धूप में तपकर काम से खटकर
ज्यों मैं घर पर आती हूँ
चीं-चीं करतीं मेरी सखियाँ
मेरे पास आ जाती हैं
कोई चूमती हाथों को
कोई कंधे सहलाती हैं
दाना-पानी कर लो जल्दी
वे मुझको समझाती हैं
कंचे जैसी इनकी आँखें
जुड़ी लौंग-सी चोंच
जैसे चाहे मुड़ जाए
ऐसी देह में लोच
इनकी छुअन से
फर-फर करके
मेरी थकान उड़ जाए
सुबह-सवेरे मुझे उठातीं
रात को मगर जल्दी सो जातीं
दिन-भर चाहे रहें कहीं पर
शाम-ढले घर आ जातीं
मैं अब घर में नहीं अकेली
साथ हैं मेरे कई सहेली !
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