1-
कई बार सोचा है
याद न करूँ तुम्हें
कई बार लगा भी
भूला चुकी हूँ तुम्हें
तुम जब मगन हो
अपनी दुनिया में
क्यों रहूँ उदास मैं
पर जाने क्यों बारिश में
भीगते सेमल को देख
तुम याद आते हो
ऊंचे पहाड़ में
झांकता है तुम्हारा चेहरा
सागर गाता लगता है
तुम्हारे जैसा गीत
कितनी भी भीड़ में रहूँ मैं
तुम अकेला कर ही देते हो मुझे
मैं नहीं चाहती तुम्हें प्यार करना
पर जाने क्यों
जीवन में कदम रखते प्यार को
ठुकरा देती हूँ बेदर्दी से
बार-बार याद आती हैं मुझे
सूर की यह पंक्तियाँ
-'जिहि मधुकर अम्बुज रस चाख्यो
क्यों करील फल भावे '
बता सकते हो तुम
क्यों तुम अमृत -फल हो
और दुनिया का हर प्रेमी करील |
याद न करूँ तुम्हें
कई बार लगा भी
भूला चुकी हूँ तुम्हें
तुम जब मगन हो
अपनी दुनिया में
क्यों रहूँ उदास मैं
पर जाने क्यों बारिश में
भीगते सेमल को देख
तुम याद आते हो
ऊंचे पहाड़ में
झांकता है तुम्हारा चेहरा
सागर गाता लगता है
तुम्हारे जैसा गीत
कितनी भी भीड़ में रहूँ मैं
तुम अकेला कर ही देते हो मुझे
मैं नहीं चाहती तुम्हें प्यार करना
पर जाने क्यों
जीवन में कदम रखते प्यार को
ठुकरा देती हूँ बेदर्दी से
बार-बार याद आती हैं मुझे
सूर की यह पंक्तियाँ
-'जिहि मधुकर अम्बुज रस चाख्यो
क्यों करील फल भावे '
बता सकते हो तुम
क्यों तुम अमृत -फल हो
और दुनिया का हर प्रेमी करील |
2-
वर्षों बाद
देखा तुम्हें
सुनी तुम्हारी आवाज
दर्द में डूबा वही स्वर
वही कशिश
जरा भी नहीं बदले थे तुम
जबकि बदल गए थे
सारे के सारे हालात
और मैं
जो तुम्हें भूल जाने का
भ्रम पाले बैठी थी
फिर से वही की वही हो गई
जिसे कहा करते थे बावली तुम
मेरी सूखी पलको में
जाने कहाँ से आ गए आंसू
क्या इसलिए कि
उसी समय उमड़े थे मेघ
बरसे थे लगातार
और जुड़ाई थी
अरसे बाद
धरती की छाती |
देखा तुम्हें
सुनी तुम्हारी आवाज
दर्द में डूबा वही स्वर
वही कशिश
जरा भी नहीं बदले थे तुम
जबकि बदल गए थे
सारे के सारे हालात
और मैं
जो तुम्हें भूल जाने का
भ्रम पाले बैठी थी
फिर से वही की वही हो गई
जिसे कहा करते थे बावली तुम
मेरी सूखी पलको में
जाने कहाँ से आ गए आंसू
क्या इसलिए कि
उसी समय उमड़े थे मेघ
बरसे थे लगातार
और जुड़ाई थी
अरसे बाद
धरती की छाती |
3-
देह रहित है प्रेम
ना आँखें ना होंठ
न ह्रदय
फिर भी देह को
बांधे रखता है
मन रहित है
मन के बंधन में रहता है
विचित्र है
चाहो तो नहीं मिलता है।
ना आँखें ना होंठ
न ह्रदय
फिर भी देह को
बांधे रखता है
मन रहित है
मन के बंधन में रहता है
विचित्र है
चाहो तो नहीं मिलता है।
आँखें वही
चितवन अलग
देह वही
मुद्राएं अलग
होंठ वही
कशिश अलग
सच है सभी हैं
एक जैसे इंसान ही
होता है मगर
प्यार का अहसास अलग ।
चितवन अलग
देह वही
मुद्राएं अलग
होंठ वही
कशिश अलग
सच है सभी हैं
एक जैसे इंसान ही
होता है मगर
प्यार का अहसास अलग ।
5-
जब थे तुम
तब बाहर के बसंत
और भीतर के बसंत में
कोई फर्क ही नहीं था
होती रहती थी रंग वर्षा
हर पहर
रंग बोलते थे
बहुत कुछ कहते थे
सुनते थे
होते थे इतने गहरे
कि
रंग उठता था
मन भी
तन के साथ
आत्मा मीरा बनकर
गिरिधर के गीत गाती थी
