हजारों वर्षों से साहित्य–संस्कृति और
जीवन में प्रेम की बातें की जा रही है ,पर प्रेम चिर नवीन बना हुआ है अपरिभाषित है
शास्त्र और सिद्धांत उसकी व्याख्या नहीं कर पाए क्योंकि प्रेम का न कोई शास्त्र हो
सकता है,न परिभाषा और न कोई सिद्धांत | प्रेम को जानना ,प्रेम में होना ,प्रेम में
जीना तो आसान है |पर प्रेम क्या है यह कहना आसान नहीं है |भला गूंगा मिठाई का
स्वाद कैसे बताएगा ?बस इतना ही कहा जा सकता है कि संसार में जो भी सबसे सुंदर,सत्य
और उत्तम है वही प्रेम है | हर इन्सान के लिए प्रेम का रूप अलग है ,अनुभव का स्तर
भी |कोई देह स्तर पर प्रेम को पाकर संतुष्ट हो जाता है तो कोई मन की गहराई तक
उतरता है|थोड़े से वे लोग भी होते हैं जो तन-मन से भी गहरे उतर कर आत्मा तक जा
पहुँचते हैं और वे ही प्रेम की पूर्णता का अनुभव प्राप्त कर पाते हैं | संसार में
जिन प्रेमियों के नाम अमर हैं उन्होंने प्रेम के आत्मिक स्वरूप का आनंद लिया था
तभी तो दुनियावी चीजों का उनके लिए कोई महत्व नहीं रहा |वे खुशी-खुशी अपना सब कुछ
न्योछावर करके शून्य हो गए |जानते थे कि शून्य होकर ही वे प्रेम की पराकाष्टा तक
पहुँच सकते हैं | शून्य से ही प्रेम का जन्म होता है क्योंकि एक शून्य ही दूसरे
शून्य से मिल सकता है ,और कोई नहीं | आज जो संसार में प्रेम नहीं दीखता उसका कारण
यही है कि आदमी शून्य नहीं होना चाहता |एक होता भी है तो दूसरा नहीं होता |
मनुष्य के जीवन से प्रेम की समस्त
धाराएं अवरूद्ध कर दी गयी हैं |प्रेम की गंगा बह नहीं पा रही |यह प्रेम की गंगा हर
आदमी के भीतर है ,उसे कहीं से लाना नहीं है |कहीं खोजने नहीं जाना है |वह सुगंध की
तरह सभी के प्राणों में बसा है |पर उसके चारों तरफ परकोटा है जिससे वह प्रकट नहीं
हो पा रहा |पत्थरों की मजबूत दीवारे प्रेम के निर्झर को फूटने नहीं दे रहीं |मनुष्य
से ज्यादा प्रेम पशु-पक्षियों और पौधों में दिखाई पड़ता है क्योंकि उनमें सहजता है
,सरलता है ,अहंकार नहीं है | प्रकृति में जो बाधा दिखाई पड़ती है वह असल में वाधा
नहीं होती,बल्कि यह बाधा एक-दूसरे को आगे बढ़ने में सहयोग देती है | जबकि मनुष्य अहंकार
में दूसरों को बढ़ने नहीं देना चाहता
अहंकार प्रेम का शत्रु है क्योंकि वह
प्रेम को पागलपन समझता है बचपना मानता है |अहंकार पाकर भी आनंदित नहीं होता ,जबकि
प्रेम खोकर भी आनंदित होता है |आदमी जितना ही महत्वाकांक्षी होता है,उतना ही प्रेम
से दूर होता जाता है | आज के मनुष्य में अहंकार है जो लेने की भाषा समझता है जबकि
प्रेम देने की भाषा है |प्रेम में हम एक पेड़ की तरह हो जाते है,जिसमें कोई ‘मैं’
नहीं होता |आदमी का ’मैं’ दो लोगों को एक होने से रोकता है |‘जब मैं था तब हरि
नहीं ,अब हरि हैं मैं नाहि |प्रेम गली अति सांकरी जामें दो ना समाहि |’ अहंकार
हमेशा अपने से बड़ों को प्रेम करने की कोशिश करता है जबकि प्रेम में कोई छोटा-बड़ा
नहीं होता क्योंकि वह हो जाता है उसे सायास सोच-समझकर किया नहीं जाता |अहंकार कभी
झुकने को तैयार नहीं होता जबकि प्रेम झुकने को हमेशा तैयार रहता है |अहंकार हमेशा
