इस चैत भी मेरे गाँव
में
जामुन फूला होगा
अब तक तो उसके
गुच्छों में
लाल और काला फल ही
दीखता होगा
बचपन में नन्हें धानी
फलों को
उसके हम रोज हसरत से
तकते थे
पर वे पाजी जल्दी
कहाँ पकते थे ?
याद है गुच्छों के
फल
ज्यों ही गुलाबी होने
लगते थे
हम बच्चे मिट्टी के
ढेले कांकर-पाथर,
डंडे-बाती संभाल
लेते थे
बुजुर्ग कहते -“जामुन
का पेड़ होता है कमजोर
मत चढ़ना उसपर |”
इसलिए उस्ताद भी
चढ़ने से डरते
और ढेले-पत्थर से
कच्चे फल भी आ गिरते
गुलाबी से लाल फिर
काले
जब होने लगते थे
जामुन
हम पक्षी,बंदर तो
कभी आँधी का रस्ता तकते थे
जिस दिन जामुन का
मालिक
तुड़वाता था जामुन
डलिया लिए हम दौड़ पड़ते थे
तब कहाँ पैसों से
जामुन बिकते थे ?
किसी के पेड़ पर पके
फल
पूरे गाँव के लोग
खाते थे
पक्षी भी खूब अघाते
थे
कई तरह के होते थे
जामुन
छोटे,मँझोले या फिर
थोड़े लम्बे
रसीले होने के बावजूद
कुछ कसैले
पर जब माँ धोकर
उन्हें लगाकर नमक
छोड़ देती थी कुछ
क्षण
तब वे हो जाते थे
मीठे और गुलगुले |
शहरों में कम ही दीखते
हैं जामुन के फल
कभी-कभार दीखते भी हैं
तो बड़े ही महँगे
बिकते हैं
आखिर कहाँ गए जामुन
के सारे पेड़?
पता लगा विदेशी दवा
कम्पनियों ने
खरीद लिए हैं
जामुनों के सारे बाग
जामुन के फल ही नहीं
छाल,लकड़ी
गुठली सभी आज बिकाऊं
हैं
सोचती हूँ क्या बचे
होंगे गाँव में जामुन के पेड़
पहले तो होते थे हर
दूसरे घर के पिछवाड़े वे
कि वहाँ भी पहुँच गए
होंगे उनके व्यापारी |
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