कल तक तो
खूब फब रहे थे तुम
हरे कोट
और सफेद टोपी में
तुम्हारा फूलों सा
मुख
जब चूमती थी हवा
खिलखिला उठते थे तुम
अपने आस-पास रहने
वाली
आम की सुनहरी
मंजरियों की ओर
देखकर
जिनकी खुशबू से
मीठा-मीठा रहता था
तुम्हारा मन ..
औचक क्या हुआ
कि तुम सहज न रहे
सहजन
होते गए कठोर-नुकीले
और मजबूत
अपने इर्द-गिर्द बना
लिया
तुमने एक
सुरक्षा-कवच
कि तुम्हें पाने के
लिए
चढ़ना पड़ता है
तुम्हारे सीने पर
करना पड़ता है
इस्तेमाल
तेज हथियार का
तुम अंत तक नहीं
छोड़ते
अपना कसैलापन
कोई भी मसाला
नहीं बदल पात
तुम्हें सुस्वाद में ..सहजन,
तुम सहज क्यों ना
रहे
जबकि तुम्हारी
बाल्य-सखियाँ
वे मंजरियाँ करती
रही यात्रा
खटास से मिठास की
तुम्हें किससे
शिकायत है मित्र,
क्या प्रकृति से
जिसने वंचित रखा
तुम्हें
मादक रूप और सुगंध
से
या फिर दुनिया से
जिसकी उपेक्षा ने भर
दी
कड़वाहट तुममें
कम से कम
मेरे आगे तो खोलो मन
सहजन ..|
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