Wednesday 10 June 2020

लपका



नहीं जी ,यह कोई नया शब्द नहीं है

मनुष्यों में एक विशेष प्रजाति है 'लपका'
कि जहां भी कुछ फायदे की उम्मीद होती है
वह वहीं लपक लेता है
लपककर ,झपटकर या भागकर पहुंच जाता है
अपने शिकार के पास
उसे अपने पंजे में यूं जकड़ता है
कि शिकार निस्सहाय हो जाता है
और अक्सर अपना सब कुछ गंवा बैठता है
लपका को पहचानना आसान नहीं होता
उसके पास सुंदर लुभावनी भाषा होती है
और अवसर के अनुरूप वस्त्र
उसके मुखौटे बिल्कुल वास्तविक लगते हैं
उसे हर क्षेत्र के इतिहास भूगोल की जानकारी होती है
जिससे शिकार मंत्रमुग्ध हो जाता है
और उसे महाज्ञानी समझ बैठता है
हालांकि सतही ही होता है उसका ज्ञान
शिकार यह जान नहीं पाता है
वह शिकार से सहानुभूति जताता है
मदद की दुहाई देता है पर सब जुबानी ही होता है
उसमें न दया होती है न भावना
मानवता तो दूर की बात है
वह स्वार्थ का पुतला होता है
आम जन ही क्यों वह तो महापुरूषों को भी
बेचकर खा जाता है
तिकड़मी चालों से बड़ा पद ,कद ,पुरस्कार
और सम्मान भी पा जाता है
ऐसे लपके आपके आस -पासगांव- मोहल्ले
कार्यस्थल ,सभा-समारोह हर जगह मिल सकते हैं
ये सीधे सच्चे दिखते हैं पर खतरनाक होते हैं
वैसे कुछ और तरह के भी लपके होते हैं
जिसे अमूमन सभी जानते हैं
वे ऐतिहासिक धार्मिक ,आर्थिक व सांस्कृतिक महत्व के
स्थानों के आस पास मँडराते हैं
क्योंकि वहाँ देश -विदेश से ज्ञानपिपासु आते हैं
और इनके जाल में फंसकर लुटकर जाते हैं।
उसकी विशेषता होती है


No comments:

Post a Comment