कविता-कोश
[प्रेम-कविताएँ]
जलते
सफर में
दसों दिशाओं में छा गयी थी
अरुणाभा
तुम्हारी हँसी से उस दिन
खूब हँसे थे तुम
जाने किस बात पर
मन आँगन में फैल गयी थी घूप
बरसी थी चाँदनी इतनी
कि
बची है शीतलता आज भी
इस
जलते
सफर में |
द्वीप
दो अलग द्वीप से हम
मिल न सकेंगे कभी
कोई पुल नहीं है
हमारे बीच
तो भी क्या
प्रेम की अंतर्धारा तो
आप्लावित कर रही है
हमारे भूखंडों को
नीचे ही नीचे |
मिल न सकेंगे कभी
कोई पुल नहीं है
हमारे बीच
तो भी क्या
प्रेम की अंतर्धारा तो
आप्लावित कर रही है
हमारे भूखंडों को
नीचे ही नीचे |
तुम्हारा
प्यार
जब
चाँद-सितारों
की
तिरछी
पड़ती
रोशनी
में
दिप-दिप
करता था
तुम्हारा
चेहरा
शरीर
में
आकुल
दौड़ती थी
नदी
...
आवाज
में
हँसता
था आकाश
और
हँसी डूबी रहती थी
फूलों
में
तब
धूप
की फुहारों से भीगे
शरद
के दिनों-सा
होता
था|
अविस्मृत एक क्षण वह
वह पहली भेंट न थी
हमारी
तुमसे
जश्नों -समारोहों
में
मिले थे हम
कई –कई बार
लेकिन
अपनी –अपनी दूरियों
को सहेजते हुए
तब हम नहीं
मिलती थीं हमारी
परछाईयां
सम्वाद करती हँसती-मुस्कुराती
सजग और चौकन्नी
इतनी कि
खुल न जाय
कहीं किसी भूल से
आत्मा के ...मन के
भीतर
छिपा कोई मर्म
स्मृतियों में कहीं
भी कुछ भी दर्ज नहीं हुआ
किसी भी भेंट का कोई
भी क्षण
कोई भी घटना ऐसी कि
जिसका कैसा भी चिह्न
तनिक भी अंकित हो मन
पर
कल्मष और
मन की मलिनता को
मुस्कान की सभ्यता
से
आच्छादित करने की
कला के
पीछे –पीछे चलते हुए
जैसे हम
मिलते हैं किसी
परिचित या अपरिचित से
मिलते थे वैसे ही हम
भी
शब्दों और ध्वनियों
की कर्कशता के बीच
एक –दूसरे को सुनने –सराहने
का स्वांग करते हुए
और इस तरह
भद्र भेंटों के बीच
हमने कायम रखी
अपरिचय की दूरियाँ
अभेद्य बचाए रखा
अपने भीतर का तलघर
उघरने से
जैसे एक भद्र से
अपेक्षा की जाती है
जाने कैसे क्या हुआ
उस दिन भेंट हुई कुछ
इस तरह कि
जैसे मिल रहे हों
पहली बार
पहली बार व्याकुल
हुए हम
निरावृत होने को
उझिल दिया एक ही बार
में
सारा कुछ
खोल दिया आत्मा की
गाँठें
आदम इच्छाएँ अपनी-अपनी
घुला-मिला दिया एक-
दूसरे में
और इस तरह अपनी ही
छवियों की कारा से
मुक्त हो रहे थे हम
पहली बार
देखते हुए दिखाते हुए अपने को
अपने से बाहर
अकलंक निर्मलता के
क्षितिज पर
सभ्यता के संविधान
से बेपरवाह
उस वक्त शायद हम
चाहते थे
शुरू करना जीवन को
जीना शुरू से
दो अस्मिताओं का
निःशब्द सम्वाद वह
भाषा और अर्थ के
बाहर
एक दुर्लभ घटना थी
सभ्यताओं के इतिहास
में
हम दोनों लौट रहे थे
अपनी शिशुता में
जन्म ले रहा नया
इंसान
इंसानी इच्छाओं से
भरा और उन्मुक्त
हमारे ही भीतर से
जैसे कोई अचरज
कितना अद्भुत है
आदमी के भीतर खोए
हुए
आदमी को आकार लेते
देखना
तुम्हारी परिचित छवि
से ऊबी-उकताई मैं
अचम्भित हुई देखकर
तुमको
दुःख भी हुआ कि
सुंदर है कितना सरल
और सुविज्ञ भी
रूप यह भीतर का
तुम्हारा जिसे
कुचल दिया फेंक दिया
आत्मा के तलघर में
जाने किस शाप से डर
या संताप से
मुग्धकारी रूप वह
तुम्हारा
अनिन्द्य सम्वेदना
से आलोकित
तुम्हारी
सच्ची सरलता की
सम्मोहक आभा में डूबकर मैंने
देखा तुम्हें
तुम्हारेपन में
पहली बार
डूबी हूँ आज भी
अनझिप आँखों से देख
रही हूँ
रूप वह तुम्हारा
उत्साहित उस क्षण में
गुजर गए कितने
दिन.....कितनी रातें
पर जी रही हूँ अब भी
उसी चुम्बकीय क्षण को
दृश्य वही आँखों में
खुभा है अभी भी
अब
इतिहास हो चुका है
किन्तु
अविस्मृत क्षण वह
क्या
याद है तुझे भी ?
