दूसरा थप्पड़
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रंजना जायसवाल
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निशा की खुशी का
कोई ठिकाना नहीं था। होता भी क्यों नहीं, साधारण परिवार में जन्मी-पली वह अचानक हाई सोसाइटी में जो जा
पहुंची थी। उसकी इस उछाल के पीछे भी एक कहानी है। बात बस कुछ दिनों पुरानी
है। एक दिन निशा के पिता द्घनश्याम दास को, जो इन दिनों एक स्कूल में प्रिंसिपल हैं, की मुलाकात अपने स्कूल के दिनों के साथी धर्मेन्द्र सिंह से
अचानक हो गई। दोनों मित्रा इस मुलाकात से बहुत प्रसन्न हुए। धर्मेन्द्र
सिंह यद्यपि इन दिनों करोड़ों के कारोबारी थे, पर अभिमान ने उन्हें
स्पर्श तक नहीं किया था। दोनों मित्राों के मिलने का सिलसिला चल निकला।
धर्मेन्द्र सिंह का इकलौता बेटा अनीश हाल ही में विलायत से डॉक्टरी पढ़कर
लौटा था और वे उसके लिए एक बड़ा हॉस्पिटल बनवा रहे थे। हालांकि अनीश का मन
विलायत में ही प्रेक्टिस का था, पर पिता की जिद से लाचार था। एक दिन
धर्मेन्द्र सिंह द्घनश्याम के द्घर आए और निशा को देखकर बहुत खुश हुए। निशा
ने संस्कृत साहित्य में एम.ए. किया था। बेहद संस्कारशील, सुंदर
व शालीन लड़की थी, इसलिए
उन्होंने मित्रा द्घनश्याम से निशा और अनीश की शादी के बारे में बात की।
द्घनश्याम को पहले तो निशा के भाग्य पर विश्वास ही नहीं हुआ, पिफर
उन्हें डर सताने लगा, क्योंकि
अनीश विलायत का पढ़ा-लिखा बेहद माडर्न लड़का था, जबकि
निशा बहुत ही सीधी सरल व भावुक थी। पर धर्मेन्द्र सिंह की जिद के आगे
द्घनश्याम दास की एक न चली और इस तरह से अनीश व निशा की शादी हो गई।
निशा अनीश को पाकर निहाल थी, पर अनीश इस विवाह से
खुश नहीं था। वैसे उसे निशा की खूबसूरती से इन्कार नहीं था, पर
वह अपने लिए माडर्न लड़की चाहता था। दरअसल विलायत में उसे सुंदरियों के
खुलेपन का चस्का लग गया था। अब इस शालीन, संस्कारशील, सलज्ज सुंदरी का वह
क्या करे? उसे
पिता पर क्रोध आता, पर
उनकी संपत्ति का लोभ उसे कोई भी कदम उठाने से रोक लेता। विवाह के दूसरे
महीने से ही वह निशा से ऊबने लगा। एक दिन सुबह जब निशा उसके लिए चाय लेकर आई
तो वह चीख पड़ा-
'उपफ, रोज-रोज
वही एक-सा चेहरा! वही शरीर!' निशा हतप्रभ हो उठी।
'क्या कह रहे हैं ये! क्या अपने बेडरूम में वे हर सुबह नया
चेहरा देखना चाहते हैं।'
निशा का मन उलझ गया-
'लगता है मैं इन्हें पसंद नहीं। मुझे पता करना चाहिए कि इन्हें
क्या पसंद है और वैसे ही रहना चाहिए।' निशा ने धीरे-धीरे आधुनिक रहन-सहन अपना
लिया। उसकी
सुंदरता और भी दमक उठी। पिफर भी अनीश का मुँह सीधा नहीं होता
था। निशा ने कई बार अनीश से पूछा भी-
'मुझमें क्या कमी है! आप जो और जैसा चाहते हैं-बताएँ। मैं वैसा
ही बनने का प्रयास करूँगी।'
पर अनीश चुप रहा। वह कैसे कहे कि अपनी पुरानी जिंदगी में वापस
जाना चाहता है। रात भर चलने वाली पार्टियां उसे पसंद हैं। उन पार्टियों में
कई ऐसे कार्यक्रम होते हैं,
जिनसे जिंदगी में नवीनता आती है। अनीश अभी तक ऐसी पार्टियों के
एक विशेष आयोजन में शिरकत नहीं कर पाया था, जो सिपर्फ विवाहित
जोड़ों के लिए था। उसने सोचा था विवाह के उपरांत वह अपनी पत्नी के साथ
सप्ताहान्त में होने वाले इस विशेष आयोजन का मजा लेगा। पर निशा जैसी लड़की
कभी ऐसी पार्टी में शामिल नहीं होना चाहेगी। मध्यवर्ग की यह संकोची लड़की
कहीं उसके पिता से शिकायत न कर दे। अनीश इसी तनाव से गुजर रहा था, पर
एक दिन उसने पफैसला कर लिया कि वह निशा को उस पार्टी में ले जाएगा पिफर चाहे
जो भी हो। आखिर कब तक वह मन मारकर जीयेगा?
