ये कैसी मृग तृष्णा थी
ये कैसी मृगतृष्णा थी
प्रेम की
भागती रही उम्र भर
जिसके पीछे
जहाँ जल नहीं था
वहाँ जल देखती रही
अपात्र मे ढूंढती रही
पात्रता
छिछले हृदय में
तलाशती रही
मीठे पानी की नदी
तुला को सम रखने के लिए
अपने हिस्से का भी
रखती रही
दूसरी तरफ
वायु से भरे घड़े को चूमती रही
समझकर अमृतघट
तृष्णा मिट चली है अब
मिट चुका है भ्रम
पा लिया है प्रेम को
अपने ही भीतर
प्रेम की
भागती रही उम्र भर
जिसके पीछे
जहाँ जल नहीं था
वहाँ जल देखती रही
अपात्र मे ढूंढती रही
पात्रता
छिछले हृदय में
तलाशती रही
मीठे पानी की नदी
तुला को सम रखने के लिए
अपने हिस्से का भी
रखती रही
दूसरी तरफ
वायु से भरे घड़े को चूमती रही
समझकर अमृतघट
तृष्णा मिट चली है अब
मिट चुका है भ्रम
पा लिया है प्रेम को
अपने ही भीतर
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