ओ
बड़ों
जिस
भी नाम से लड़ों तुम
वर्ण
-जाति
धर्म-संस्कृति
बख्श
दो हमेँ
और
हमारी माओं को
अपनी
कुत्सित मानसिकता
मत थोपो हम पर
कुछ
लेना देना नहीं हमें
राजनीति
देश-क्षेत्र
प्रतिशोध
से
हम
पढना चाहते हैं
खेलना
चाहते हैं
जीना
चाहते हैं अपना बचपन
तुम्हारे
किस धर्म मेँ लिखा है
बच्चों
को मारो
औरतों
को सताओ
फिर
क्यों शिकार होते आएँ हैं
हम
और हमारी माएँ
हर
दंगे हर युद्ध मेँ
हम
दोनों से ही है
यह
दुनिया सुंदर
ओ
कैसी जन्नत होगी
जिसमें
ना होंगे हम
तुम
लोगों ने भी जन्म लिया
किसी
औरत की कोख से
बच्चे
रहे तुम भी कभी
सीधे
बड़े ही तो पैदा नहीं हुए
फिर
क्यों नहीं समझ पाते हमें
हम
वे फूल हैं
जो
गुलशन मंहकाते हैं
नहीं
बिगाड़ते किसी का कुछ
फिर
क्यों शत्रु बने हो हमारे
क्या
चाहते हो ऐसी दुनिया
जिसमें
ना हों बच्चे
ना
हों औरतें
तो
संभव है क्या ऐसी किसी दुनिया का अस्तित्व
अपने-अपने
खुदाओं से पूछ लो
उसमें
भी नहीं सामर्थ्य
की
गढ़ सके ऐसी दुनिया
तुम्हारे
पास बुद्धि है
तरकीबें
हैं
आयडियाज़
हैं नए-नए
क्यों
नहीं इस्तेमाल करते
दुनिया
को शांत और खुशहाल बनाने मेँ
तुम्हें
भी चाहिए बच्चे
तुम्हें
भी चाहिए औरत
जबरन
हासिल करते हो जिन्हें
सोचो
किस अनजाने अनचाहे डर मेँ जीते हैं वे
तुम्हारे
अपने बच्चे भी बंदूकों के साए मेँ पलते हैं
अपने
–पराएँ का पाठ पढ़ते हैं
तुम
अपने प्रतिशोध का सच
ठूँसते
हो उनके नन्हें दिमागों मेँ
कैसा
भविष्य गढ़ेंगे तुम्हारे बच्चे
बाज
आओ बाज आओ
ओ
बड़ों
बचा
लो इस दुनिया को
जहन्नुम
बनने से |
"
ReplyDeleteमन को गहरे से स्पर्श करते शब्द, मानवीय पक्षों को उजागर करती आपकी रचना, बहुत हृदय दुखता है, जब मानवता के शत्रु ऐसी जघन्य वारदात करते हैं, बहुत शुभकामनायें आपको प्रदान करता हूँ। "