क्या चाहोगे तैरना
आनंद के अंतरिक्ष में
प्रिय सखा
सच –सच बतलाना वह
क्षण क्या खींचता है
तुमको भी
क्या बचा है अनभूला
अभी भी
स्मृति में ..आत्मा
में ?
सच –सच बतलाना
क्या चाहोगे लौटना
उस
क्षण के उजाले में
चाहोगे पछीटना आत्मा
की मैल को
सच –सच बतलाना प्रिय
मेरे सखा |
जबकि
तुम
जबकि
तुम
चले
गए हो कब के बिखेर कर
जिंदगी
के कैनवस पर ताजा रंग
घर
में तुम्हारी गंध
फैली
है अभी भी
बन
ही जाती है चाय की दो प्यालियाँ
तुम्हें
टटोलने लगते हैं हाथ
नींद
में
अभी
भी
जबकि
चले गए हो तुम
कब
के
सपनों
से डरी मैं तलाशती हूँ
तुम्हारा
वक्ष
तपते
माथे पर
इंतजार
रहता है
तुम्हारे
स्पर्श का जबकि तुम
चले
गए हो
कब
के
अब
जब कि तुम चले गए हो
नहीं
टपकती तुम्हारी बातें
पके
फल की तरह
नहीं
आते खाने पंछी छत पर
चावल
की खुद्दी नहीं बिखेरी जाती
झुक
गए हैं फूलों के चेहरे
झर
गया है पत्तियों से संगीत
नहीं
उतरती
अब
कोई साँवली साँझ
आंगन
की मुंडेर पर |
शापित
एक
थे हम
आजाद
सुखी
पूर्ण
विचरण
करते
प्रकृति
के बीच
दो
करके
भेज
दिए गए
धरती
पर
पराधीन
दुखी
अपूर्ण
होकर
तड़पने लगे
जब
भी हमने देखा
एक-दूसरे
को
एक
हो जाना चाहा
शैतान
आ खड़ा हुआ
हमारे
बीच
फिर
भी कम नहीं हुईं
हमारी
मिलने की कोशिशें
अनेक
नाम
अनेक
युग
देशकाल
मगर
रहे हम वही के वही
शापित
दो
बने रहने के लिए
जाने
कितनी बाधाएं
विमर्श
मौजूद हैं
आज
भी
हम
दोनों के बीच
कम
नहीं हुई मगर चाहतें
आएगा
एक दिन
जब
हम फिर होंगे एक
आजाद
सुखी
पूर्ण
पहले
की तरह
विचरण
करते
प्रकृति
के बीच |
तुम्हारे साथ
मैं होना चाहती हूँ
तुम्हारे साथ
जैसे नीम जंगल रास्तों में जुगनूँ
रेत की दुनिया में होते हैं
जलद्विप
गुलमोहर
मैं होना चाहती हूँ तुम्हारे साथ
जैसे सृजन में होती है पीड़ा
सिक्कों में होती है खनक
और संवाद में होती है सभ्यता
संस्कृतियों की कोख में
घृणा के बीज-सा
नहीं होना चाहती मैं
तुम्हारे साथ
तुम अपने समय की शहतीरों पर
जैसे नीम जंगल रास्तों में जुगनूँ
रेत की दुनिया में होते हैं
जलद्विप
गुलमोहर
मैं होना चाहती हूँ तुम्हारे साथ
जैसे सृजन में होती है पीड़ा
सिक्कों में होती है खनक
और संवाद में होती है सभ्यता
संस्कृतियों की कोख में
घृणा के बीज-सा
नहीं होना चाहती मैं
तुम्हारे साथ
तुम अपने समय की शहतीरों पर
टांकते रहो सितारे
या अपनी गुलेलों से
या अपनी गुलेलों से
छेंदते रहो आसमान
खोद सको एक नदी
काट सको पहाड़ कोई
भले ही मेरे वगैर
मैं होना चाहती हूँ
