स्त्री विमर्श
मेँ पुरूष से विरोध दिखता है और प्रेम मेँ
पुरूष की जरूरत है |प्रेम मेँ अपने स्वतंत्र अस्तित्व का विलय करना
होता है [जब मैं था तब हरि नहीं अब हरि हैं मैं नाहि|] जबकि विमर्श स्वतंत्र अस्तित्व की मांग करता
है |विमर्श कहता है मुझे पहचान चाहिए, अलग पहचान,स्वतंत्र पहचान|प्रेम कहता है हम दो हैं
ही नहीं | प्रेम दिल की जरूरत है विमर्श दिमाग की |
स्त्री पर हमेशा
दिल ही भारी होता है |पुरूष प्रेम भी दिमाग से
करता है ,भले ही वह दिल की बात करे | फिर दोनों मेँ मेल क्योंकर संभव है ?
प्रश्न यह है कि
क्या सच ही स्त्री विमर्श मेँ पुरूष या प्रेम के लिए जगह नहीं ?मेरे विचार से यह सही नहीं है |दरअसल स्त्री विमर्श को
पुरूष या प्रेम से विरोध है ही नहीं |विरोध है तो इस बात से कि प्रेम मेँ जनतंत्र नहीं है |प्रेम के जनतंत्र मेँ दो स्वतंत्र व्यक्तित्व
वाले स्त्री-पुरूष संयुक्त हो सकते हैं |एक दूसरे से प्रेम कर सकते हैं पर परंपरा से जो प्रेम हमें प्राप्त है उसमें
स्त्री को अपना स्वतंत्र अस्तित्व मिटाना पड़ता है ,जबकि पुरूष अपने “””’मैं”’ को साथ लेकर चलता है |प्रेम मेँ स्त्री-पुरूष मेँ बराबरी का संबंध
होना चाहिए , पर ऐसा होता नहीं |प्रेम की सारी शर्ते स्त्री के लिए होती हैं –एकनिष्टता
,त्याग,समर्पण ,बंधन सब| पुरूष के लिए नहीं ,फिर उनका प्रेम कैसे परवान चढ़ सकता है ?यही कारण है शुरू मेँ जिसे प्रेम समझा जाता है ,बाद मेँ कटुता[कभी शत्रुता] मेँ बदल जाता है |स्त्री शालीन होती है इसलिए वह अपनी कटुता भले ही प्रकट न करे और चुपचाप अपने सम्बन्धों का
निर्वाह किए जाए ,पर उसके मन मेँ विद्रोह
पनपता रहता है और ज्यों ही उसके जीवन मेँ किसी दूसरे प्रेम का प्रवेश होता है वह
बावली हो जाती है |समाज मेँ न तो उसके
विद्रोह को अच्छा माना जाता है न दूसरे प्रेम के प्रवेश को |उसके प्रेम को ‘वासना’[लस्ट] कहकर सर्वत्र उसकी निंदा होती है|उसे कुलटा,बदचलन कहा जाता है |कई देशों मेँ तो उसे पत्थर मार-मार कर मार डालते हैं |शास्त्रों मेँ भी ऐसी स्त्री को जीवित जमीन मेँ
गाड़ने या कुत्तों से नुचवाने की आज्ञा है |कई पंचायतों ने तो दंड स्वरूप ऐसी स्त्री से सामूहिक बलात्कार तक करवाएँ हैं |
लेकिन पुरूष को दूसरे
प्रेम की ऐसी सजा कहीं नहीं दी जाती |उसके प्रेम को उतना गलत नहीं माना
जाता |कृष्ण के सैकड़ों गोपियों व हजारों रानियों से
प्रेम को कौन गलत कहता है ?वे तो अनगिनत बार प्रेम करके भी योगिराज कहलाते रहे |आध्यात्मिक रंग देने वाले इस पर लीपापोती कर देते हैं |वे वेद और उनकी ऋचाओं का बहाना बनाते हैं |आज हम कृष्ण राधा को युगल
के रूप मेँ पूजते हैं |उनके प्रेम का हवाला देते हैं पर क्या हमने कभी सोचा कि कृष्ण के मथुरा जा
बसने के बाद राधा का क्या हुआ होगा ?क्या उसको अपने उसी पति के साथ शेष जीवन गुज़ारना पड़ा होगा ,जिसके होते हुए भी वे कृष्ण के प्रेम मेँ पड़ी |और क्या सब कुछ जानते हुए भी पति ने उसे अपना
लिया होगा |
इस मायने मेँ राम
आदर्श प्रेमी थे पर उनके प्रेम पर उनका मर्यादा पुरूषोत्तम अहंकार [मैं]भारी पड़ गया |वे अपने प्रेम पर विश्वास ही नहीं कर सके |उनके मन से संदेह नहीं
