अपने वजन से ज्यादा
फलों को लादे
केले के पेड़ से
पूछ बैठी मैं
एक दिन
'केले इतना बोझ क्यों तू झेले ...?"
पहले तो केले का पेड़
गुस्से से
हरा -पीला होता गरजा
'डीठ न लगा...
बच्चों को मेरे
बोझ तू बोले...|’
फिर अपने लम्बे हरे दामन से
फलों को ढँकने का
प्रयास करते हुए
मीठे स्वर में बोला -
‘'कहीं अपनों का भी होता है भार
अभी तो उठा सकता हूँ
और दो -चार..|"
कई दिन बाद देखा केले के पेड़ को
उसके हरे शरीर पर
जख्मों के ताजा निशान थे
जगह -जगह से रिस रहा था
दूध का रक्त
काटकर अलग रख दी गयीं थीं
उसकी संतानें ..
और वह धरती पर पड़ा
तड़प रहा था
अपने बच्चों के लिए |
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