जब थे तुम
तब बाहर के बसंत
और भीतर के बसंत में
कोई फर्क ही नहीं था
होती रहती थी रंग वर्षा
हर पहर
रंग बोलते थे
बहुत कुछ कहते थे
सुनते थे
होते थे इतने गहरे
कि
रंग उठता था
मन भी
तन के साथ
आत्मा मीरा बनकर
गिरिधर के गीत गाती थी
आज बाहर का बसंत
पहले जैसा ही है
पर भीतर के बसंत में
घुल-मिल गयी हैं
हजार ऋतुएँ
एक क्षण सुहाना होता है
दूसरे क्षण छा जाती है
एक अनाम उदासी
आज कृत्रिम रंग हैं
जो चिपकते हैं
ना कुछ कहते हैं
ना सुनते हैं
बस चमकते रहते हैं |
क्या ऋतु-संहार हो चुका है
जीवन में
न होने से तुम्हारे |
तब बाहर के बसंत
और भीतर के बसंत में
कोई फर्क ही नहीं था
होती रहती थी रंग वर्षा
हर पहर
रंग बोलते थे
बहुत कुछ कहते थे
सुनते थे
होते थे इतने गहरे
कि
रंग उठता था
मन भी
तन के साथ
आत्मा मीरा बनकर
गिरिधर के गीत गाती थी
आज बाहर का बसंत
पहले जैसा ही है
पर भीतर के बसंत में
घुल-मिल गयी हैं
हजार ऋतुएँ
एक क्षण सुहाना होता है
दूसरे क्षण छा जाती है
एक अनाम उदासी
आज कृत्रिम रंग हैं
जो चिपकते हैं
ना कुछ कहते हैं
ना सुनते हैं
बस चमकते रहते हैं |
क्या ऋतु-संहार हो चुका है
जीवन में
न होने से तुम्हारे |
अच्छी पंक्तियाँ, कविता अच्छी है
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