जीवन संबंधी कविताएँ
१-अँगूठा
अंगूठा लगवाकर
वे छीन रहे हैं
उनका सब कुछ
और दिखा दे रहे हैं
अंगूठा उन्हें
न्याय भी बस अंगूठा
चूस रहा है |
वे छीन रहे हैं
उनका सब कुछ
और दिखा दे रहे हैं
अंगूठा उन्हें
न्याय भी बस अंगूठा
चूस रहा है |
२-भात
उसके कटोरे में
ये झक-झक
सफेद भात नहीं
चाँदनी के फूल हैं
मोती हैं सीपी के
चमचमाते तारे हैं
नायब हीरे हैं
वह जान दे देगा
नहीं देगा इन्हें
यह उसका सपना है
उम्मीद है
सबसे बड़ी सौगात है
और आप कहते हैं
कि यह सिर्फ बासी भात है!
ये झक-झक
सफेद भात नहीं
चाँदनी के फूल हैं
मोती हैं सीपी के
चमचमाते तारे हैं
नायब हीरे हैं
वह जान दे देगा
नहीं देगा इन्हें
यह उसका सपना है
उम्मीद है
सबसे बड़ी सौगात है
और आप कहते हैं
कि यह सिर्फ बासी भात है!
पिता नहीं रहे
अब कौन कहेगा
मेरे देर रात बाहर रहने पर
"आवारा हो गया है '
फिर भी जोहता रहेगा बाट
मेरे लौटने का |
अब कौन ओढ़े रहेगा
रोज-ब-रोज कमजोर हो रहे कंधों पर भी
घर का सुख-दुःख
रिश्तेदारी-नातेदारी
मुझे चिंता में नहीं डालेगा
अब किसकी नुरानी आँखों में
झिलामिलायेंगे सपने
मेरे ब्याह के
कौन होगा अब माँ का सुहाग और सुकून
बहनों की उम्मीद और खुशी
अब कौन जिन्दा रखेगा मेरा बचपन
अपनी नेह-भरी पुकार में ?
मेरे देर रात बाहर रहने पर
"आवारा हो गया है '
फिर भी जोहता रहेगा बाट
मेरे लौटने का |
अब कौन ओढ़े रहेगा
रोज-ब-रोज कमजोर हो रहे कंधों पर भी
घर का सुख-दुःख
रिश्तेदारी-नातेदारी
मुझे चिंता में नहीं डालेगा
अब किसकी नुरानी आँखों में
झिलामिलायेंगे सपने
मेरे ब्याह के
कौन होगा अब माँ का सुहाग और सुकून
बहनों की उम्मीद और खुशी
अब कौन जिन्दा रखेगा मेरा बचपन
अपनी नेह-भरी पुकार में ?
कला के पारखी
उनके ड्राइंगरूम
में सजे हैं
पुष्ट,अधखुले अंगों वालीं
खुले में नहातीं
करतब दिखातीं
बच्चे को बिना आँचल से ढंके
दूध पिलाती
गरीब-बदहाल
आदिवासी युवतियों के
बेशकीमती तैलचित्र
वे कला के सच्चे पारखी हैं
पुष्ट,अधखुले अंगों वालीं
खुले में नहातीं
करतब दिखातीं
बच्चे को बिना आँचल से ढंके
दूध पिलाती
गरीब-बदहाल
आदिवासी युवतियों के
बेशकीमती तैलचित्र
वे कला के सच्चे पारखी हैं
बदनाम
जब
भी
टूटता
है शीशा
या
टूटती है
जल
की शांति
बदनाम
होते हैं
पत्थर
..
क्योंकि
देखते
नहीं कहीं
फेंकने
वाले हाथ |
भूख
भूखा
आदमी
धर्म
स्थानों पर
चुपचाप
सुनता है
प्रवचन
..
धर्म
–नैतिकता
स्वर्ग
-जन्नत की
बड़ी
-बड़ी बातें
निकल
जाती हैं जो
उसके
सिर के ऊपर से
उसकी
आँखे टिकी होती हैं
“प्रसाद” की भरी थाली पर|
कैसा
लगता है
किसी
देवस्थल में
देवता
के
चरणों
को छूकर
अन्न
..धन ..पद
कीर्ति
या अपना कोई और
इच्छित
माँगकर
जब
निकलते हो बाहर
तो
एकाएक तुम्हारे
पैरों
की अँगुलियों पर
खुरदुरे
..गंदे
नन्हें
बच्चे का
कोमल
चेहरा
टकराता
है
पैसे
या रोटी के लिए
फरियाद
करते
तो
कैसा लगता है तुम्हें ?
ओछा
काम
वे
समझा रहे हैं
रोटी
के लिए रोना
ओछा
काम है
जिन्होंने
जाना ही नहीं
भूख
किस चिड़िया का नाम है!
सिर्फ
कागज पर नहीं
लिखी
जाती है कविता
किसान
लिखता है
जमीन
पर
शिल्पकार
पत्थर ..मिट्टी
बढ़ई
लकड़ी पर
स्त्री
घर के कोने-कोने में
रचती
है कविता
माँ
की हर लोरी
बच्चे
की किलकारी
तुतली
बतकही
घरनी
की चुपकही
प्रेमियों
की कही –अनकही में
होती
है कविता
पौधे
के पत्ते-पत्ते
फूल
की हर पंखुरी
तितली
के रंगीन परों पर
इठलाती
है कविता
गौर
से सुनो तो
कोयल
की कूक
पपीहे
की हूक
पक्षी
की चहचहाहट
घास
की सुगबुगाहट
भौरों
की गुनगुनाहट में भी
लजाती
...मुस्कुराती
खिलखिलाती
है कविता
सिर्फ
कागज पर
नहीं
लिखी जाती है कविता|
नयी
दुनिया
हर
आदमी के पास
होती
है
थोड़ी-सी
ताकत
थोड़ी-सी
उम्मीद
थोड़ी-सी
मुहब्बत
आओ
मिला
दें हम
अपनी-अपनी
ताकत..उम्मीद
और मुहब्बत
जिससे
बन
जाए
शायद
कोई
नई
दुनिया|
फिर
क्यों
न
पहले ही धूप थी
न
अब
अँधेरा
हुआ है
फिर
क्यों
लगता
है
कुछ
तो
नया
हुआ है!