वह शनिवार की शाम थी जब अनीश ने निशा को एक मार्डन ड्रेस दी और
तैयार होने को कहा। निशा ने उस ड्रेस को देखते ही कहा-
'छिः, इसमें
तो सबकुछ दिखता है।
'अनीश चिल्लाया-'गंवार, जाहिल औरत, तुम्हें इसी ड्रेस
में मेरे साथ पार्टी में चलना पड़ेगा, वरना तुम्हें छोड़ दूंगा।' निशा
सन्नाटे में आ गई।
'क्या कह रहे हैं ये! इनके मन में मेरे लिए ऐसे भाव हैं! अपनी
पत्नी को अर्धनग्न अवस्था में ये पार्टी में लोगों के सामने ले जाएंगे, क्या
इन्हें शर्म नहीं आएगी! शायद हाई सोसाइटी में शर्म के लिए कोई जगह नहीं।
शायद ऐसे ही ड्रेस वहां प्रचलित हों। तो क्या बुरा है जब पति ही को एतराज
नहीं, तो
वह कौन होती है एतराज करने वाली! वह संकोच से बोली-
'पर इस ड्रेस को पहनकर बाहर कैसे निकलूँगी? कहीं
पिताजी...।
'ऊपर से शाल डाल लेना। पार्टी के भीतर जाने से पहले शाल को कार
में छोड़ देंगे, चलो
जल्दी करो।' अनीश
ने हड़बड़ी िदखाई। ...पार्टी में बड़ी रौनक थी। पारदर्शी लिबासों में हाथों
में जाम लिए स्त्रिायाँ खिलखिला रही थीं। निशा को सबकुछ अटपटा लग रहा था, पर
क्या करे? अनीश
ने उसे भी कुछ पीने को कहा,
पर उसने मना कर दिया। अनीश दूसरी औरतों की तरपफ बढ़ गया। निशा
देख रही थी कि वहाँ पर उपस्थित पुरुष दूसरी स्त्रिायों में ज्यादा दिलचस्पी
ले रहे थे और स्त्रिायाँ दूसरे पुरुषों में।-
'हे, ईश्वर, ये
कैसा द्घालमेल है।'
खाने-पीने व डांस कर चुकने के बाद एक विचित्रा वाद्य बजा। सभी
जोड़े
उत्सुकता से सामने देखने लगे। अनीश निशा के कान में
पफुसपफुसाया-
'अब असली मजे का खेल शुरू होगा।' निशा ने देखा। चमकीले
बड़े से जार में छोटे-छोटे कागज की मुड़ी हुई स्लीपें पड़ी हैं।-
'ये क्या है'-निशा
उत्सुक थी। 'इन
स्लिपों पर सभी स्त्रिायों के नाम लिखे हैं।'
'क्यों'-निशा
ने पूछा।-
'यह इस खेल की शुरुआत है। अब एक-एक पुरुष आगे बढ़ेगा और एक-एक
स्लिप उठायेगा। उसकी स्लिप में जिस स्त्राी का नाम लिखा होगा वह उसकी रात की
पार्टनर होगी।' अनीश
ने उत्साह से बताया।
-'क्या!' निशा
को शॉक लगा-
'तो यह है मजेदार खेल! पत्नियों की अदला-बदली! यही है हाई
सोसायटी! और इन्हें देखो,
कितनी हसरत से अपनी पारी का इंतजार कर रहे हैं, जैसे
औरत की देह तो कभी मिली ही नहीं इन्हें। तो क्या मुझे भी किसी दूसरे पुरुष
की... नहीं, यह
नहीं हो सकता। कभी नहीं। मरकर भी नहीं।' निशा ने अनीश का हाथ पकड़ा-
'मुझे द्घर जाना है, अभी इसी वक्त! मेरी तबियत ठीक नहीं है।' अनीश
उसे रोकता कि वह तेजी से बाहर की तरपफ भागी। अनीश को मन मारकर उसके पीछे आना
पड़ा। कार में बैठते ही अनीश ने एक झन्नाटेदार थप्पड़ निशा के बायें गाल पर
मारा-
'गंवार! मैं जानता था, तू ऐसा ही करेगी! सारा मजा खराब कर दिया। अब
