Wednesday 8 February 2017

प्रेम और आज का पुरूष


प्रेम जीवन का रंग महोत्सव है |कोमल अनुभूतियों का समुच्चय |स्त्री-पुरूष के बीच दुःख-सुख,संयोग-वियोग,राग-द्वेष,त्वरा-आवेग,उद्वेलन सब का आवर्तन-प्रत्यावर्तन |पर स्वभावतः परूष[कठोर]आज का पुरूष स्त्री की तरह शिद्दत से प्रेम नहीं कर पा रहा है |देह-मन-मस्तिष्क की अलग बुनावट के कारण भी उसके प्रेम की प्रकृति व अभिव्यक्ति में अंतर है |उसका प्रेम देह-प्रधान है |साध्य नहीं साधन है |जीवन की अन्य जरूरतों की तरह एक जरूरत|,स्व-समर्पण नहीं |प्रेम में सौंदर्य,नवीनता व रोमांच उसे पसंद है,इसलिए उसके प्रेम में प्राय
गम्भीरता,स्थायित्व,एकनिष्ठता व त्याग का अभाव दीखता है |एकाधिक प्रेम में उसे कोई नैतिक बाधा नहीं |आज का पुरूष जिस मशीनी युग में जी रहा है,उसका प्रभाव उसके प्रेम पर भी दिख रहा है|उसके भीतर की संवेदना,कोमलता का लोप होता जा रहा है |इसका परिणाम यह है कि अब वह प्रेम को जीता नहीं,प्रेम का कोरा भ्रम पालता है|प्रेम के लिए यह संकट का समय है |प्रेम की कमी से मनुष्यता खतरे में पड़ सकती है |

यद्यपि आज का पुरूष कल से ज्यादा प्रेम का नाम ले रहा है,उसके प्रेम में देह पाने की लालसा ही प्रधान है |हद तो यह है कि वह बाजार में भी प्रेम तलाशने लगा है |रोना-झींकना,शिकवा-शिकायत,मान -मनौवल व वर्षों प्रेम के पीछे भागना न तो उसे पसंद है,ना ही उसके पास इन चींजों के लिए वक्त है|करियर को बनाने-संवारने,फिर सँभालने में उसकी ऊर्जा व समय का बड़ा हिस्सा निकल जाता है,ऐसे में वह ऐसा प्रेम चाहता है,जो उसे तनाव-मुक्त रखकर बुलंदी तक पहुँचने में मदद करे |यही वजह है कि आज का पुरूष प्रेम को सीढ़ी की तरह इस्तेमाल करने से बाज नहीं आता |यह दुखद है कि दो दिलों की अटूट पारस्परिक आत्मीयता एवं आपसी समझ प्रेम का मूल स्वरूप नहीं रहा |

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