Wednesday 1 February 2017

प्रेम का आनंद

प्रेम क्या है यह बताना लगभग असम्भव है |कारण यह गूंगे का गुड़ है| देह,मन,आत्मा का ऐसा आस्वाद है जिसे बताने में इंद्रियां चूक जाती हैं अलसा जाती हैं |वे प्रेम के आस्वाद का अनुभव तो करती हैं पर उसी रूप में व्यक्त नहीं कर पातीं |यही कारण है कि आज भी प्रेम अपरिभाषित है ,नव्य है,काम्य है |जीव-जगत का ऐसा कौन सा प्राणी होगा जिसपर इसका जादू नहीं चढ़ता |अबोध हो या सुबोध ,अज्ञ या विज्ञ किसी भी जाति ,धर्म सम्प्रदाय,क्षेत्र ,देश का आदमी हो ,उसकी अपनी बोली-बानी कुछ भी हो,वह प्रेम की भाषा समझता है |प्रेम का स्पर्श देह मन आत्मा को छू लेता है |पेड़-पौधे तक इस स्पर्श को समझते हैं |प्रेम ही सृष्टि का आधार है और उसी के कारण सृष्टि बनी हुई है |सिर्फ बनी हुई ही नहीं सुंदर है |रसपूर्ण, आनंददायक और जीवंत है |यह प्रेम सिर्फ स्त्री-पुरूष के रिश्ते तक सीमित नहीं है, उसका विस्तार वसुधैव कुटुम्बकम है |प्रकृति के कण-कण तक है|पेड़-पौधे ,जीव-जन्तु और पूरी मानव जाति तक है |वह प्रेम ही है जो ईश्वर को जरा -से छाछ के लिए ग्वालिनों के सामने नाचने पर मजबूर कर देता है |मीरा को मूर्ति जीवित पुरूष से ज्यादा प्यारी लगती है |राधा सारे रिश्ते-नाते भूल जाती है |प्रेम बंधन सीमा मर्यादा नहीं मानता |वह स्वयं स्वतंत्र है और सबको स्वतंत्र करता है |बांधना प्रेम का स्वभाव नहीं |प्रेम सुवासित झोके की तरह आता है और तन मन आत्मा को महका कर कहीं और चला जाता है टिकता नहीं बांधते तो रिश्ते हैं |रिश्ते जो प्रेम की वजह से बनते तो हैं पर बाद में बंधन बन जाते हैं |इस बंधन में स्थायित्व तो है पर ताजगी नहीं |उत्फुल्लता नहीं आनंद नहीं |वहाँ जरूरत है निर्भरता है नियम है परम्परा है जिसे न चाहते हुए भी मनुष्य को निभाना पड़ता है |वहाँ अक्सर प्रेम देह तल ही रहता है |देह से चलकर मन तक और फिर आत्मा या ईश्वर तक नहीं पहुँचता |प्रेम के तीन स्तरों तक विरला ही पहुँच पाता है और जो पहुँचता है पर परम आनंद को प्राप्त कर लेता है यह प्रेम का आनंद है |   


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