तेरे साथ रहना मुश्किल है। मैं जल्द ही तुझे तलाक दे दूँगा।'
द्घर लौटकर अकेले कमरे में निशा पफूट-पफूटकर रोती रही कि अपने
पूरे अस्तित्व को अनीश के चरणों में समर्पित करके भी वह उसे खुश नहीं कर पाई
है। तो क्या अब उसे 'वेश्या' जैसा
बनना होगा! उसके संस्कार,
धर्म, परिवार-समाज
क्या कभी इस आयातित पफैशन को
स्वीकार कर सकेंगे? वह सोचती रही-
'क्या हम पशु हो गये हैं जहाँ स्त्राी बस मादा है पुरुष सिपर्फ
नर। कैसे कोई बिना मन से जुड़े किसी के साथ देह बांट सकता है, कैसे!
क्या हम उसे सुबह होते ही भूल सकते हैं, जिसके साथ रात गुजारी हो।' मैंने
तो पढ़ा है-हर स्पर्श आत्मा की किताब में दर्ज हो जाता है और इंसान उसे
जीते-जी नहीं भूल सकता है। पर हाई सोसायटी में ऐसी बातें गंवारपन हैं। क्या
भावनाओं का कोई महत्व नहीं। हम कहां जा रहे हैं? अनीश
को वह कैसे समझाये? कैसे
कहे कि वासना की आग में जितना द्घी डालो वह उतनी ही तेज भभकती है। इच्छाओं
का कहीं कोई अंत नहीं। क्यों पुरुष अलग-अलग तरह की स्त्रिायों का सुख भोगना
चाहता है। क्या सभी स्त्रिायाँ देह के स्तर पर एक-सी नहीं हैं। अलग-सा सुख
बस दिमाग का पिफतूर है। दिमाग में बनी एक भ्रामक ग्रंथि है। उससे अनीश को
बचाना होगा। उसका यह भ्रम तोड़ना होगा कि भटकाव में सुख है। दरअसल वह भूल
गया है कि सुख देह में नहीं मन में होता है। मजा बदलाव में नहीं, अपनेपन
की महसूस में होता है। निशा यही सब सोचते-सोचते जाने कब सो गयी।
सुबह अनीश जब सामान्य दिखा, तो निशा ने उससे बातचीत शुरू की। अनीश बस
हाँ-हूँ करता रहा। शायद वह निशा को थप्पड़ मारकर डरा हुआ था कि कहीं निशा
पिता से यह सब बता न दे। निशा ने उसे अपने अनुकूल समझकर समझाना शुरू कर
दिया। समझाने के क्रम में उसने उसे एक कहानी सुनाई-'एक
राजा था, जो
बहुत ही अक्षयाश था। उसके राज्य में जब भी कोई दुल्हन आती, तो
पहली रात उसे राजा के साथ गुजारनी पड़ती। यह नियम बन चुका था, जिसे
मानने के लिए प्रजा विवश थी। एक दिन दूसरे राज्य से ब्याह कर एक बु(मिान
लड़की लाई गई। जब उसकी डोली राजमहल की तरपफ ले जाई जा रही थी, तो
उसने इस बाबत पूछा। सब कुछ जानकर उसे आद्घात लगा, पर
उसने इसका काट सोच लिया। जब
राजमहल के विशेष कक्ष में उसे तैयार किया जा रहा था, तो
राजा ने अपनी विशेष दासी से पुछवाया कि दुल्हन के लिए क्या उपहार भिजवाऊं।
दुल्हन ने उनसे खीरा मंगवाया। राजा जब शीशमहल आए, तब
तक दुल्हन ने खीरे को छिलवाकर लम्बे-लम्बे टुकड़े करवा लिए थे और हर टुकड़े
को अलग-अलग रंग से रंगवा दिया था। किसी को सपफेद, किसी
को काला, पीला
तो किसी को गुलाबी रंग में। ऊपर से नमक व काली मिर्च का छिड़काव था। राजा आए, दुल्हन
को देख प्रसन्न हुए। दुल्हन ने उन्हें खीरे के टुकड़े पेश किए। पहले सपफेद
और प्रश्न किया-कैसा लगा?
