Wednesday 20 July 2011

यह शहर है

यह रोने की जगह नहीं है
यह शहर है
कंक्रीट  और पत्थरों से सजा
आदम के ये मुर्दे
अनजानी मंजिल की तरफ माथा उठाए उदग्र
नहीं जानते
सुनते नहीं किसी का दुःख
दुःख कातर ये शानदार
ये चमचमाते मुर्दे
छूओ इन्हें
पूछो इनका हाल
बढाकर आदमियत का हाथ
पिघल कर टपक पडेगी इनकी चमक
पल में
पाओगे इनके ही आँसुओं के दलदल में
लतपथ हाँफते चेहरों को
देखो गौर से इन्हें
अपने ही दुखों से बेखबर मुर्दों का शहर
रोने की जगह नहीं है यह
यह शहर इंसानों का है कोई जंगल नहीं
रोना आदमी का सिर्फ जंगल सुनता है
रोता है
दूने वेग से फड़फड़ा उठते हैं पक्षी
तड़प-तड़प जाते हैं
वृक्ष वनलताएँ
शामिल होते हैं सब तुम्हारे रोने में
रोना है तो जाओ जंगल
यह शहर है|



No comments:

Post a Comment