पाना चाहता है जबकि प्रेम दे कर खुश होता है |प्रेम निष्प्रयोजन है |प्रेम किसी को
रोकता नहीं बंधन नहीं लगाता वह आजाद करता है |प्रेम जब खुद को बाँट देता है ,तभी
खुद को सार्थक समझता है |ऐसे प्रेम के पुष्प जिसके ऊपर भी बरसते हैं वह सम्राट हो
जाता है |प्रेम आत्मा की प्यास है |संसार में शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति हो ,जो
प्रेम नहीं चाहता |प्रेमहीन व्यक्ति कंगाल होता है चाहे सांसारिक धन-संपत्ति का
उसके पास अम्बार लगा हो |प्रेम में दो व्यक्तियों के बीच की सारी दीवालें गिर जाती
है और उनके प्राण एक हो जाते हैं |यही अनुभव जब व्यक्ति और प्रकृति या व्यक्ति का
समस्त प्राणी मात्र के प्रति घटित होता है ,तो ईश्वर की प्राप्ति होती है |प्रेम
ही वह सीढ़ी है जिससे ईश्वर तक की प्राप्ति होती है पर मनुष्य तमाम कर्मकांडों,धर्मानुष्ठानों
के माध्यम से उसे पाना चाहता |व्यकि से प्रेम पाने के लिए भी वैवाहिक अनुष्ठान
जरूरी माना जाता है ,पर यह दुनियावी माध्यम है ,जिसके माध्यम से अक्सर इच्छित
प्रेम नहीं मिलता है और जीवन भर साथ रहने के बाद भी मनुष्य अतृप्त रहता है |यह
अतृप्ति विभिन्न कला माध्यमों से अभिव्यक्ति पाती है |संसार में मनुष्य जो भी कर
रहा है उसके मूल में पूर्ण होने की चाह है और वह पूर्णता प्रेम पाकर ही हो सकती है
पर प्रेम तक पहुँचने का मार्ग अवरोधित है|सही रास्ता अख्तियार करके ही हम प्रेम तक
पहुँच सकते हैं |
यह संग्रह प्रेम-कविताओं पर आधारित है
|प्रेम के विविध रूप इसमें दिख सकते हैं |यहाँ प्रेम किसी एक व्यक्ति मात्र के
प्रति ही नहीं है बल्कि पूरी प्रकृति व मनुष्यता के प्रति है | मेरे विचार से प्रेम जीवन का रंग महोत्सव है |कोमल अनुभूतियों का समुच्चय
|स्त्री-पुरूष के बीच दुःख-सुख,संयोग-वियोग,राग-द्वेष,त्वरा-आवेग,उद्वेलन सब का
आवर्तन-प्रत्यावर्तन |एक खूबसूरत अहसास |प्रेम में स्त्री प्रकृति बन जाती
है|फूल,तितलियाँ,चांदनी,सागर,नदियां,झरने सभी तो शामिल हो जाते हैं उसके प्रेम
में,यहाँ तक कि सारी दुनिया भी |कितना अच्छा लगने लगता है जीवन..कम भी लगता
है|वक्त खलनायक की तरह हो जाता है,जो प्रेम में व्यवधान डालता है|मुझे बार-बार
लगता है कि प्रकृति और पुरूष सृष्टि के प्रारम्भ में अलग-अलग नहीं,एक रहे होंगे
|किसी कारण उनको दो भागो में बाँट दिया गया होगा |तभी तो दोनों एक-दूसरे के लिए
तड़पते हैं|अवसर मिलते ही पूर्व रूप में आने की कोशिश करते हैं |अनेकानेक
प्रेम-कहानियाँ प्रकृति व पुरूष के एकमेव होने की ही कहानियाँ हैं |कहाँ रोक पाती
हैं आसुरी शक्तियाँ दो दिलों को मिलने से ?असुर भी तो अक्सर प्रेम में पड़ जाते हैं
|बड़े से बड़ा अपराधी प्रेम के कारण विनाश को प्राप्त हुआ,क्योंकि प्रकृति ने उससे
प्रेम नहीं किया |प्रकृति तो सिर्फ पुरूष से प्रेम कर सकती है |उस पुरूष से,जिसमें
स्त्री-गुण समाहित है |पुरूष भी उसी स्त्री से प्यार करता है,जिसमें पुरूष समाहित
है |दोनों जब एक-दूसरे में खुद को पाते हैं,तभी उनमें आकर्षण के बीज अंकुरित होते
