Tuesday 15 March 2016

उदास रंग

जब थे तुम 
तब बाहर के बसंत 
और भीतर के बसंत में 
कोई फर्क ही नहीं था 
होती रहती थी रंग वर्षा
हर पहर 
रंग बोलते थे 
बहुत कुछ कहते थे 
सुनते थे 
होते थे इतने गहरे 
कि 
रंग उठता था 
मन भी 
तन के साथ 
आत्मा मीरा बनकर 
गिरिधर के गीत गाती थी 
आज बाहर का बसंत 
पहले जैसा ही है 
पर भीतर के बसंत में
घुल-मिल गयी हैं 
हजार ऋतुएँ 
एक क्षण सुहाना होता है 
दूसरे क्षण छा जाती है 
एक अनाम उदासी 
आज कृत्रिम रंग हैं 
जो चिपकते हैं 
ना कुछ कहते हैं
ना सुनते हैं 
बस चमकते रहते हैं |
क्या ऋतु-संहार हो चुका है 
जीवन में 
न होने से तुम्हारे |


1 comment:

  1. अच्छी पंक्तियाँ, कविता अच्छी है

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