पिफर गुलाबी-और ये! पिफर काला-क्या वैसा ही? राजा
हैरान होकर बोले-अरे भई,
खीरे का स्वाद रंग बदलने से अलग कैसे हो जाएगा? सबका
स्वाद एक-सा ही है। दुल्हन हँसी-'ठीक ऐसे ही हर स्त्राी का स्वाद एक-सा होता
है। उसका आनंद प्रेम के कारण मिलता है। स्त्रिायाँ बदलने से नहीं।' राजा-
ज्ञान के चक्षु खुल गये। वे दुल्हन के कदमों में गिरकर रोने लगे।
यह कहानी सुनाकर निशा ने अनीश की ओर देखा तो वह व्यंग्य से
मुस्करा रहा था। चुप नहीं रहा गया तो बोल पड़ा-
'इसी कारण लोग कहते हैं संस्कृत व हिन्दी पढ़ी लड़कियाँ पिछड़े
दिमाग की होती हैं। तुम क्या जानो परिवर्तन में ही मजा है, एकरसता
में नहीं। पिफर हफ्रते में एक दिन के बदलाव से तन-मन
प्रपफुल्लित ही रहेगा, पर तुम सी मूर्ख स्त्राी इसे क्या समझेगी? 'अनीश
बाहर चला गया और निशा अपनी पराजय से हतप्रभ हो उठी।
निशा से अनीश निरंतर दूर हो रहा था। अब वह उसके बेडरूम में भी
नहीं सोता था। शराब तो खैर वह रोज ही पीता था, पर इधर वह अक्सर रात
को भी बाहर रहने लगा था। निशा चिंतित थी-क्या करे, कैसे
अपने विवाह को बचाए। कहीं अनीश ने उसे तलाक दे दिया, तो
वह क्या करेगी, कहाँ
जाएगी। बेटी ब्याह कर गंगा नहा चुके माता-पिता पर बोझ बनना क्या उचित होगा? अपने
पैरों पर खड़ा होना भी क्या आसान है? अंग्रेजी के वर्चस्व के आगे हिन्दी ही पानी
भर रही है, तो
पिफर संस्कृत जैसी पुरातन देवभाषा का क्या स्कोप! क्या भविष्य! अनीश के पिता
से कहे तो पिता-पुत्रा के बीच तनाव बढ़ेगा और इसकी कारक वही मानी जाएगी।
क्या करे वह! क्या अनीश की बात मान ले? आखिर उसी के साथ तो जीवन गुजारना है। वह भी
देखे क्या उस एडवेंचर को...! उस सुख को, जिसके लिए अनीश कालगर्ल्स के पास भी जाता है, पर
शायद दूसरों की पत्नियों सी बात उसे वहाँ भी नहीं मिली। 'छिः, क्या
सोच रही है वह। क्या उस पर भी हाई सोसायटी का असर हो रहा है।' -तो
बुरा क्या है, जब
इतनी सारी औरतों को परहेज नहीं, पिफर उसे ही क्यों? -'तो
क्या तुम्हारी अपनी कोई सोच नहीं, अस्मिता नहीं, व्यक्तित्व नहीं... क्या
तुम भी उन्हीं स्त्रिायों सी हो, जो पति की इच्छा से बंट जाती हैं, बिक
जाती हैं। क्या इतनी लाचार हो तुम! क्या अपने स्त्राीत्व के साथ हो रहे
अन्याय को सह लोगी। छोड़ दो अनीश को...।' नहीं... नहीं, मैं ऐसा नहीं कर
सकती। अनीश मेरा पति है... वह जो चाहेगा... मैं करूंगी। निशा अपने अंदर और
बाहर की स्त्राी की इस टकराहट से हार गयी थी।
अनीश खुश था। निशा ने उसके सामने आखिर हथियार डाल ही दिए।
स्त्राी-पुरुष के खिलापफ कहाँ जा सकती है? वह अपनी जीत पर
मुस्कराया। पिफर वही और वैसी ही पार्टी। पर निशा अब पहले-सी न थी। वह बेतहाशा
मुस्करा रही थी। बतिया रही थी, पर ज्यों ही उसका रात्रिा का पार्टनर सामने
आया, वह
द्घबरा गई। उसने अनीश की ओर देखा, पर वह अपनी पार्टनर के कमर में हाथ डाले
अपने कमरे में जा चुका था। निशा को भी अपने पार्टनर के साथ जाना पड़ा। निशा
