Thursday 14 July 2011

भाषा की तलाश में

रिश्तों के जंगल में
अपनी कुदरती भाषा के साथ
अपनी-सी भाषा की तलाश में
भटकती रही मैं
तुम मिले
तुम जो मेरे जैसे न थे
मैं जो तुम्हारे जैसी न थी
कोई समानता नही थी
हममें
सिवा भाषा के
जो कुदरत ने बख्शी थी
तुम्हें  भी
हमें  भी
जीते हुए बस तुममें
महसूस करने लगी अचानक
कि दुनिया के सामने
बदल जाती है तुम्हारी भाषा
तुम खूब जानते हो
बाहरी रिश्तों को निभाना
उस वक्त मैं
बिल्कुल अकेली पड़ जाती थी
तुममें ही
ढूंढते हुए
तुमको|

1 comment:

  1. maine aj apakee 4 kavitai padhee achhee lagi, samy milane per blog kee puri kavita padunga

    ReplyDelete