Wednesday 14 September 2011

जबकि तुम

जबकि तुम 
चले गए हो कब के बिखेर कर 
जिंदगी के कैनवस पर ताजा रंग 
घर में तुम्हारी गंध 
फैली है अभी भी 
बन ही जाती है चाय की दो प्यालियाँ 
तुम्हें टटोलने लगते हैं हाथ 
नींद में 
अभी भी 
जबकि चले गए हो तुम 
कब के
सपनों से डरी मैं तलाशती हूँ 
तुम्हारा वक्ष 
तपते माथे पर 
इंतजार रहता है 
तुम्हारे स्पर्श का जबकि तुम 
चले गए हो 
कब के 
अब जब कि तुम चले गए हो 
नहीं टपकती तुम्हारी बातें 
पके फल की तरह 
नहीं आते खाने पंछी छत पर 
चावल की खुद्दी नहीं बिखेरी जाती 
झुक गए हैं फूलों के चेहरे 
झर गया है पत्तियों से संगीत 
नहीं उतरती 
अब कोई साँवली साँझ 
आंगन की मुंडेर पर | 

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