का दिमाग शून्य था। उसकी आँखें जैसे कुछ नहीं देख रही थीं। ऐसा लग रहा था वह
सपना देख रही हो या पिफर नींद में चल रही हो। पहली बार शराब की हल्की चुस्की
ली थी, जिसका
नशा चढ़ रहा था- 'क्या
हो रहा है उसे' निशा
ने सोचना चाहा, पर
दिमाग ने कुछ भी
सोचने से इनकार कर दिया। कमरे में नाम मात्रा की रोशनी थी।
पूरा वातावरण नशीला था। निशा ने महसूस किया-कोई उसे प्यार से छू रहा है, पर
यह क्या, यह
छुअन तो उसकी आत्मा को छू रही है। कोई उसे प्यार कर रहा है-यह कैसा प्यार है
जो उसके रोम-रोम को जगा रहा है, एक अलौकिक सुख! -कौन है यह शख्स! वह आँखें
खोलकर उसका चेहरा देखना चाहती है... पर कुछ नहीं दिखता। कैसी जगह है जहाँ
कुछ दिखता नहीं सिपर्फ महसूस होता है। यह उसका पति अनीश नहीं, उसका
प्रेमी भी नहीं, पिफर
भी उसे आनंद मिल रहा है। यह पाप है! क्या वह बलात्कार का आनंद ले रही है? पर
यह कैसा बलात्कार है, जिसमें
उसकी देह स्वयं प्रस्तुत है! क्या पराए पुरुष से उसे सुख लेना चाहिए!
पराया... नहीं... यह पराया पुरुष नहीं। सिपर्फ पुरुष है, शायद
आदि पुरुष...। आदि स्त्राी का अपना पहला पुरुष! अनीश के साथ तो उसे कभी ऐसा
नहीं लगा। उसका प्यार, उसका
शरीर, उसकी
छुअन, उसकी
गंध तो कभी इस तरह आत्मा तक नहीं पहुंच सकी... पिफर यह कैसे...! सिपर्फ रात
भर का साथी... कल सुबह के साथ इस सुख का साथ भी टूट जाएगा। काश, इस
रात की सुबह नहीं होती... काश यह साथी उसकी हर रात का साथी होता... काश...
काश...। निशा के भीतर की स्त्राी-जाने कब की सोई स्त्राी-अनजान स्त्राी-कामिनी...
रमणी प्रार्थना करती रही,
पर सुबह हो गई। उद्द्घोषणा होते ही सभी जोड़े हॉल में एकत्रा
हो गये। अपने-अपने जीवन-साथी के साथ। रात के साथी को मानो न पहचानते हुए। सब
खुश थे संतुष्ट थे। सब बाहर निकले। निशा अनीश से आँखें नहीं मिला पा रही थी, पर
अनीश बिल्कुल नार्मल था। ज्यों ही वे अपनी कार की ओर बढ़े। एक जानी-पहचानी
सुगंध निशा के करीब आई। किसी ने निशा का हाथ थामा और उसे चूमते हुए कहा-
'थैंक्यू, इस
रात को मैं जिंदगी भर नहीं भूल पाऊंगा। न उस उष्मा-उस सुख को, जो
आपसे पहली बार मिला।'
पिफर वह झटके से अपनी गाड़ी की ओर बढ़ गया, जिसमें
उसकी पफैशनेबुल पत्नी बैठी हुई थी। निशा ने द्घबराकर अनीश की ओर देखा-जिसका
चेहरा जाने क्यों लाल हो रहा था। रास्ते भर अनीश अनमना रहा। क्या इसलिए कि
उस अजनबी ने निशा को चूमा था। नहीं, यह तो हाई सोसायटी के लिए आम बात थी। पर कोई
बात अनीश को चुभ रही थी। ज्यों ही निशा अपने कमरे में पहुंची, अनीश
ने पीछे से आकर कमरा बंद कर दिया। निशा ने हैरान होकर उसकी तरपफ देखा। अनीश
गुस्से में था-
'क्या बात है'
निशा ने पूछा।
'तुमने उसे किस तरह प्यार किया कि वह कह रहा था कि तुम्हें भूल
नहीं पाएगा। वैसे तो बड़ी सती-सावित्राी बनती थी, पर
नया मर्द मिनते ही छिनालपन दिखा गई'-अनीश चिल्लाया।
