Thursday 17 May 2012

सुहागिन सरसों



कितनी सुंदर लग रही है
हरी साड़ी पर
पीली चूनर ओढ़े 
नववधू सरसों
सजीले दूल्हे गेहूँ के साथ
हवा शरारती सखी सी
बार –बार मिला देती है उन्हें
खिल-खिल हँसती है सरसों
झरते हैं पीले फूल
सूरज –चाँद
जुगनू –तारे
धरती आकाश
सभी दे रहे हैं आशीष
‘चिर सुहागिन रहो सरसों रानी ‘
मरेगी भी सुहागिन ही सरसों
उसके जाते ही सूख कर कड़ा होने लगेगा
गेहूँ का हरा मन
खनखनाने लगेगा उसका दुःख
जल्द ही जा लेटेगा खलिहान में
मृत्यु पीटेगी उसे
तो झरेगा उसका दुःख
दानों की शक्ल में
आएगी याद उसे प्रियतमा सरसों
जो नहीं सह पाती थी
उसके कच्चे दानों में चोंच मारना
पक्षियों का
ज़ार-ज़ार रोयेगा वह
उसके उच्छ्वास छा जायेंगे
भूसे की शक्ल में उड़कर चतुर्दिक
उधर निर्जीव सरसों मली जा रही होगी
किसी कुँवारी देह में
सुहागिन बनाने के लिए .  




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