बसंत
पत्ते
झर रहे हैं
पीले
पड़कर
टहनियाँ
सूख रही हैं
हो
रहा है ठूंठ
पेड़
धीरे-धीरे
फिर
भी
सपनों
में बसंत है|
कभी-कभी
साँपों
को
आस्तीन
में रखना पड़ता है
कभी-कभी
पनाह
देना पड़ता है
गिरगिट
को
घर
की चाभियां
चूहों
के हवाले करनी पड़ती है
घर
की सलामती के लिए
कभी-कभी|
जाने
क्या
लहरें
बार
–बार
टकराती
हैं
तट
से
जाने
क्या खोजती हैं
बार-बार
और
हर बार
लौट
जाती हैं|
पवन
थर-थर
कांपता है
फूलों
का पेड़
पवन
को आते देख
कमजोर
बूढ़े बाप की तरह डांटता है
कलियाँ
को
क्यों
नहीं रहतीं छुपकर
पत्तियों
में
बेपरवाह
कलियाँ
खिलखिलाती
हैं
छिपाती
हैं मुँह
पत्तियों
की ओट में
करती
हैं इंतजार
उचक
कर देखती हैं
अभी
तक आया नहीं क्यों
पवन
|
यह
शहर है
यह
रोने की जगह नहीं है
यह
शहर है
कंक्रीट
और पत्थरों से सजा
आदम
के ये मुर्दे
अनजानी
मंजिल की तरफ माथा उठाए उदग्र
नहीं
जानते
सुनते
नहीं किसी का दुःख
दुःख
कातर ये शानदार
ये
चमचमाते मुर्दे
छूओ
इन्हें
पूछो
इनका हाल
बढाकर
आदमियत का हाथ
पिघल
कर टपक पडेगी इनकी चमक
पल
में
पाओगे
इनके ही आँसुओं के दलदल में
लतपथ
हाँफते चेहरों को
देखो
गौर से इन्हें
अपने
ही दुखों से बेखबर मुर्दों का शहर
रोने
की जगह नहीं है यह
यह
शहर इंसानों का है कोई जंगल नहीं
रोना
आदमी का सिर्फ जंगल सुनता है
रोता
है
दूने
वेग से फड़फड़ा उठते हैं पक्षी
तड़प-तड़प
जाते हैं
वृक्ष
वनलताएँ
शामिल
होते हैं सब तुम्हारे रोने में
रोना
है तो जाओ जंगल
यह
शहर है|
मैं खुश हूँ
एक ऐसे समय में
जब मुसलमान शब्द
आतंक का पर्याय हो गया है
मैं खुश हूँ
कि मेरे शहर में रहते हैं
बादशाह हुसेन रिजवी
जो इंसान है उसी तरह
जिस तरह होता है
कोई भी बेहतर इन्सान
पक्षी उनकी छत से उड़कर
बैठते हैं हिंदुओं की छत पर
और उनके पंजों में बारूद नहीं होता
उनके घर को छूकर
नहीं होती जहरीली हवा
उसी तरह खिलते हैं
उनके गमले में फूल
जैसे किसी के भी
उनका हृदय हातिमताई है
जिसमें हर दुखी के लिए
सांत्वना के शब्द
सच्चे आँसू
और बहुत सारा वक्त है
हालाँकि इतने बड़े लेखक के पास नहीं होना चाहिए
इन चीजों के लिए वक्त
आतंक के शोर के बावजूद
कम नहीं हुए हैं
उनके हिन्दू मित्र
आते हैं सेवइयां खाने
ढेर सारा बतियाने
आज भी लिख रहे हैं वे
मानवीय पक्ष की
जनवादी कहानियाँ
मैं खुश हूँ
कि वे मेरे शहर में रहते हैं |
जब मुसलमान शब्द
आतंक का पर्याय हो गया है
मैं खुश हूँ
कि मेरे शहर में रहते हैं
बादशाह हुसेन रिजवी
जो इंसान है उसी तरह
जिस तरह होता है
कोई भी बेहतर इन्सान
पक्षी उनकी छत से उड़कर
बैठते हैं हिंदुओं की छत पर
और उनके पंजों में बारूद नहीं होता
उनके घर को छूकर
नहीं होती जहरीली हवा
उसी तरह खिलते हैं
उनके गमले में फूल
जैसे किसी के भी
उनका हृदय हातिमताई है
जिसमें हर दुखी के लिए
सांत्वना के शब्द
सच्चे आँसू
और बहुत सारा वक्त है
हालाँकि इतने बड़े लेखक के पास नहीं होना चाहिए
इन चीजों के लिए वक्त
आतंक के शोर के बावजूद
कम नहीं हुए हैं
उनके हिन्दू मित्र
आते हैं सेवइयां खाने
ढेर सारा बतियाने
आज भी लिख रहे हैं वे
मानवीय पक्ष की
जनवादी कहानियाँ
मैं खुश हूँ
कि वे मेरे शहर में रहते हैं |
जीना
इस
कड़कती ठंड में
थोड़े-से पुआल और
पुराने कम्बल के सहारे
बैलगाड़ी के नीचे
चैन से सोते हैं
साँझ-ढले ईंट के चूल्हे पर
काली पड़ गयी बटुली में
भात पकाते हैं
सेंकते हैं गोईंठे पर
गोल,सुडौल,चित्तीदार लिट्टियाँ
तो कभी मोटी-मोटी,लाल-लाल
फूली-फूली रोटियाँ बनाते हैं
बटुली में खदबदाती उनकी
आलू-गोभी,बैंगन-मटर की
सब्जी को देखकर
मुँह में भर आता है पानी
कई जन मिलकर पकाते-खाते हैं
धुल-मिट्टी,कीड़े-मकोड़े से निश्चिंत
खुलकर हँसते-बतियाते हैं
दिन-भर बेचते हैं पशु-आहार
घास,भूसा और छांटी
रात को देर तक बेलौस गीत गाते हैं
किस मंत्र से ये गाड़ीवान
कठिन जिंदगी को भी
'यूँ' जी पाते हैं ?
थोड़े-से पुआल और
पुराने कम्बल के सहारे
बैलगाड़ी के नीचे
चैन से सोते हैं
साँझ-ढले ईंट के चूल्हे पर
काली पड़ गयी बटुली में
भात पकाते हैं
सेंकते हैं गोईंठे पर
गोल,सुडौल,चित्तीदार लिट्टियाँ
तो कभी मोटी-मोटी,लाल-लाल
फूली-फूली रोटियाँ बनाते हैं
बटुली में खदबदाती उनकी
आलू-गोभी,बैंगन-मटर की
सब्जी को देखकर
मुँह में भर आता है पानी
कई जन मिलकर पकाते-खाते हैं
धुल-मिट्टी,कीड़े-मकोड़े से निश्चिंत
खुलकर हँसते-बतियाते हैं
दिन-भर बेचते हैं पशु-आहार
घास,भूसा और छांटी
रात को देर तक बेलौस गीत गाते हैं
किस मंत्र से ये गाड़ीवान
कठिन जिंदगी को भी
'यूँ' जी पाते हैं ?
क्या सभी गाँव
क्या
सभी गाँव होते हैं
मेरे
गाँव जैसे
जहाँ
बच्चे
मोजरों
के बीच छिपे
नन्हें
हरे टिकोरों को
देखकर
पहली बार
उछल
पड़ते हैं खुशी से
रोज
उन्हें निहारते हैं
और
उनकी धीमी बढ़त पर
झुंझलाते
हैं
टमाटर
के पौधों पर अचानक
निकल
आते हैं
रसीले
टमाटर
लतरों
के सहारे कहीं भी लटक आते हैं
नेनुआ
सेम सरपुतिया लौकी
कनिया
की तरह
घूँघट
में शर्माती है मकई
बसंत
में
जवान
पत्तियों को इठलाते देख
कड़कड़ाती
हैं बूढ़ी पत्तियाँ
और
अधेड़ पत्तियाँ
मुस्कुराकर
छुपा लेती हैं उन्हें
आँचल-तले
भिण्डी
के फूलों के बीच
जादू
की तरह निकल आता है
एक
नुकीला फल
उल्टा
लटक आता है
बच्चा
भंटा
और
छप्परों पर बढ़ते फलते
मुटियाते
हैं
भटुए
और कुम्हड़े |
बेटे
मेरे ना रहने
पर
घर को कबाड़ की
तरह
फैलाकर वे
ढूँढ लेंगे
अपनी जरूरत की
कीमती चीजें
और ...बेच
देंगे कबाड़ी के हाथ
रद्दी के भाव
सारी पुस्तकें
और मेरी
पांडुलिपियाँ
जिन्हें
प्रकाशित भी
नहीं करवा पा
रही हूँ मैं
उनके भविष्य
की चिंता में |
अपनी हँसी
गंजे की टोपी
छीनकर
हँसा वह
अंधे की लाठी छीनकर
लंगड़े को मारकर टंगड़ी हँसा
भूखे की रोटी छीनकर
सीधे को ठगकर
औरत को गरियाकर
हँसता ही गया वह
मैंने गौर से देखा उसे
वह बेहद गरीब था
उसके पास अपनी
हँसी तक नहीं थी |
हँसा वह
अंधे की लाठी छीनकर
लंगड़े को मारकर टंगड़ी हँसा
भूखे की रोटी छीनकर
सीधे को ठगकर
औरत को गरियाकर
हँसता ही गया वह
मैंने गौर से देखा उसे
वह बेहद गरीब था
उसके पास अपनी
हँसी तक नहीं थी |
गिद्ध की नाराजगी
पर्यावरणविद चिंतित थे
कि जाने कहाँ चले गए
प्रकृति के सफाई-कर्मी गिद्ध
चारों तरफ लगा हुआ था
गंदगी का अम्बार
बढ़ गया था नगरपालिका का काम
हवा,जमीन सब अशुद्ध
आदमी भी बीमार रहने लगा था
सब परेशान -गिद्ध गए तो कहाँ गए ?