-क्या बक रहे हैं आप! मैंने कुछ नहीं किया। आपने जो चाहा वह
हुआ। निशा ने भी नाराजगी जताई। 'अच्छा, रंडियों की तरह बोलने भी लगी। यह चेहरे पर
चमक क्या बिना कुछ किए ही आ गई। चाल भी बदल गई साली की। मेरे साथ तो मुर्दे
की तरह पड़ी रहती है और उस साले को ऐसे खुश किया कि वह भूल नहीं पाएगा।' मारे
गुस्से व जलन के अनीश कांपने लगा था।
-'बंद करिए यह सब!' निशा चिल्लाई।
'रंडी चिल्लाती है-'कहते हुए अनीश ने निशा के दायें गाल पर जोर
से थप्पड़ मारा। निशा लड़खड़ा गई।
अनीश ने पिफर थप्पड़ चलाया ही था कि निशा ने उसका हाथ पकड़
लिया और चिल्लाकर बोली-'खबरदार, मिस्टर
अनीश, अब
मेरे पास कोई दूसरा गाल नहीं है।' अब अनीश हतप्रभ था। पर उसका पुरुष हार मानने
को तैयार नहीं था-'मैं
तुम्हें छोड़ दूँगा... मैं ऐसी स्त्राी के साथ नहीं रह सकता जो दूसरे मर्दों
को सुख देती पिफरती हो।'
'ठीक है... जैसा आप उचित समझें। मैं आपका द्घर छोड़ने को तैयार
हूं, पर
जाने से पहले मैं कुछ सच आपको बता देना चाहती हूं। मैंने उस पराए पुरुष को
सुख दिया हो या न दिया हो,
पर उसने मुझे वह सुख दिया है जो आप कभी नहीं दे पाए। दे भी
कैसे पाते। गलत आदतों की वजह से आप अपना पौरुष खो जो बैठे हैं। जाइए-जाकर
अपना इलाज कराइए। जिस देह को आप चिल्लाते रहे, उसे संतुष्ट करने की
काबिलियत आपमें ही नहीं थी वह तो मेरे संस्कार थे कि आपकी कमजोरी को सहलाती
रही कि आपका अहं आहत न हो। स्त्राी की इसी शालीनता का लाभ आप पुरुष उठाते
रहे हैं, वरना
स्त्रिायां सच बोलने लगें तो आप जैसे मर्द मुँह छिपाते पिफरें। जाते-जाते
मैं आपको धन्यवाद भी देना चाहती हूँ कि आपके ही कारण मैंने स्त्राी होने का
मतलब जाना, भले
ही एक रात के लिए। आप जिद न करते तो शायद मैं जीवन भर उस सुख से वंचित रहती।
अब मैं आपके साथ एक पल भी नहीं रह सकती।'
अनीश भौचक्का सा निशा को सुन रहा था। वह तो सपने में भी नहीं
सोच सकता था कि गऊ सी दिखने वाली निशा के भीतर इतनी आग होगी। उधर निशा सोच
रही थी कि क्या सच्चे पुरुष का बारह द्घंटे का साथ भी स्त्राी को इतने
आत्मविश्वास से भर देता है? कहाँ छिपी थी उसके भीतर की यह शक्ति? काश, वह
पति के पहले थप्पड़ के बाद ही जाग जाती। खैर, पहला न सही दूसरा
थप्पड़ ही सही। अब उसे इस बात की बिल्कुल चिंता नहीं थी कि वह कहाँ जाएगी, क्या
करेगी! पढ़ी-लिखी है, स्वस्थ
है। विषय संस्कृत है तो क्या, आखिर वह भारत में रहती है। क्या संस्कृत का
ज्ञान अल्प है? या
पिफर कोई विद्यालय इसको छोड़कर चल सकता है। निशा को अपनी पुरानी हीनभावना पर
कोफ्रत हुई। पर इसमें उसका भी क्या दोष था? दोष तो यहां की
व्यवस्था में था- जिसकी गड़बड़ी के कारण लोग पाश्चात्य सभ्यता की ओर भाग रहे
हैं। अपनी ही भाषा, अपनी
ही चीजों का सम्मान न करने वाले देश का सम्मान दूसरा देश कैसे कर सकता है? निशा
ने मन-ही-मन प्रण किया कि वह आज से अपनी भाषा का सम्मान करेगी। उसके विकास
के लिए अपना जीवन लगा देगी।