आज बाहर का बसंत
पहले जैसा ही है
पर भीतर के बसंत में
घुल-मिल गयी हैं
हजार ऋतुएँ
एक क्षण सुहाना होता है
दूसरे क्षण छा जाती है
एक अनाम उदासी
आज कृत्रिम रंग हैं
जो चिपकते हैं
ना कुछ कहते हैं
ना सुनते हैं
बस चमकते रहते हैं |
क्या ऋतु-संहार हो चुका है
जीवन में
न होने से तुम्हारे |
तब बाहर के बसंत
और भीतर के बसंत में
कोई फर्क ही नहीं था
होती रहती थी रंग वर्षा
हर पहर
रंग बोलते थे
बहुत कुछ कहते थे
सुनते थे
होते थे इतने गहरे
कि
रंग उठता था
मन भी
तन के साथ
आत्मा मीरा बनकर
गिरिधर के गीत गाती थी
आज बाहर का बसंत
पहले जैसा ही है
पर भीतर के बसंत में
घुल-मिल गयी हैं
हजार ऋतुएँ
एक क्षण सुहाना होता है
दूसरे क्षण छा जाती है
एक अनाम उदासी
आज कृत्रिम रंग हैं
जो चिपकते हैं
ना कुछ कहते हैं
ना सुनते हैं
बस चमकते रहते हैं |
क्या ऋतु-संहार हो चुका है
जीवन में
न होने से तुम्हारे |
6-
वह रंग तेरा
यह रंग मेरा
कह रहे हैं हम ये क्या
आओ मिलाकर
अपने अपने रंग
बनाएँ रंग कोई नया
दो रंगों के मेल से
बनती हैं सैकड़ों रंगतें
और अलग होती है
हर रंगत दूसरी रंगतों से
ओ देखो प्रकृति सुंदरी
मिलाकर लाल हरा
बना रही है रंग नीला
हम भी मिलाकर
अपना नारंगी हरा
नीला आकाश बनाएँ
और मिलाकर अपने हाथ
सफेद कबूतर उड़ाएँ |
यह रंग मेरा
कह रहे हैं हम ये क्या
आओ मिलाकर
अपने अपने रंग
बनाएँ रंग कोई नया
दो रंगों के मेल से
बनती हैं सैकड़ों रंगतें
और अलग होती है
हर रंगत दूसरी रंगतों से
ओ देखो प्रकृति सुंदरी
मिलाकर लाल हरा
बना रही है रंग नीला
हम भी मिलाकर
अपना नारंगी हरा
नीला आकाश बनाएँ
और मिलाकर अपने हाथ
सफेद कबूतर उड़ाएँ |
7--
कभी-कभी दीखता है
पूरब दिशा से
कुहासे को चीरकर निकलता
ओस में भीगा
ताजा ..निखरा
सुंदर तुम्हारा चेहरा
और मुझे लगता है
यही है ईश्वर |
कभी-कभी दीखता है
पूरब दिशा से
कुहासे को चीरकर निकलता
ओस में भीगा
ताजा ..निखरा
सुंदर तुम्हारा चेहरा
और मुझे लगता है
यही है ईश्वर |
8 -
जिंदगी की धूप में
पकता रहा
तुम्हारा प्रेम
जैसे पकता है
कच्चा दूध
धान की बालियों में |
पकता रहा
तुम्हारा प्रेम
जैसे पकता है
कच्चा दूध
धान की बालियों में |
9-
जब टूट जाता है
सब्र का बांध
आँखों से फूट पड़ता है सैलाब
जाने कैसे औचक आ जाते हो तुम |
10 -
एक बार फिर
दस्तक देने के लिए उठे मेरे हाथ ,
और दरवाजा खुलने की आवाज के बीच
जो वक्त गुजरता है ,हाँ उस वक्त भी ,अक्सर
यही सोचती रहती हूँ मैं ,कि
आज ये भी वो भी और जाने क्या-क्या ..
सब कह डालूंगी मैं तुमसे
काफी कुछ कह भी जाती हूँ
जो कुछ याद आता है
कुछ भी तो नहीं छोड़ती उसमें से
जल्दी से जल्दी
भरने की कोशिश करती हूँ ,
किसी परीक्षार्थी की तरह
अतिरिक्त उत्तर पुस्तिकाएँ |
मगर ....!
हमेशा की तरह
फिर आ जाता है
चलने का वक्त
-और ,
अनुत्तरित ही रह जाते हैं
तुम्हारे कुछ प्रश्न
अनदिए ही रह जाते हैं
मेरे कुछ उत्तर |
“”अच्छा!चलती हूँ !””’’
और ...
“’’फिर कब आओगे ?’’के बीच ,
छूट जाता है ,कितना कुछ !
आने वाले कल के लिए
हर बार की तरह ,एक बार फिर|
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