कहा किसी ने "कवि तो पहुँचता है
वहाँ भी,जहाँ नहीं पहुँच पाता
रवि"
कवि पता लगाकर आएं |
शहर का सूनसान देखा
गाँव का वीरान भी
उजाड़-सूखे पेड़ देखे
अनगिनत ठूँठ भी
लौटते हुए निराश
दिख गया अचानक
ठूँठ पर बैठा एक गिद्ध
की मिन्नत-अरे भाई गिद्ध,यहाँ क्या कर रहे हो ?
क्या हमसे रूंठे हुए हो ?
चिल्लाया गिद्ध-"चुप ही रहो कवि,बातें ना बनाओ
खबरदार,मेरे पास न
आओ !
ये भी कोई बात हुई –हम गंदगी पचाएं
फिर भी अछूत कहाएँ !
हमारे पूर्वज ने बचाने में सीता की लाज
अपनी जान गंवाईं
फिर भी अपनी गंदी निगाह को
गिद्ध-दृष्टि कहते
आदमी को लाज नहीं आई
मुहावरों,उपमाओं में भी हमें
अशुभ और बुरा बताया
कभी नहीं हमसे प्रेम
दिखाया
कब तक हम अपने सीने पर मूंग
दले
जाओ-जाओ आदमियों से तो
हम गिद्ध ही भले !
संवेदना की सीमेंट
घर की छत
सुकून नहीं दे रही
बाहर कोई छत ही नहीं
जीने के लिए चाहिए मगर
एक छत
संवेदना की सीमेंट से बनी|
सुकून नहीं दे रही
बाहर कोई छत ही नहीं
जीने के लिए चाहिए मगर
एक छत
संवेदना की सीमेंट से बनी|
मेरे गांव में आज भी
मेरे गांव में आज भी
डूबते सूरज की रौशनी
में
रंगीन होते वृक्षों
को देखकर
लौट आती हैं गायें
अपने बथानों की तरफ
|
बारिश में
तितलियों की तरह
नहाते हैं बच्चे |
पहली बार ससुराल से
लौटी
नाईन की मदमाती
बेटी-सी हवा
बांटती है छम-छम
करती
घर-घर में बायना |
बालाओं की आँखों में
कुलांचें भरते हैं
हिरन
बूढ़ी सधवाओं की
सुर्ख टिकुली से
शरमा जाता है चाँद
नववधुओं के चेहरे की
दीप्ति से
फीकी पड़ जाती है
बिजली
बाबा की लाठी की
फटकार से
मुँह-अँधेरे ही भाग खड़ा होता है आलस
और नाराज होकर घर से
निकली दादी
चूजों को दाना
खिलाती
मुर्गी
को देखकर
लौट आती है घर
खोइछे में
मूढ़ी और बताशे लेकर |
जनतंत्र
के खेल में
जनतंत्र
के इस खेल में
आखिर
मैं कहाँ खड़ा हूँ
पाँव-भर
की जमीन
आँख-भर
के आसमान
के
अरमानों ने
बदल
दिया है मुझे
एक
दर्शक में
तटस्थता
टूटती है मेरी
जब
कोई भारी शोर और
हंगामों
के बीच
लगवा
लेता है अंगूठा
जबरदस्ती
मुझसे
टोपी
बदल खेल के लिए
मेरी
औकात महज
इन
पचपन वर्षों में
सत्ता
के पट्टों पर
सियासी
दाँवपेंच के धुरंधर
खिलाड़ियों
की कुर्सियों के
इंतजाम
के लिए
रह
गयी है
सिर्फ
अँगूठा लगाने की
जनतंत्र
के इस खेल में
मैं
कहाँ खड़ा हूँ ?
पचपन
वर्षों की आजादी के
सपनों
में उतराते
खाली
पेट
सूखे
चेहरे के साथ
पूछ
रहा हूँ मैं
यह
पूछते हुए
अपने
ही जिन्दा न
रह
जाने का अहसास
और
वजूद पर
भारी
भय लिए
आखिर
हो रही हैं
मुठभेड़े
भी तो !
जनतंत्र
के,तन्त्र के
कायदे-क़ानून
तोड़ने
की सजा भी तो तय है!
मेरे
यह पूछने से
कहीं
हो गया उन्हें महसूस
कि
आतंकवाद बढ़ सकता है
या
फिर संसद की शांति
भंग
हो सकती है
वे
दे सकते हैं
लम्बी
जेलें या फिर मार सकते हैं
सीधे
गोली
जनतंत्र
के इस खेल में
पूछना
गुनाह है
खेल
के नियम |
चलो
होरी
चलो
होरी
एक
बार फिर अपने गाँव
जहाँ
नदी के किनारे
छुप-छुप
मिला करते थे हम
वहीं
पर तो पहनाई थी तुमने
पहली
बार मेरे पैरों में
घुघुचियों
की पायल
बीच
नदी से तोड़कर
ले
आए थे लाल कमल
याद
है हरे-भरे खेतों की मेड़ पर
डगमगाती-गिरती
मुझे
देते
थे तुम अपनी मजबूत
बाहों
का सहारा
चने-मटर
की फुनगियाँ खोंटते
अक्सर
टकरा जाते थे हमारे सिर
जिसे
झगड़े के डर से
लड़ाना
पड़ता था कई बार
मुँह-अँधेरे
महुआ के बागान जाना तो
जरूर
याद होगा तुम्हें
कैसे
धरती पर मोतियों से बिखरे
रहते
थे महुए के फल
जिन्हें
चुन-चुन कर भर देते थे तुम
मेरा
खोईछा
महुआ
की मीठी पूड़ी-हलवा
और
चने की पिट्ठी से भरी
अहरे
पर सीझी
सुडौल-चित्तीदार
लिट्टियों
का स्वाद आज भी ताजा है
चलो
ना होरी
इस
बार अपने गाँव
देखे
तो चलकर कितना बचा हुआ है
गाँव
में अपना पुराना गाँव |
जाड़े
की धूप
एक
टुकड़ा जाड़े की धूप
दरवाजे
से
मेरे
कमरे में आ गयी है
धूप
प्रिय
है..गुनगुनी है
चटख
है ..अपराह्न की है
ताजा
है ..
