Saturday 1 October 2016

... मैं शायर तो नहीं फिर भी ...

बिन प्रेम का रिश्ता मैं निभा न पाई 
रिश्ते में प्रेम करना उसे भी तो नहीं आया |
देह से भला रिश्ता कहाँ से बनता
वह देहधारी था मगर विदेह था।
हम उस तक न पहुँच पाए
मेरे पैर बंधे थे 
वह आ सकता था मगर 
सिंहासन से न अपने उतरा ।
सब पूछते हैं हमसे
वो भी क्या प्यार करता है
कैसे बताएं सबको
वह मुझसे अलग नहीं है।
दो ही पंक्तियाँ थी
जिंदगी के शेर की
एक लोगों ने काट दी 
एक पर तेरा नाम लिख गया।
मेरा नाम भी नहीं तेरी जुबाँ पे आता
तेरे नाम के बिना हम सांस ले न पाते।
नदी के दो द्वीप से वैसे तो हम अलग
कोई तो धारा है जो भीतर से जोड़ती है।
देह के नमक की जरूरत नहीं पड़ी
आँखों में उनकी अम्बार था नमक का।
स्पर्श कहाँ भूलता है किसी के प्रेम का
नजरों की छुअन तक ताउम्र रहती है।
अहसास के सिवा जिंदगी कुछ नहीं
हम तो बस इसी धन से धनी हैं|
वे खुशनसीब हैं सबसे सब कुछ कह लेते हैं 
हम तो खुद से ही खुद को छिपाते रहे बरसों।

गुलाब की हँसी सब देखते हैं
नहीं देखते काँटों के बीच कैसे जीते हैं ।

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