हैं |जहाँ भी ऐसा नहीं होता हैं,वहाँ प्रेम भी भ्रम साबित होता है|
प्रेम इंसान को
निकम्मा बना सकता है,बेइमान नहीं बना सकता|सच्चा प्रेम नैतिक बनाता है|सामजिक
सरोकार गहरे करता है|वाजिब चिंता की तरह प्रेम प्रेमी को सतर्क रखता है क्योंकि वह
अपने प्रेमी की आँखों से नहीं गिरना चाहता|प्रेम एक के बहाने सारी दुनिया से प्रेम
करना सिखाता है|सिर्फ एक के कारण सारी दुनिया सुहानी और प्यारी नजर आती है और
प्रेमी संसार को और प्यारा व बेहतर बनाने
का प्रयास करता है| पर जिसने प्रेम का स्वाद नहीं चखा,वह एक अदम्य-सी अतृप्ति से
बेचैन होकर दुनियावी चीजों में सुकून ढूंढता है |
अक्सर यह कहा जाता है स्वभावतः
परूष[कठोर]होने के कारण आज का पुरूष शिद्दत से प्रेम नहीं कर पाता है
|देह-मन-मस्तिष्क की अलग बुनावट के कारण भी उसके प्रेम की प्रकृति व अभिव्यक्ति
में अंतर है |उसका प्रेम देह-प्रधान है |साध्य नहीं साधन है |जीवन की अन्य जरूरतों
की तरह एक जरूरत|,स्व-समर्पण नहीं |प्रेम में सौंदर्य,नवीनता व रोमांच उसे पसंद
है,इसलिए उसके प्रेम में प्राय:गम्भीरता,स्थायित्व,एकनिष्ठता व त्याग का अभाव
दीखता है |एकाधिक प्रेम में उसे कोई नैतिक बाधा नहीं होती |आज का पुरूष जिस मशीनी
युग में जी रहा है,उसका प्रभाव उसके प्रेम पर भी दिख रहा है|उसके भीतर की
संवेदना,कोमलता का लोप होता जा रहा है |इसका परिणाम यह है कि अब वह प्रेम को जीता
नहीं,प्रेम का कोरा भ्रम पालता है|प्रेम के लिए यह संकट का समय है |प्रेम की कमी
से मनुष्यता खतरे में पड़ सकती है |
यद्यपि आज का पुरूष कल से ज्यादा प्रेम
का नाम ले रहा है,पर उसके प्रेम में देह पाने की लालसा ही प्रधान है |हद तो यह है
कि वह बाजार में भी प्रेम तलाशने लगा है |रोना-झींकना,शिकवा-शिकायत,मान-मनौवल व
वर्षों प्रेम के पीछे भागना न तो उसे पसंद है,ना ही उसके पास इन चीजों के लिए वक्त
है|करियर को बनाने-सवारने,फिर सँभालने में उसकी ऊर्जा व समय का बड़ा हिस्सा निकल
जाता है,ऐसे में वह ऐसा प्रेम चाहता है,जो उसे तनाव-मुक्त रखकर बुलंदी तक पहुँचने
में मदद करे |यही वजह है कि आज का पुरूष प्रेम को सीढ़ी की तरह इस्तेमाल
करने से बाज नहीं आता |यह दुखद है कि दो दिलों की अटूट पारस्परिक आत्मीयता एवं
आपसी समझ प्रेम का मूल स्वरूप नहीं रहा -
किताब की भूमिका से
"
ReplyDeleteप्रेम इंसान को निकम्मा बना सकता है,बेइमान नहीं बना सकता|सच्चा प्रेम नैतिक बनाता है|सामजिक सरोकार गहरे करता है|वाजिब चिंता की तरह प्रेम प्रेमी को सतर्क रखता है क्योंकि वह अपने प्रेमी की आँखों से नहीं गिरना चाहता|प्रेम एक के बहाने सारी दुनिया से प्रेम करना सिखाता है|सिर्फ एक के कारण सारी दुनिया सुहानी और प्यारी नजर आती है और प्रेमी संसार को और प्यारा व बेहतर बनाने का प्रयास करता है| पर जिसने प्रेम का स्वाद नहीं चखा,वह एक अदम्य-सी अतृप्ति से बेचैन होकर दुनियावी चीजों में सुकून ढूंढता है। "
सत्य ही कहा, ये पंक्तियाँ इसीलिए रेखांकित की हैं, क्यूंकि प्रेम-व्यक्ति को शोधित करता है, बहुत सुन्दर, सम्मानित कवयित्री रंजना जी। "