कमरे
का कोना-कोना उजास है
मैं
अपने घर की
हर
वस्तु सरलता से देखती हूँ
पहचानती
हूँ
अपने
करीब पाती हूँ
धूप
गौरेया
है
निश्शंक
कमरे में
फुदकती
है
चहकती
है
मीठी
सुगन्धि का फूल है
कमरा
भर महकती है
धूप
थोड़ी
देर बाद चली जाएगी
फिर
बढ़ जाएगा
कमरे
का अँधेरा ...सीलन
धूप
कभी-कभी
आती है
कमरे
का जी बहलाती है
फिर
उसे उदास छोड़ जाती है
मेरा
मन
धूप
के उस टुकड़े का
इंतजार
करता है |
जादू
की छड़ी
चाहती
हूँ
मिल
जाए मुझे
एक
जादू की छड़ी
छू
दूँ जिससे
कचरा
बीनते बच्चों को
बदल
जाएँ उनके फटे वस्त्र
स्कूल
यूनिफार्म में
उनके
थैले भर जाएँ
किताबों
से
चाहती
हूँ
बदल
दूँ दहेजखोरों को
जंगली
बिलाव
नेताओं
को खूँखार भेड़ियों में
और
हांक दूँ उन्हें
सुदूर
वन में
चाहती
हूँ छुड़ाना
कसाईयों
के चंगुल से
बच
गयी गायों को
पाँप
के दीवानों को
ले
जाना चाहती हूँ
खेतों
की ओर
सिखाना
चाहती हूँ
बोआई-कटाई
के गीत |
प्रेत
गाँव
के बाहर का
जटाधारी
बूढ़ा बरगद
जाने
कब से भुतहा कहलाता था
उसके
नीचे प्रेत का
चढावा
चढ़ता था
शाम
ढले के बाद
कोई
उधर नहीं गुजरता था
उसी
बरगद के पीछे
टूटे-फूटे
खंडहर में
छिपकर
रहता था वह
लोगों
द्वारा
प्रेत
को चढ़ाये गए
चढ़ावों
से
चलता
था उसका काम
एक
दिन रंगे-हाथों
पकड़
लिया गया
और
पीट-पीटकर
मार
डाला गया
अब
वह भी प्रेत है
लोग
उससे भी
भय
खाने लगे हैं
उसके
नाम चढ़ावा
चढाने
लगे हैं |
नाली
का मेढ़क
नाली
का एक मेंढक
नन्हा,सुंदर पर
गंदगी
में लिथड़ा
नदी
से आ मिला एक दिन
नदी
ने उसे साफ़ किया
स्नेह
और सम्मान दिया
वह
ले जाना चाहती थी
समुद्र
तक उसे
वह
भागने लगा
नाली
की तरफ
नदी
ने उसे
समुद्र
के बारे में बताया
मेढ़क
अभिमान से मुस्कुराया-
मेरी
नाली समुद्र से अच्छी है
और
मैंने तुम्हें गंदा किया
यही
मेरी विजय है |
चुप रहो
शोर मत करो
मुझे सोने दो
क्या हुआ जो
गुलाबी पंखुरियों
में
धँस रहे हैं जहरीले
नाखून
बढे हुए दांत चींथ
रहे हैं
तितलियों के रंगीन
पर
जलाये जा रहे हैं
खर-पतवार
छटपटा रही है सुनहरी
चिड़ियाँ
खूनी पंजों में
होता ही रहता है यह
सब
मत जगाओ मुझे
देखने दो
राम-राज्य के स्वप्न
|
प्रगतिशील
जनेऊ की जगह
मांस की मोटी लकीर है
चोटी सिर के ऊपर नहीं
मस्तिष्क की शिराओं को
निर्देशित करती
अंदर गतिशील है
जी,सही समझे आप
ऐसे ही आज के
प्रगतिशील हैं |
मांस की मोटी लकीर है
चोटी सिर के ऊपर नहीं
मस्तिष्क की शिराओं को
निर्देशित करती
अंदर गतिशील है
जी,सही समझे आप
ऐसे ही आज के
प्रगतिशील हैं |
अतीत
तिलचट्टे की
पुरानी देह से
निकल आई है
एक नई देह
फिर क्यों घिसट रहा है
पुरानी को भी
नई के साथ-साथ
क्या अतीत का मोह
कभी नहीं छूटता ?
पुरानी देह से
निकल आई है
एक नई देह
फिर क्यों घिसट रहा है
पुरानी को भी
नई के साथ-साथ
क्या अतीत का मोह
कभी नहीं छूटता ?
नश्वर बुलबुला
यह बुलबुला
देखने में छोटा है
बहुत बड़ा है इसका हृदय
बताएँगी सूर्य-किरणें
जब आईं थीं इसके पास
लेकर गईं उपहार में
इंद्रधनुषी ओढ़नी
निराकार हवा को घेरकर
आकार दिया था इसी बुलबुले ने
नश्वर सही हँसा सकता है यह
रोते हुए किसी भी बच्चे को |
देखने में छोटा है
बहुत बड़ा है इसका हृदय
बताएँगी सूर्य-किरणें
जब आईं थीं इसके पास
लेकर गईं उपहार में
इंद्रधनुषी ओढ़नी
निराकार हवा को घेरकर
आकार दिया था इसी बुलबुले ने
नश्वर सही हँसा सकता है यह
रोते हुए किसी भी बच्चे को |
बुजुर्ग
सखा [हरिश्चन्द्र श्रीवास्तव के लिए ]
कैसे
बताऊँ
कैसा
लगता है
आपके
बिना यह शहर
नामी
दाद.. सियासी पार्टियों के नेता
हिंदी-उर्दू
के अदीब
गोष्ठियां
बहस-बाजियां चिंताएं देश-दुनिया की
सब
हैं
सिर्फ
आप नहीं हैं
आप
नहीं हैं अब
सिर्फ
गोष्ठियां बहसबाजियाँ हैं
भटकती
हुई अज्ञानता के अँधेरे में दिग्विहीन
जहाँ
सिर्फ बचा है शब्दों का शोर
भाषा
का अजीर्ण
‘सुनाओ
न कुछ
क्या
लिख रही हो आजकल ?’
कोई
नहीं पूछता अब
कैसी
हो ?
कविता
सुनकर पीठ ठोंकने वाला
अब
कोई नहीं रहा
कविता
की हमारी इस छोटी सी दुनिया में
करीने
से सजी वस्तुओं के इस शहर में
संवेदना
भी एक जिंस है
खरीद-फरोख्त
के लिए सरे बाजार
दुःख
को सहनीय बनाने की
तकनीकों
का जानकार हो गया है
तुम्हारा
यह शहर
तुम
जो आए थे काशी से
गोरखपुर
तुम
कबीर थे हमारे लिए
साफगोई,दयालुता
और थाम लेने को तत्पर
तुम्हारे
दोस्ताना हाथ
अड़े
हैं आँखों में अब भी
कौन
भूल सकता है-
'आओ प्यारे' का तुम्हारा मुखोच्चार
पान
की गिलौरियाँ कौन भूल सकता है
गिलौरियों
में घुली तुम्हारी आत्मा के
गेह
में कितनी जगह थी
हम
सबके लिए
रोशनियों
की बाढ़ से ऊबा यह शहर
डूब
रहा है
अपने-अपने
अंधेरों के
निविड़
एकांत में
डरता
है आदमी से आदमी
अदीब
से अदीब
दोस्त
से दोस्त
बाँटने
में अपना दुःख
अपनी
भावनाएँ
खंडित
अस्तित्व हैं हम सब आत्मविभाजित
टुकड़ों
में
अब
कोई पुल नहीं रहा इस शहर में
समाप्त
होते जा रहे हैं संवाद-सेतु
मेरे
बुजुर्ग दोस्त
तुम्हारी
वैचारिकी
उम्मीदों
को हर हाल में
बचे
रखने की
तुम्हारी
अडिगता
बची
हुई है
अब
भी तुम्हारी स्मृति की रोशनी में
हम
सीख रहे हैं जीवन जीने की वैचारिकी
कभी
भी खत्म नहीं होगे तुम
जैसे
कि
खत्म
नहीं होगी कभी उम्मीद |
नौकर
‘कोई नौकर क्यों
नहीं रख लेतीं
कोई गरीब बच्चा
आराम हो जाएगा
ज्यादा लिख-पढ़
पाएंगी
समय बचेगा
बचेगी ऊर्जा
किसी बड़े को मत रखना
रख सकता है किसी रात
गर्दन पर छूरी
स्त्री मिलेगी नहीं
ईमानदार
जरूरतमंद