शाम को जब निशा अपने सूटकेस के साथ कमरे से निकली तो दरवाजे पर
अनीश खड़ा था।
-'तुम ऐसे नहीं जा सकती, तुम मेरी पत्नी हो, हमारा
अभी तलाक नहीं हुआ है।'
निशा हंस पड़ी-'पति और आप! पति का अर्थ भी जानते हैं। पति
का अर्थ होता है रक्षक। जानते हैं, यह शब्द कब अस्तित्व में आया? कैसे
जान सकते हैं, चलिए
मैं ही बताये देती हूँ, जब
मनुष्य का जीवन शिकार पर निर्भर था, तब स्त्राी-पुरुष दोनों शिकार करने जाते थे।
विवाह की प्रथा तब न थी। लोग समूहों में रहा करते थे। स्त्राी प्रकृति से ही
पुरुष की देह से दुर्बल है। कभी-कभी किसी भयानक शिकार का पीछा करते समय वह
थकने लगती थी। उस समय जो पुरुष उसे कंधे पर लादकर मीलों दौड़ता हुआ शिकार से
उसकी रक्षा करता था, वही
उसका पति हो जाता था। हालांकि तब वे इस शब्द के अर्थ से अवगत नहीं थे, न
ही इस शब्द का उच्चारण करते थे, पर भाव तब भी वही था। आपने तो मुझे पराये
पुरुष के पास भेज दिया था। कल पिफर किसी के पास भेजेंगे। वेश्या बना देंगे
मुझे। ऐसे व्यक्ति के साथ मैं नहीं रह सकती।' निशा आगे बढ़ी।
अनीश पिफर गिड़गिड़ाने लगा-'नहीं निशा, मुझे
छोड़कर मत जाओ। मैं पिता जी से क्या कहूँगा? मुझे मापफ कर दो।'
'नहीं अनीश बाबू... अब और नहीं। जानती हूँ आप अभी भी मुझसे
प्रेम नहीं करते। पिता के डर से मुझे द्घर में रखना चाहते हैं। पिफर कल रात
से ही आप मेरे लिए एक पराये पुरुष हो गये हैं। अब मेरी यह देह आपके स्पर्श
को सह नहीं पाएगी।' अनीश
पराजित सा रास्ते से हट गया। निशा उस हवेली से बाहर हो गयी जिसमें प्रवेश कर
उसने खुद को भाग्यवान स्त्राी समझा था।
कई वर्ष बीत गये। इस समय निशा संस्कृत महाविद्यालय में
शिक्षिका है और एक महिला हॉस्टल में रहती है। अनीश और उसके पिता ने उसे वापस
ले जाने की कई कोशिश की,
पर उसने इनकार कर दिया। उसके अपने पिता ने उसकी दूसरी शादी
करने की सलाह दी, पर
निशा मौन रही। वह किसी को अपने मन की उथल-पुथल नहीं दिखाना चाहती थी। उसे अब
किसी से कोई शिकायत नहीं थी। जब भी वह एकांत में होती उसके आस-पास एक सुगंध
बिखर जाती। उसके शरीर पर एक नेह भरा स्पर्श पिफसलने लगता। कोई उसके कान में
पफुसुपफसाता-मैं तुम्हें नहीं भूल सकता। कभी-कभी वह सोचती कि वह व्यक्ति
कैसे उसके इतने करीब हो गया, जिसे बस एक रात देह के स्तर पर जाना था। हो
सकता है कि वह अनीश से भी बुरा हो। आखिर वह भी उस रात अपनी पत्नी के साथ ही
आया था। उसने भी अपनी पत्नी को दूसरे पुरुष के साथ जाने को विवश किया
होगा। छिः! ये सारे पुरुष एक से क्यों होते हैं? पर
पिफर उसे वह सुख याद आता। वह स्पर्श याद आता, जिसने उसे सारे
बंधनों से आजाद कर दिया था। इतना आत्मीय स्पर्श, जो
देह से होकर मन-आत्मा तक पहुंच गया, क्या किसी कामुक अक्षयाश व्यक्ति का हो सकता
है। नहीं, उसमें
जरूर कुछ ऐसा था, जिससे
शक्ति पाकर वह अनीश से मुक्त हो सकी और अब तक एकाकी थी। क्या वह उसका वही
प्रेमी था, जिसकी
