तु
अविस्मृत क्षण वह क्या
याद है तुझे भी ?
क्या चाहोगे तैरना आनंद के अंतरिक्ष में
प्रिय सखा
सच –सच बतलाना वह क्षण क्या खींचता है
तुमको भी
क्या बचा है अनभूला अभी भी
स्मृति में ..आत्मा में ?
सच –सच बतलाना
क्या चाहोगे लौटना उस
क्षण के उजाले में
चाहोगे पछीटना आत्मा की मैल को
सच –सच बतलाना प्रिय
मेरे सखा |
badhiya abhivyakti
ReplyDeletemarmik prastuti.............
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