तुम्हारे लिए जैसे
शीत के लिए होती है आंच
जीत के लिए होता है नशा
जैसे धरती के लिए हुआ था
कोई कोलंबस
मैं नहीं होना चाहती
गुलेल-सी करुण
तुम्हारी चोट खाई मांसपेशियों के लिए
तुम मेरे बिना
मुझसे दूर भी रह सकते हो
अडिग
अपने बनाये रस्ते पर खा सकते हो ठोकरें
जी सकते हो दुःख
मैं होना चाहती हूँ तुम्हारे बिलकुल साथ
जैसे समय से घिर जाने पर
साथ होती हैं स्मृतियाँ
मस्तियों में होती है थिरक
होती है थाप
बुखार में बिलकुल सिरहाने होती है माँ
तुम्हारी कमजोरी को
अपनी सभ्यता का सबसे बड़ा मूल्य
बताने वाले बलिष्ठ स्वर सा
नहीं होना चाहती मैं तुम्हारे साथ |
खोद सको एक नदी
काट सको पहाड़ कोई
भले ही मेरे वगैर
मैं होना चाहती हूँ
तुम्हारे लिए जैसे
शीत के लिए होती है आंच
जीत के लिए होता है नशा
जैसे धरती के लिए हुआ था
कोई कोलंबस
मैं नहीं होना चाहती
गुलेल-सी करुण
तुम्हारी चोट खाई मांसपेशियों के लिए
तुम मेरे बिना
मुझसे दूर भी रह सकते हो
अडिग
अपने बनाये रस्ते पर खा सकते हो ठोकरें
जी सकते हो दुःख
मैं होना चाहती हूँ तुम्हारे बिलकुल साथ
जैसे समय से घिर जाने पर
साथ होती हैं स्मृतियाँ
मस्तियों में होती है थिरक
होती है थाप
बुखार में बिलकुल सिरहाने होती है माँ
तुम्हारी कमजोरी को
अपनी सभ्यता का सबसे बड़ा मूल्य
बताने वाले बलिष्ठ स्वर सा
नहीं होना चाहती मैं तुम्हारे साथ |
बार बार आँखों में
तिर आता है तुम्हारा चेहरा
हालाँकि समझा चुके हो तुम
दिल नहीं दिमाग से करना चहिये प्रेम
कि जिस समय कर रहे हों प्रेम
बस उतनी ही देर के लिए
ठीक होता है सोचना
प्रेम के बारे में
जैसे खाने के समय खाना
सोने के समय सोना ठीक होता है
हर वक्त प्रेम में होना अच्छा नहीं
न वर्तमान के लिए
न भविष्य के लिए
सच है तुम्हारा कहना भी
तेज रफ्तार में
निरंतर भागता आदमी
कर भी कैसे सकता है
इत्मीनान से प्रेम?
सच यह भी है कि
सारी बेइत्मीनानी के बावजूद
याद आता है मुझे
प्रेम के इत्मीनान में डूबा
तुम्हारा वही चेहरा |
सोचा है कभी
लगातार सूर्य के चक्कर काटती
धरती सोचा है कभी
सीलन भरे अँधेरे में गुमनाम
तुम्हें धरता है कोई प्रेम से
हजारो -हजार सिर-माथे पर
ढोता है तुम्हारी ममता का अतिरिक्त भार
निमिष मात्र की जिसकी विचलन
खतरा है तुम्हारे अस्तित्व के लिए
उसके स्पर्शों की सुरक्षा में हरी -भरी रहती हो तुम
फिर भी नहीं समझती उसका दुःख
सोचो धरती
किसका प्रेम है सच्चा
तुम्हारा या शेषनाग का !