कल्पना वह बचपन से करती आई थी? या पिफर वे दोनों एक-दूसरे के लिए बने हैं? क्या
कभी वह पिफर मिलेगा? क्या
सामने आने पर दोनों एक-दूसरे को पहचान लेंगे? निशा का मन उदास हो
जाता और वह मन को बहलाने के लिए कहीं द्घूमने चली जाती।
एक दिन वह सायंकाल एक पार्क में बैठी अपनी सहेली का इंतजार कर
रही थी कि अचानक उसे आभास हुआ कि कोई देर से उसकी ओर देख रहा है। निशा को
अपनी ओर देखता पाकर वह उसकी तरपफ बढ़ा। निशा को एक चिरपरिचित खुशबू अपनी
तरपफ आती दिखी। यह गंध...बिल्कुल वही गंध, जो उस रात उसकी देह
में थी, ऐसी
भीनी कि वह हजारों गंधों के बीच भी उसे पहचान सकती थी। वह एक सुदर्शन पुरुष
था। ऊंचा-भरा-पूरा। 'वही
है, वही
बड़ी-बड़ी बोलती आँखों वाला, जो उस सुबह तेजी से उसकी गाड़ी के पास आकर
मन की बात कह गया था।' निशा
सोचने लगी-'क्या
करूँ, पहचानूँ
कि न पहचानने का नाटक करूँ।' पर ये क्या, उसने तो पास आकर बड़े
ही अधिकार भाव से उसका हाथ पकड़ चूम लिया था। -'मैं
पवन! तुम कहाँ चली गयी थी... पिफर नहीं दिखी कभी। कितना भटका हूँ तुम्हारे
लिए। एक पल भी चैन नहीं मिला।' तो क्या इसीलिए निशा भी बेचैन थी। पर वह
ताने के साथ बोली-
'क्यों, हर
सप्ताहान्त नयी स्त्राी नहीं मिली आपको?'-
-ताना मत दो,
मैं वहाँ पहली बार गया था। गया नहीं ले जाया गया था। अपनी
पत्नी के दबाव में-जो एक कर्नल की बेटी थी।'
'थी-मायने' निशा
बोली
-'अब वह मेरी पत्नी नहीं है। दूसरे ही दिन मैंने उसका साथ छोड़
दिया था। मैं एक साधारण परिवार का लड़का हूँ। पुराने संस्कारों वाला, पर
वह नये जमाने की थी। पुरुष बदलने का शौक था उसे... उस दिन उसके दबाव में चला
गया, पर
तुमसे मिलने के बाद लगा कि तुम मेरे लिए बनी हो। मैं अपने आप को और ज्यादा
छल नहीं सकता था, इसलिए
सबको पीछे छोड़ आगे बढ़ गया।'
'और अब...' निशा
ने पूछा।
अकेले जी रहा हूँ... इंजीनियर हूँ। काम भर का कमा लेता हूँ।' वह
हँसा तो निशा को लगा कि ढेर सारे पक्षी चहचहा उठे हैं।
-'और मैं... निशा ने अपने बारे में बताने के लिए मुँह खोला ही था
कि उसने उसके होठों पर अपनी एक अंगुली रख दी और धीरे-धीरे उस पर मारते हुए
कहा-'सब
जानता हूँ... बस आपका पता नहीं पा रहा था।'
इतने वर्षों में निशा ने अपनी देह को साध लिया था, पर
इस समय उसकी सांसें बेकाबू हो रहीं थीं। पवन की अंगुली का स्पर्श जैसे सर्प
विष की तरह उसकी देह में उतरने लगा था। उसकी देह ऐंठ रही थी। रोम-रोम में
विष पफैल रहा था। निशा की इच्छा हो रही थी कि पवन अपने होंठों से सारे विष
को सोख ले... वह... वह, उधर
पवन की हालत भी उससे बेहतर न थी।
-'तो चलें...।'
पवन ने उसका हाथ थाम लिया।
'कहाँ...' निशा
चौंक पड़ी।
'अपने द्घर... और कहाँ...' पवन बोला। निशा बिना कोई प्रश्न किये उसके
साथ इस तरह चल पड़ी जैसे हमेशा से साथ चलती रही हो। शायद इस साथ के लिए किसी
मुहर... किसी साक्ष्य की जरूरत नहीं थीं।
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