समुद्र के गर्भ से
निकल रहा है शिशु सूर्य
आकाश ख़ुशी से लाल है
नवजात शिशु को गोद में उठाते
मंदिरों में बज रही हैं घंटियाँ
गूंज रही है शंख ध्वनि
मंगल बेला है
तट पर दर्शनार्थियों की भीड़ है
कसक रहा है समुद्र का माँ-मन
कोमल शिशु को शीतल आँचल से अलग कर
तपने के लिए जीवनाकाश में भेजते
उछालें ले रहा है वह
प्रकृति के इस नियम के खिलाफ
टकटकी लगाये पूरे दिन
देखता रहता है वह सूर्य को
शिशु से बालक बनकर मुस्कुराते
किशोर से युवा बनकर तपते
उफनती रहती है उसकी ममता
होता रहता है आँसुओं से जल खारा
होती है शाम
प्रौढ़ से बूढ़ा हुआ
जला-तपा
थका-हारा सूरज
उतरने लगता है उसके गर्भ में
आकाश रो-रोकर लाल होता है
समुद्र ख़ुशी से
मंदिरों में फिर बजती हैं घंटियाँ
गूंजती है शंख-ध्वनि
होती है मंगल-बेला
तट पर दर्शनार्थियों की भीड़
ढंक जाता है सूर्य
माँ के शीतल आंचल से
शांत हो जाता है समुद्र
जैसे सो जाती है सुकून से माँ
शिशु को सीने से लगाकर|
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