प्रेम की यह कैसी
भर्तृहरि नियति है
कि जिसे चाहो
वही चाहता मिलता है
किसी और को |
शायद इसीलिए
मेरी हथेली पर
तुम्हारा नाम
लिखा रहता है
शायद इसीलिए
एकांत मिलते ही
खुद–ब-खुद
हथेलियाँ ढँक लेती
हैं
आँखों को
और आँखों एवं
हथेलियों के बीच
तुम्हारा चेहरा उभर
आता है |
तुम समुद्र थे
अपने प्रेम के बारे
में
ज्यों ही कहा मैंने
तुम मुस्कुराए
तनिक भी आश्चर्य
नहीं हुआ तुम्हें
ना अभिमान,ना संकोच
ना गुस्सा,ना
अपमान-बोध
कुछ भी नहीं
जबकि तुम समुद्र थे
मैं एक छोटी नदी
अब मैं चकित थी
संकोच से धरती
निहारती
तुमने कहा –‘मैं सब
जानता हूँ सब’
“सब” जानकर भी तुम स्थिर
थे, और मैं आतुर
तुमने कहा-मोड़ दो इस
प्रेम को
लेखन की तरफ
मैं उसी में मिलूंगा
तुम्हें
अब निरंतर बह रही है
एक नदी
समुद्र को समेटे
अपने भीतर |
कितना
कुछ
कितना कुछ रह गया
तुम्हारा मेरे पास
सारा का सारा ही शायद
जबकि खड़े हो तुम दूर
अलग व्यक्तित्व बने
अजनबी निर्लिप्त
क्या कुछ भी शेष नहीं रहा
मेरा तुम्हारे पास?
मैं तो इतना रह गयी हूँ तुम्हारे पास
कि
जरा भी नहीं बची हूँ
खुद के लिए|
फिर से
पुरानी किताब के
पियराये पन्नों में
आज
मिले हैं कुछ
सूर्ख गुलाब
हरे हो गए
अधूरे ख्वाब
फिर से|
आज भी
उन विहसित आँखों से
आज भी छनकर आती हैं
कुछ दिव्य किरणें
और बंद हृदय के पट बेंध
कर देती हैं विकसित
अनगिनत अलौकिक पुष्प
मेरा पूरा अस्तित्व
भर उठता है सुगंध से
मेरे अधर गुनगुनाते हैं
वही आदिम गीत
और मेरा चेहरा
किताबी हो उठता है |
पका रिश्ता
आज भी छनकर आती हैं
कुछ दिव्य किरणें
और बंद हृदय के पट बेंध
कर देती हैं विकसित
अनगिनत अलौकिक पुष्प
मेरा पूरा अस्तित्व
भर उठता है सुगंध से
मेरे अधर गुनगुनाते हैं
वही आदिम गीत
और मेरा चेहरा
किताबी हो उठता है |
पका रिश्ता
कच्ची मिटटी था
गढ़ा पकाया
समर्पण और विश्वास की आंच पर
रिश्ता
पका हुआ
सौप दिया तुम्हें
अब कहते हो तुम कि
पकी फसल की तरह होता है
पका रिश्ता |
कच्चा घड़ा
घड़ा
कच्चा था
उतरी थी
जिसके सहारे
दरिया में
डूबना
ही
था |
आकाश और
नदी
एक आकाश था
एक नदी थी
मिलना मुश्किल था
हालाँकि
पूरा का पूरा आकाश
नदी में था |
कोई
रास्ता
खो गये हम
भूल-भुलैयामें
मैं ढूँढती रही तुम्हें
कि शायद ढूँढ़ रहे होगे तुम भी
कोई रास्ता
मुझ तक पहुँचने का |
क्रांति
है प्रेम
कैसे इतना
उलट -पलट जाता है सब कुछ
प्रेम में
प्रेम करके जाना
कि प्रेम एक क्रांति है
एक आश्चर्य
विलीन हो जाता है अहंकार
अनछुए अर्थ
खुद हम हो उठते हैं इतने नए कि
मुश्किल हो जाये पहचान
अपनी ही
कैसे तमाम बड़ी -बड़ी बातें भी
बेमानी लगने लगती हैं
रूमानी बातों के आगे
यह जान सकता है
कोई
प्रेम करके ही| लैयामें
मैं ढूँढती रही तुम्हें
कि शायद ढूँढ़ रहे होगे तुम भी
कोई रास्ता
मुझ तक पहुँचने का |
क्रांति
है प्रेम
कैसे इतना
उलट -पलट जाता है सब कुछ
प्रेम में
प्रेम करके जाना
कि प्रेम एक क्रांति है
एक आश्चर्य
विलीन हो जाता है अहंकार
अनछुए अर्थ
खुद हम हो उठते हैं इतने नए कि
मुश्किल हो जाये पहचान
अपनी ही
कैसे तमाम बड़ी -बड़ी बातें भी
बेमानी लगने लगती हैं
रूमानी बातों के आगे
यह जान सकता है
कोई
प्रेम करके ही|
तुम्हारा
प्यार ...
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