Tuesday, 15 March 2016

मृगतृष्णा

ये कैसी मृग तृष्णा थी 
ये कैसी मृगतृष्णा थी 

प्रेम की 


भागती रही उम्र भर 


जिसके पीछे 


जहाँ जल नहीं था 


वहाँ जल देखती रही 


अपात्र मे ढूंढती रही 


पात्रता 


छिछले हृदय में


तलाशती रही 


मीठे पानी की नदी 


तुला को सम रखने के लिए 


अपने हिस्से का भी 


रखती रही 


दूसरी तरफ 


वायु से भरे घड़े को चूमती रही 


समझकर अमृतघट 


तृष्णा मिट चली है अब 


मिट चुका है भ्रम


पा लिया है प्रेम को 


अपने ही भीतर


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