Friday 27 February 2015

क्या सभी गाँव


क्या सभी गाँव होते हैं
मेरे गाँव जैसे
जहाँ बच्चे
मोजरों के बीच छिपे
नन्हें हरे टिकोरों को
देखकर पहली बार
उछल पड़ते हैं खुशी से
रोज उन्हें निहारते हैं 
और उनकी धीमी बढ़त पर
झुंझलाते हैं
टमाटर के पौधों पर अचानक
निकल आते हैं रसीले टमाटर
लतरों के सहारे कहीं भी लटक आते हैं
नेनुआ सेम सरपुतिया लौकी
कनिया की तरह
घूँघट में शर्माती है मकई
बसंत में
जवान पत्तियों को इठलाते देख
कड़कड़ाती हैं बूढ़ी पत्तियाँ
और अधेड़ पत्तियाँ
मुस्कुराकर छुपा लेती हैं उन्हें
आँचल-तले
भिण्डी के फूलों के बीच
जादू की तरह निकल आता है
एक नुकीला फल
उल्टा लटक आता है
बच्चा भंटा
और छप्परों पर बढ़ते फलते
मुटियाते हैं
भटुए और कुम्हड़े  .



1 comment:

  1. आपकी रचना पढ़कर मैं अपने गाँव की कल्पना में डूब गया।
    सरल एवं अत्यंत रसपूर्ण l

    ReplyDelete