जैसे आत्मा
पुराने शरीर को छोड़कर नए शरीर को धारण करती है उसी प्रकार प्रेम भी उस शरीर को छोड़
देता है जिसमें संवेदनाएँ समाप्त हो जाती हैं |यह उसका हरजाईपन नहीं स्वभाव है इसलिए यह कहना
गलत होगा कि प्रेम एक बार या एक से ही हो सकता है |हाँ ,प्रेम में वही ईमानदारी हर बार मौजूद रहती है जो पहले प्रेम के समय होती है |प्रेम को सिर्फ देह समझने वाले दुबारा प्रेम को
लस्ट[वासना] कहते हैं ,उन्हें पता नहीं कि प्रेम आत्मा की प्यास है ,मन की जरूरत है ,देह तो बस माध्यम है|’निरालंब कित धावै’ के कारण प्रेम को देहधारी की जरूरत पड़ती है ,वरना वह तो अलख निरंजन में भी मगन रह सकता है | प्रेम ‘दो’ को एक कर देता है उन्हें अर्धनारीश्वर बना
देता है |एक बराबर बना देता है |एक को अलग करते ही दूसरा स्वत:समाप्त हो जाता
है |दोनों के बीच जरा सी भी खाली जगह नहीं होती ,ऐसे में तीसरे की गुंजाइश कहाँ?प्रेम में विवाद ,संघर्ष ,विमर्श ,अलगाव की जरूरत ही नहीं
होती |
प्रेम में भौगोलिक
,सामाजिक,पारिवारिक दूरियाँ कोई मायने नहीं रखतीं |दोनों एक –दूसरे के मन को बिना बताए भी पढ़ सकते हैं |प्रेम में मौन भी मुखर होता है [भरे भौन में करत है नैनन ही सो बात ]|अनकही को भी प्रेमी सुन लेते हैं |कोई भी बाधा प्रेम की धारा को अवरूद्ध नहीं कर
सकती |किसी की देह को हासिल करके भी उसका प्रेम नहीं
पाया जा सकता क्योंकि प्रेम में ‘हासिल करना’ जैसा भाव नहीं होता |प्रेम तो खुद को ही समर्पित कर देता है |उसे जीतकर नहीं पाया जा सकता |यही कारण है कि जीवन भर साथ रहने के बाद भी कई
दंपति प्रेम का आस्वाद नहीं चख पाते और अंत तक प्रेम के लिए तरसते हैं |कोई –कोई ‘अन्य’ के साथ पल भर के रिश्ते में सार्थक हो लेते
हैं |प्रेम को समझना,समझाना आसान नहीं है|’जो पावै सो जानै’|
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