रहेगा बच्चा ही ठीक
पहाड़ का हो तो और भी
‘_
अक्सर मित्र सलाह
देते हैं
सोचती हूँ मैं भी
कि हो कोई ऐसा
संभाल ले घर
निश्चिन्त होकर
कहीं आ-जा सकूं
निपटा सकूँ बाहर के
काम
सृजन करूँ और भी
ज्यादा
पर ज्यों ही आता है
सामने कोई बच्चा
मेरा मन जाने कैसा
हो जाता है
यह काम करेगा
मैं लिखूँगी-पढ़ूँगी
यह गुलाम होगा मैं
आजाद
नहीं पच पाती मन को
यह बात
हर बार मैं नौकर-विहीन
रह जाती हूँ
और मित्रों में
गरीब सोच की समझी
जाती हूँ |
स्मृतियाँ
कट चुकी है
गेहूँ की फसल
ठूँठ भी नहीं बचे
फिर भी सुनहरी आभा से
जगमगा रही है खेत
सच ही है
सुनहरी स्मृतियाँ
तंन मन को
सोना बनाए रखती हैं
वर्षों तक |
गेहूँ की फसल
ठूँठ भी नहीं बचे
फिर भी सुनहरी आभा से
जगमगा रही है खेत
सच ही है
सुनहरी स्मृतियाँ
तंन मन को
सोना बनाए रखती हैं
वर्षों तक |
हम
चुप नहीं रहेंगे
हम
चुप नहीं रहेंगे
क्योंकि
चुप्पी एक खतरनाक रोग है
यह
सच है कि हम जीना चाहते हैं इज्जत से
और
रहना है इसी देश में
पर आँखें
नहीं ढंक लेंगे
जो
अन्याय देंखेंगे
बहरे
नहीं बन जायेंगे
जो
किसी की चीख सुनेंगे
ठीक
है कि हमें खुद को
और
अपने प्रिय जनों को सुरक्षित रखना है
जानते
हैं सच बोलने पर
काटी
जा सकती है हमारी जीभ
न्याय
की बात पर
अपंग
किये जा सकते हैं हम
डाले
जा सकते हैं जेल में
फिर
भी,हम चुप नहीं रहेंगे
क्योंकि
चुप्पी एक खतरनाक रोग है
और
हम रोग नहीं पालते |
हरियाली
हरियाली की
बात करते -करते
बटोर लेते हैं वे
अपने कई
पीढ़ियों के लिए
हरियाली
और हमेशा हरे रहते है
भले ही चारों तरफ
सुखाड़ पड़ा हो |
बात करते -करते
बटोर लेते हैं वे
अपने कई
पीढ़ियों के लिए
हरियाली
और हमेशा हरे रहते है
भले ही चारों तरफ
सुखाड़ पड़ा हो |
बाजार
में
बाजार
में
नन्हें
पौधे
अपनी
जमीन
बंधु-बांधवों
से अलगाए गए
उदास
पौधे
खरीदार
को आते देख
पीले
पड़ जाते
छूने
पर सिकुड़ जाते
मोलभाव
करने पर
एक-दूसरे
से लिपट जाते
सुकुमार
पौधे
सिर
हिला-हिलाकर कर रहे हैं
बेचे
जाने का विरोध
निर्बल-निरुपाय
पौधे |
एक ही समय
स्कूल कैम्पस के
खेल के मैदान में
बच्चे खेल रहे हैं
उनमें गति है तीव्रता है
उमंग और उत्साह है
रह-रहकर गूँज रही
उनकी खुशी-भरी चिल्लाहट है
मानो खेलना ही उनकी चाहत है
वे खेल नहीं रहे
जी रहे हैं जिंदगी भरपूर
सारी चिंताओं से दूर |
बच्चे पढ़ रहे हैं
उनमें सुस्ती है उदासी है
बार-बार ले रहे उबासी हैं
दिख रही साफ़-साफ़ उनमें
एक बोझिल उकताहट
जैसे पढ़ना नहीं उनकी चाहत
कुछ झाँक रहे खिड़कियों से
बाहर खेल के मैदान में
स्थिर नहीं उनका मन
कुछ भाग रहे बहाने से
कुछ को इंतजार घंटी बजने का
सबको खेल देखने की चाहत है
जिसकी नहीं मिल रही उन्हें इजाजत है
वे पढ नहीं रहे
ढो रहे हैं किताबें
बस में हो,तो उन्हें जला दें |
स्कूल कैम्पस के
खेल के मैदान में
बच्चे खेल रहे हैं
उनमें गति है तीव्रता है
उमंग और उत्साह है
रह-रहकर गूँज रही
उनकी खुशी-भरी चिल्लाहट है
मानो खेलना ही उनकी चाहत है
वे खेल नहीं रहे
जी रहे हैं जिंदगी भरपूर
सारी चिंताओं से दूर |
बच्चे पढ़ रहे हैं
उनमें सुस्ती है उदासी है
बार-बार ले रहे उबासी हैं
दिख रही साफ़-साफ़ उनमें
एक बोझिल उकताहट
जैसे पढ़ना नहीं उनकी चाहत
कुछ झाँक रहे खिड़कियों से
बाहर खेल के मैदान में
स्थिर नहीं उनका मन
कुछ भाग रहे बहाने से
कुछ को इंतजार घंटी बजने का
सबको खेल देखने की चाहत है
जिसकी नहीं मिल रही उन्हें इजाजत है
वे पढ नहीं रहे
ढो रहे हैं किताबें
बस में हो,तो उन्हें जला दें |
वह
पिता है
हवा में
उड़ रहे हैं पत्ते
पेड़ विवश और चुप
देखने को अभिशप्त
उसकी देह के हिस्से
स्वेद-रक्त से बने
सुख-दुःख में
साथ-साथ
झूमे
झुलसे
भींगे
कंपकंपाये पत्ते
इस कदर बेगाने
उड़े जा रहे हैं
बिना मुड़े ही
तेज हवाओं के साथ
जाने किस ओर
भूल चुके हैं
साथ जीए सच को
क्या उन्हें याद होंगी वे किरणें
जो सुबह नहलाती थी
गुनगुने जल से उन्हें !
चिड़ियाएँ
जो मीठे गीत सुनाती थीं
कि नई यात्रा के रोमांच में
भूल चुके होंगे सब कुछ
पर कैसे भूला दे
जमीं से जुड़ा पेड़
वह तो पिता है |
यह
भागता शहर
यह
भागता शहर
वक्त
का टोटा इतना यहाँ
कि
कहता है प्रेमिका से प्रेमी -
"बस दस मिनट
कर
लो ...करना है जो”
फालतू-सा
शगल है प्रेम यहाँ
उबाल
है
उबलते
दिख जाते हैं जोड़े
पार्क
सिनेमाहाल
जैसी जगहों पर भी |
यह
सुंदर जगमगाता
रात-दिन
जागता
जिन्दगी
और मौत लिए
चलता
है साथ
क्रिया
के बिना वाक्य हो जैसे
गति
बिना जिंदगी यहाँ
विराम
नहीं
ठहरने
और सुस्ताने की जगहें भी
मानकर
चलते हैं सभी
"अवसर नहीं खटखटाएगा फिर द्वार”
जिन्दा
रह सकता है वही जो
भाग
सकता है तेज
धीमी
गति वाले पिछड़े
या
फिर कुचले मिलते हैं
रफ्तार-चक्र
के नीचे |
यहाँ
रोमांच है,रोमांस नहीं
देह
है ..आत्मा नहीं
सब
कुछ कृत्रिम
मशीन
से संचालित
पेड़-पौधे,फल-फूल
पशु-पक्षी
सब
यहाँ
तक कि आदमी भी
मुश्किल
है पहचान असल की
नकल
ज्यादा वास्तविक लगता है यहाँ |
माया
नगरी है यह शहर
खींचता
है सबको
जाने
कहाँ-कहाँ से
किस-किस
तृष्णा में
चले
आ रहे हैं लोग यहाँ
अनवरत
अपनी
जड़ों से उखड़कर
या
उखाड़कर
अंधी
दौड़ में हिस्सेदार बनने
डरती
हूँ कहीं हश्र न हो इनका
लोक-कथा
के उस नायक-सा
जो
और अधिक के लोभ में
दौड़ता
चला जाता है
और
लौट नहीं पाता
अपने
ठिकाने पर
समाज
एक
नन्हा बच्चा
अपने
पिता से बोला- पिताजी!
हम
किस जाति और समाज के हैं ?