गया जबकि प्रेम मेँ अविश्वास की कोई जगह नहीं होती |
जैसे आत्मा
पुराने शरीर को छोड़कर नए शरीर को धारण करती है उसी प्रकार प्रेम भी उस शरीर को छोड़
देता है जिसमें संवेदनाएँ समाप्त हो जाती हैं |यह उसका हरजाईपन नहीं स्वभाव है इसलिए यह कहना
गलत होगा कि प्रेम एक बार या एक से ही हो सकता है |हाँ ,प्रेम में वही ईमानदारी हर बार मौजूद रहती है जो पहले प्रेम के समय होती है |प्रेम को सिर्फ देह समझने वाले दुबारा प्रेम को
लस्ट[वासना] कहते हैं ,उन्हें पता नहीं कि प्रेम आत्मा की प्यास है ,मन की जरूरत है ,देह तो बस माध्यम है|’निरालंब कित धावै’ के कारण प्रेम को देहधारी की जरूरत पड़ती है ,वरना वह तो अलख निरंजन में भी मगन रह सकता है | प्रेम ‘दो’ को एक कर देता है उन्हें अर्धनारीश्वर बना
देता है |एक बराबर बना देता है |एक को अलग करते ही दूसरा स्वत:समाप्त हो जाता
है |दोनों के बीच जरा सी भी खाली जगह नहीं होती ,ऐसे में तीसरे की गुंजाइश कहाँ?प्रेम में विवाद ,संघर्ष ,विमर्श ,अलगाव की जरूरत ही नहीं
होती |
प्रेम में
भौगोलिक ,सामाजिक,पारिवारिक दूरियाँ कोई मायने नहीं रखतीं |दोनों एक –दूसरे के मन को बिना बताए भी पढ़ सकते हैं |प्रेम में मौन भी मुखर होता है [भरे भौन में करत है नैनन ही सो बात ]|अनकही को भी प्रेमी सुन लेते हैं |कोई भी बाधा प्रेम की धारा को अवरूद्ध नहीं कर
सकती |किसी की देह को हासिल करके भी उसका प्रेम नहीं
पाया जा सकता क्योंकि प्रेम में ‘हासिल करना’ जैसा भाव नहीं होता |प्रेम तो खुद को ही समर्पित कर देता है |उसे जीतकर नहीं पाया जा सकता |यही कारण है कि जीवन भर साथ रहने के बाद भी कई
दंपति प्रेम का आस्वाद नहीं चख पाते और अंत तक प्रेम के लिए तरसते हैं |कोई –कोई ‘अन्य’ के साथ पल भर के रिश्ते में सार्थक हो लेते
हैं |प्रेम को समझना,समझाना आसान नहीं है|’जो पावै सो जानै’|
स्त्री विमर्श पूछता
है स्त्री पर पूर्णाधिकार चाहने वाले पुरूष अन्य स्त्रियॉं से प्रेम कैसे कर सकते
हैं ?और दूसरे पुरूष के प्रेम मेँ पड़ी स्त्री को गलत
कैसे कह सकते हैं ?कैसे एक ही चीज एक के लिए सही दूसरे के लिए गलत
हो सकती है ?या तो पुरूष भी समर्पण
करे या स्त्री से समर्पण न चाहे |स्त्री की उम्र ज्यादा हो तो हाय-तौबा मच जाती है,जबकि पुरूष के लिए उम्र की कोई शर्त नहीं होती |यह दुहरी नीति क्यों?
पुरूष कहता है कि
उसे प्रेरणा के लिए अन्य स्त्री चाहिए| फिर अगर स्त्री प्रेरणा स्वरूप कोई अन्य पुरूष चुने तो यह गलत क्यों ?स्वयं ‘अन्य’ पुरूष के लिए भी दूसरी स्त्री भी ‘अन्या’ ही रहती है ‘अनन्या’ नहीं हो पाती |
प्रेम मेँ
जनतंत्र की तरह स्त्री-पुरूष का समान अधिकार होना चाहिए |पर ऐसा नहीं है |प्रेम मेँ पूरी तरह राजतंत्र है | प्रेम में जनतंत्र
हो भी कैसे जब समाज मेँ ही स्त्री का जनतंत्र नहीं है |जब तक स्त्री का जनतंत्र नहीं होगा ,प्रेम का जनतंत्र नहीं हो सकता |दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं |यह विभेद मिटेगा तभी यह देश पूर्ण जनतांत्रिक होगा और किसी विमर्श की आवश्यकता नहीं रह
जाएगी |
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