आपने
तो कहा था
पक्षियों
पशुओं
की तरह
आदमी
की भी एक जाति होती है
होता
है एक समाज
पर
यहाँ तो जातियों की भरमार है
बन
रहे हैं नित नए समाज भी
ब्राह्मण,भूमिहार,यादव,जाट
जायसवाल, कायस्थ आदि के अपने-अपने
समाज
हैं
यानी
एक समाज में अनगिनत समाज हैं
सबका
नारा
जातिगत-जागरण
और उत्थान है
मन
मेरा परेशान है |
बथुए का साग बेचते
बच्चे
जिलाधिकारी के आदेश
से
बंद है जनपद के सारे
स्कूल
कड़ाके की इस ठंड में
दुबके हैं बड़े तक
गर्म बिस्तरों में
वे खोंट रहे हैं
बथुए का साग
अलस्सुबह से
ठंड से नीले पड़ गए
हैं होंठ
थर-थर काँप रहा है
जिस्म
ओस से गीली मिट्टी
में
रपट रहे हैं नंगे
पाँव
आधे-अधूरे कपड़ों में
लुग्गा की गांती
बाँधे बच्चों के
हाथ ठिठुर रहे हैं
खोंटते हुए साग
आयरन और विटामिन ‘ए’
खूब होता है बथुए की
साग में
-बताते हैं डाक्टर
जिनकी बहुत ही कमी
है
इन बच्चों में
पर खाने के लिए नहीं
बेंचने के लिए खोंट
रहे हैं
ये बथुए का साग
रूखा-सूखा या बासी
खाकर
दुपहर बाद ये
जायेंगे बाजार
और बैठ जायेंगे
यहाँ-वहाँ
सामने लगाकर बथुए का
ढेर
सहेंगे ग्राहकों के
नखरे
तेवर और घुड़कियाँ
सर्वशिक्षा अभियान
गरीबी उन्मूलन की
सरकारी योजनाएं
निरर्थक हैं इन
बच्चों के लिए
पूछ बैठती हूँ –‘क्यों
नहीं जाते स्कूल
जब मिलता है मुफ्त
दोपहर को भोजन’
हँसता है उनमें से
थोड़ा बड़ा बच्चा
‘भूख सिर्फ दोपहर को
ही नहीं लगती मैडम !
पूरा परिवार लगता
है,तब जुटती है
दो वक्त की रोटी’
सोचती हूँ –जिस देश
में बच्चों के आगे
रोटी का सवाल हो
वहाँ कैसे ‘सब पढ़े –सब
बढ़े|’
शिक्षा
वह ले आता है आफिस से
डायरियाँ,रबर ,कागज -पेन तक
इस्तेमाल करता है
निजी कामों में
सरकारी वाहन
धौंस देता है सबको
अपने अफसर होने का
और दुखी होता है
कि जाने कहाँ से आ गयी है बेटे में
झूठ ..चोरी ..व अकड़ की आदत
जबकि पढता है शहर के सबसे
महंगे और नामी स्कूल में |
डायरियाँ,रबर ,कागज -पेन तक
इस्तेमाल करता है
निजी कामों में
सरकारी वाहन
धौंस देता है सबको
अपने अफसर होने का
और दुखी होता है
कि जाने कहाँ से आ गयी है बेटे में
झूठ ..चोरी ..व अकड़ की आदत
जबकि पढता है शहर के सबसे
महंगे और नामी स्कूल में |
जन-जागरण
वे ट्रकों-ट्रक्टरों में लादकर लाई गयीं
थीं
जनजागरण की भीड़ का हिस्सा थीं
तेज धूप में चुपचाप बैठी ऊँघ रहीं थीं
बीच-बीच में यंत्रवत उठते थे उनके हाथ
आकाश की तरफ और सिखाए हुए नारे लगाती थीं
भाषण सुनकर जय-जयकार करतीं थीं
बूढ़ी-जवान,सधवा-विधवा उनमें सब थीं
क्या हो रहा है और क्यों इससे बेपरवाह थीं
वे सोच रहीं थीं जल्द खत्म हो यह तमाशा
तय पैसे मिलें और वे लौटे घर
जहाँ इंतजार में हैं घर वाले
कि आज कुछ अच्छा पके|
जनजागरण की भीड़ का हिस्सा थीं
तेज धूप में चुपचाप बैठी ऊँघ रहीं थीं
बीच-बीच में यंत्रवत उठते थे उनके हाथ
आकाश की तरफ और सिखाए हुए नारे लगाती थीं
भाषण सुनकर जय-जयकार करतीं थीं
बूढ़ी-जवान,सधवा-विधवा उनमें सब थीं
क्या हो रहा है और क्यों इससे बेपरवाह थीं
वे सोच रहीं थीं जल्द खत्म हो यह तमाशा
तय पैसे मिलें और वे लौटे घर
जहाँ इंतजार में हैं घर वाले
कि आज कुछ अच्छा पके|
राजनीति
जूता,चप्पल,घूसा,थप्पड़
काई-कीचड़ एक-दूजे पर
रोज-रोज सर्कस सा करतब
यही है क्या
लोकतंत्र का मतलब?
काई-कीचड़ एक-दूजे पर
रोज-रोज सर्कस सा करतब
यही है क्या
लोकतंत्र का मतलब?
डुप्लीकेट
बाजार में
भरी पड़ी हैं
डुप्लीकेट चीजें
जेवर
कपड़े
जूते से लेकर
आम जरूरत की
हर चीजें
अमीर नाराज कि
छोटे-बड़े का अंतर मिटा रही हैं
ये चीजें ...
सड़कछाप भी उनके जैसे दीखते
कपड़े-जूतों में शान से निकलने लगे हैं
हजार के असली के बदले
सौ का नकली खरीद अकड़ने लगे हैं
सोचती हूँ मैं -जिनकी बदौलत
कम पैसों में भी जीवन
जी लेते हैं गरीब
बचा लेते है अपना सम्मान
महसूस करते हैं खुद को इंसान
व्यर्थ है उनपर विवाद
यही से शुरू होगा समाजवाद |
भरी पड़ी हैं
डुप्लीकेट चीजें
जेवर
कपड़े
जूते से लेकर
आम जरूरत की
हर चीजें
अमीर नाराज कि
छोटे-बड़े का अंतर मिटा रही हैं
ये चीजें ...
सड़कछाप भी उनके जैसे दीखते
कपड़े-जूतों में शान से निकलने लगे हैं
हजार के असली के बदले
सौ का नकली खरीद अकड़ने लगे हैं
सोचती हूँ मैं -जिनकी बदौलत
कम पैसों में भी जीवन
जी लेते हैं गरीब
बचा लेते है अपना सम्मान
महसूस करते हैं खुद को इंसान
व्यर्थ है उनपर विवाद
यही से शुरू होगा समाजवाद |
मजहब
तुम्हारे आँगन के
गुलमोहर की शरारती
डाल
मेरी छत तक पहुँचकर
इठलाया करती थी
साधिकार
जाड़े की धूप में
उसकी चटख हरी
पत्तियों को देखकर
मेरा मन भी हो जाता
था हरा
हम दोनों के बीच था
अनाम मह-मह करता
रिश्ता
नहीं थी भाषा और
मजहब की दीवार
आज तुमने निर्ममता
से
खींच ली है वह डाल
जो अब धूल-धूसरित
छिन्न-भिन्न पड़ी है
तुम्हारे आँगन में
खो चुका है उसका
हरापन
पर तुम खुश हो
कि मजहब को कैद कर
लिया है
अपनी चारदीवारी में
|
लाचार पिता
बूढ़े और लाचार
पिता
देखते रहते हैं
गर्दन मोड़-मोड़कर
तेज भागती दुनिया को
कुढ़ते हैं
कि नहीं चल सकते वे
जमाने के साथ
और कोई रूकता नहीं
उनके लिए
पथरा गया है निचला धड़
नहीं कर पाते
अब वे कोई काम
इंतजार हैं उनके अपनों को
कब पथराएंगीं
बूढे की आँखें ?
देखते रहते हैं
गर्दन मोड़-मोड़कर
तेज भागती दुनिया को
कुढ़ते हैं
कि नहीं चल सकते वे
जमाने के साथ
और कोई रूकता नहीं
उनके लिए
पथरा गया है निचला धड़
नहीं कर पाते
अब वे कोई काम
इंतजार हैं उनके अपनों को
कब पथराएंगीं
बूढे की आँखें ?
मिठास
समुद्र से मिलने के लिए
नदी
पत्थरों /पहाड़ों से टकराती है
किनारों से बगावत करती है
नदी भूल जाती है
समुद्र बनना
मिठास खोना है |
नदी
पत्थरों /पहाड़ों से टकराती है
किनारों से बगावत करती है
नदी भूल जाती है
समुद्र बनना
मिठास खोना है |
हिंदी
हिंदी
इंडियन बीबी
रसोई में खटती
अंग्रेजी महबूबा हर पल
गले से लटकी |
इंडियन बीबी
रसोई में खटती
अंग्रेजी महबूबा हर पल
गले से लटकी |
मेरे शहर में
जितनी ही बढ़ रही है मंहगाई
उतने ही ज्यादा बन रहे हैं भवन
पहले से ज्यादा ऊंचे..विशाल
और सुंदर
बढ़ रहा है खान-पान का स्तर
साज-सज्जा विलासिता की वस्तुओं में
हो रही है बढोत्तरी निरंतर
कपड़ों..जूतों
गाड़ियों में वैराईटी देखते ही बनती है
हर चीज में सम्पन्नता की झलक है
अब कोई गरीब नहीं दीखता
हर हाथ में मोबाईल है
क्या सच ही कोई गरीब नहीं रहा
कि नहीं दिखना चाहता कोई गरीब
कि डुप्लीकेट उतारकर
हर चीज की पाट दी है बाजार ने ही
अमीर-गरीब के बीच की खाई |
जितनी ही बढ़ रही है मंहगाई
उतने ही ज्यादा बन रहे हैं भवन
पहले से ज्यादा ऊंचे..विशाल
और सुंदर
बढ़ रहा है खान-पान का स्तर
साज-सज्जा विलासिता की वस्तुओं में
हो रही है बढोत्तरी निरंतर
कपड़ों..जूतों
गाड़ियों में वैराईटी देखते ही बनती है
हर चीज में सम्पन्नता की झलक है
अब कोई गरीब नहीं दीखता
हर हाथ में मोबाईल है
क्या सच ही कोई गरीब नहीं रहा
कि नहीं दिखना चाहता कोई गरीब
कि डुप्लीकेट उतारकर
हर चीज की पाट दी है बाजार ने ही
अमीर-गरीब के बीच की खाई |
बच्चे चाहते हैं
बच्चे चाहते हैं बनाना
एक ऐसी दुनिया
जिसमें जाति-धर्म,राज्य-राष्ट्र
वर्ण-नस्ल,अमीर-गरीब जैसे भेद ना हों
सभी आदमी हो
आदमियों से प्यार करने वाले
बच्चे ही सोच सकते हैं
ऐसी दुनिया के बारे में
और बना भी सकते हैं
एक ऐसी दुनिया
जिसमें जाति-धर्म,राज्य-राष्ट्र
वर्ण-नस्ल,अमीर-गरीब जैसे भेद ना हों
सभी आदमी हो
आदमियों से प्यार करने वाले
बच्चे ही सोच सकते हैं
ऐसी दुनिया के बारे में
और बना भी सकते हैं
बाजार के अनुकूल
सबके
सब छूट गए
अपने-पराए
अकेले
क्षत-विक्षत मैं
बचा
हूँ
विध्वंश
का साक्षी
चारों
तरफ बिखरे हैं शव
युद्ध
में खेत रहे अपने-परायों के
मंडरा
रहे हैं गिद्ध
अट्टहास
है भयावह सन्नाटे का
जिऊंगा
क्या मैं ही
देखने
को सब कुछ ?
बेकार
'पुर्जा' करार दिया गया हूँ
लगी
है मेरी पीठ पर पुर्जी
'नाट फिट फार सेल' की
नीलामी
के कई समारोहों में
हो
आया हूँ
उनकी
मशीनों में
'बोनलेस' पुर्जे ही खपते हैं
हड्डियां
उनकी अदम्य लालसा की
गति
में बाधा बनती हैं
नई
जरूरतों में उन्हें
रिमोट
पर काम करने वाले
'बोनलेस' पुतले चाहिए
जो
ना करे सवाल
ना
दिमाग चलाए
उन्हें
बाजार के अनुकूल
वर्तमान
चाहिए |
विदेशी दाल में देशी
घी का तड़का
‘आओ,आओ साहब
यहाँ देशी परवल है
आकार में छोटी है
असली रंग है
बिना खाद की भिण्डी
है
महँगी तो होगी ही
देशी है
शुद्ध है
असली है|’
सब्जी-बाजार में
बेचीं जा रहीं हैं सब्जियाँ
महँगे दामों में
देशी नाम पर
ग्राहकों की भीड़
वहीं ज्यादा है
जबकि आकार में बड़ी
चटख रंगों वाली
सब्जियाँ
थोड़ी सस्ती हैं
उनपर विश्वास नहीं
है ग्राहकों को
-‘केमिकल के कारण
बड़ी हैं
रंगी हुई हैं इसलिए
हरी हैं
लगता है विदेशी हैं
|’
कितना अजीब है
कि वे ही लोग हैं
जो कपड़े,विलासिता की
वस्तुएँ
खरीदते हैं विदेशी
नाम पर
जो उसी तरह नहीं
होतीं विदेशी
जैसे नहीं होती देशी
पूरी देशी
देशी दाल में विदेशी
मक्खन की छौंक
विदेशी दाल में देशी
घी का तड़का
मिलावट सबमें है
असली कहाँ जनता की
किस्मत में है?
यह भी एक जीवन है
सड़क की ढलान पर
कचरे के ढेर के पास
प्लास्टिक,पुराने कपड़ों और बाँस के
कैनियों से बना है उनका घर
अंदर एक पुरानी चौकी है
जिनके पाएं ईंटों से बने हैं
करीने से रखा है जिसपर
पुआल भरा बिस्तर
जमीन लीपी-पुती है
एक तरफ ईंटों का चूल्हा है
जिसपर पकाती हुई भात
गुनगुना रही है
पुरानी साड़ी में
नमकीन-सी स्त्री
बाहर जंग लगी फोल्डिंग चारपाई है
जिस पर लेटा है बंसफोर
पेट पर रखे
बाबा आदम के जमाने का रेडियो
एफ.एम से आ रहे हैं
'दबंग' के गीत
एक कोने में सात साल की बच्ची
इस ठंड में भी सिर्फ एक पुरानी फ़्राक पहने
जोर-भर माँज रही है राख से बर्तन
दूसरी तरफ चार साल का बच्चा
बड़ा-सा स्वेटर पहने
कमर के नीचे नंगा
बहती नाक को स्वेटर की बाँह से
रह-रहकर पोंछता
पुरानी बाँस के टुकड़े पर
दनादन चलाता छोटी कुल्हाड़ी
मानों पारंपरिक ट्रेनिंग ले रहा है
सब अपने-आप में मगन हैं
यह भी एक जीवन है |
कचरे के ढेर के पास
प्लास्टिक,पुराने कपड़ों और बाँस के
कैनियों से बना है उनका घर
अंदर एक पुरानी चौकी है
जिनके पाएं ईंटों से बने हैं
करीने से रखा है जिसपर
पुआल भरा बिस्तर
जमीन लीपी-पुती है
एक तरफ ईंटों का चूल्हा है
जिसपर पकाती हुई भात
गुनगुना रही है
पुरानी साड़ी में
नमकीन-सी स्त्री
बाहर जंग लगी फोल्डिंग चारपाई है
जिस पर लेटा है बंसफोर
पेट पर रखे
बाबा आदम के जमाने का रेडियो
एफ.एम से आ रहे हैं
'दबंग' के गीत
एक कोने में सात साल की बच्ची
इस ठंड में भी सिर्फ एक पुरानी फ़्राक पहने
जोर-भर माँज रही है राख से बर्तन
दूसरी तरफ चार साल का बच्चा
बड़ा-सा स्वेटर पहने
कमर के नीचे नंगा
बहती नाक को स्वेटर की बाँह से
रह-रहकर पोंछता
पुरानी बाँस के टुकड़े पर
दनादन चलाता छोटी कुल्हाड़ी
मानों पारंपरिक ट्रेनिंग ले रहा है
सब अपने-आप में मगन हैं
यह भी एक जीवन है |
हरे झंडे क्यों?
वे चिंतित हैं कि
कुछ छतों पर
हरे झंडे क्यों हैं?
मुझे डर है
कहीं वे कानून न
बना दें
पेड़ हरे पत्ते और
फल न उगाएं
हरी फसलों पर
मुकदमें चलाए जाएँ
कि उनके आदेश से
तोते किसी दूसरे मुल्क चले जाएँ
कि औरतें हरी
साड़ियाँ तो कत्तई न पहनें
और इस बात का खास
ख्याल रखें
कि उनकी रसोई में
हरी सब्जियां न आने पायें
कि उनकी कोख हरी न
हो
दुर्लभ होते हरित-प्रदेश
में
वे हरियाली की
कुर्की कराने वाले हैं
पक्षियों
फसलो और
औरतो
कृपया
सावधान |
शीर्यते इति शरीर:
धीरे-धीरे
कम हो रही है
आँखों की चमक
केशों की सघनता
चेहरे की कसावट
छीज रही है देह की
शक्ति
दर्पण में मेरी जगह
जैसे माँ खड़ी होने
लगी है
अब नहीं आती हँसी
पहले की तरह
बात-बेबात
गुस्सा जरूर आता है
बेवकूफ लगते हैं
हास-परिहास करने
वाले
खुशी नहीं होती
मिलकर उनसे
जो सफल,सुखी और
संपन्न हैं
योग्य ना होते हुए
भी
प्रेम के दृश्य
रूलाते हैं
उठती है मन में एक
कसक
हे ईश्वर! क्या बूढ़ी
हो रही हूँ मैं
जानती हूँ –‘शीर्यते
इति शरीर:’
अर्थात जो नष्ट होता
है
वही शरीर है
और यह सबके साथ है
फिर क्यों है ये
बेचैनी
क्या होता है ऐसा
सबको
एक उम्र के बाद ?
संवेदनाएँ
खेतों में नहीं
जनमती
नहीं उगाई जा सकती
ब्रांडेड कंपनियों
के बीजों से
इसे जन्म लेने के
लिए
जरूरी नहीं औरत की
कोख भी
अपने-आप अंखुआती
जन्मती हैं
संवेदनाएं
और जब तक रहेंगे
संवेग
बची रहेंगी
संवेदनाएं |
सब्जी-बाजार में आलूवाद
सब्जी-बाजार में
अटे पड़े हैं
नए आलू
पारदर्शी जिल्द वाले
जिनसे साफ़-साफ़ झलक मारता है
किसी का सफ़ेद
किसी का गुलाबी
पीला
हरा
या चटख लाल रंग
सबसे अधिक भाव है लाल आलुओं का
जैसे आयरन भरा हो उनमें खास
ग्राहकों की भीड़
टूटी पड़ रही है नए आलुओं पर
बाजार में पुराने आलू भी हैं
बेडौल मोटी चमड़ी वाले
जिनमें नहीं बचा है
पहले जैसा रूप ..रंग ..स्वाद
एक भी ग्राहक नहीं उनके पास
जबकि गिरा हुआ है उनका भाव
पुराने आलू कुढ़ रहे हैं
देख-देखकर नए आलुओं को
कुछ का गुस्सा तो फूट पड़ा है
अंखुए की शक्ल में
उनके पूरे बदन से
कुछ दे रहे हैं नसीहतें -
'इतराओं मत,चार दिन की है चाँदनी'
नए आलू युवा हैं तो थोड़े मसखरे हैं
रह-रहकर उन्हें चिढ़ा देते हैं -
'इतनी मोटी चमड़ी है आपकी
कि छिलो तो गुद्दा उतर जाए
हमें देखो चुटकी से उतर जाते हैं
लगता है बूढ़े हो गए हैं आप
रिटायर होने के दिन आ गए हैं'
पुराने आलू जानते हैं
कि अब उतरना होगा उन्हें मिट्टी में
नहीं जानते कि उनके अंग-प्रत्यंग में है
अनगिनत आलू पैदा करने की क्षमता
बिना मिटाए पुराना शरीर
नहीं घटित होगा यह चमत्कार
वे दुखी हैं इस अहसास से
नहीं रहेगा इतने दिनों से पोषित यह शरीर
जिनसे जुड़ी हैं पंचरस युक्त स्मृतियाँ
सब कुछ चुकते जाने का अहसास
उनपर इतना भारी है कि भूल गए हैं
कि 'नए' पराये नहीं उनके ही अपने हैं
भूल गए हैं 'नए' भी कि वे
बूढ़ी आँखों के ही युवा सपने हैं
सब्जी-बाजार में छिड़ा हुआ है
दोनों पीढ़ियों में जबरदस्त विवाद
सभी सब्जियां हरी,पीली,सफेद.नीली
कह रहीं जिसे आलूवाद |
अटे पड़े हैं
नए आलू
पारदर्शी जिल्द वाले
जिनसे साफ़-साफ़ झलक मारता है
किसी का सफ़ेद
किसी का गुलाबी
पीला
हरा
या चटख लाल रंग
सबसे अधिक भाव है लाल आलुओं का
जैसे आयरन भरा हो उनमें खास
ग्राहकों की भीड़
टूटी पड़ रही है नए आलुओं पर
बाजार में पुराने आलू भी हैं
बेडौल मोटी चमड़ी वाले
जिनमें नहीं बचा है
पहले जैसा रूप ..रंग ..स्वाद
एक भी ग्राहक नहीं उनके पास
जबकि गिरा हुआ है उनका भाव
पुराने आलू कुढ़ रहे हैं
देख-देखकर नए आलुओं को
कुछ का गुस्सा तो फूट पड़ा है
अंखुए की शक्ल में
उनके पूरे बदन से
कुछ दे रहे हैं नसीहतें -
'इतराओं मत,चार दिन की है चाँदनी'
नए आलू युवा हैं तो थोड़े मसखरे हैं
रह-रहकर उन्हें चिढ़ा देते हैं -
'इतनी मोटी चमड़ी है आपकी
कि छिलो तो गुद्दा उतर जाए
हमें देखो चुटकी से उतर जाते हैं
लगता है बूढ़े हो गए हैं आप
रिटायर होने के दिन आ गए हैं'
पुराने आलू जानते हैं
कि अब उतरना होगा उन्हें मिट्टी में
नहीं जानते कि उनके अंग-प्रत्यंग में है
अनगिनत आलू पैदा करने की क्षमता
बिना मिटाए पुराना शरीर
नहीं घटित होगा यह चमत्कार
वे दुखी हैं इस अहसास से
नहीं रहेगा इतने दिनों से पोषित यह शरीर
जिनसे जुड़ी हैं पंचरस युक्त स्मृतियाँ
सब कुछ चुकते जाने का अहसास
उनपर इतना भारी है कि भूल गए हैं
कि 'नए' पराये नहीं उनके ही अपने हैं
भूल गए हैं 'नए' भी कि वे
बूढ़ी आँखों के ही युवा सपने हैं
सब्जी-बाजार में छिड़ा हुआ है
दोनों पीढ़ियों में जबरदस्त विवाद
सभी सब्जियां हरी,पीली,सफेद.नीली
कह रहीं जिसे आलूवाद |
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