मेरे भीतर एक पुरूष रहता है एक स्त्री के साथ
दोनों में से तकलीफ किसी को पहुँचे
तड़पती हूँ मैं ही
पुरूष हँसता रहता है अक्सर स्त्री रोती रहती है
अक्सर ही उनमें छिड़ा रहता है विवाद
जब -जब कहा जाता है पुरूष -विरोधी मुझे
ठठाकर हँसता है मेरे भीतर का पुरूष
चिढाता हुआ स्त्री को कि क्या सच !
तिलमिलाकर रह जाती है स्त्री मेरे भीतर की |
स्त्री के रोने की कई वजहें हैं जो पुरूष के लिए
कभी भी खास नहीं होतीं
मसलन स्त्री को अपने ही नहीं
दूसरी स्त्रियों के दुःख भी सालते हैं
विशेषकर तब ,जब मिलें हों किसी पुरूष से
तब वह चिल्लाती है इतना कि बेदम होकर हांफने लगती है
अक्सर बीमार हो जाती है तब पुरूष ही संभालता है उसे
वह रोने लगती है फिर कि दुःख की वजह और इलाज
दोनों ही क्यों है पुरूष ?
कभी -कभी उसे अपनी इस कमजोरी पर होती है कोफ़्त
कि हर हाल में क्यों चाहती है पुरूष का प्यार ?
जबकि जब नाराज होता है पुरूष
तो होता है नाराज ही तुरत ही कर लेता है अलग खुद को
तब असहनीय दर्द से छटपटाती है स्त्री
भले ही जताने की कोशिश करे कि कोई फर्क नहीं पड़ता
उसे भी
पर बड़ा खोखला साबित होता है उसका विश्वास
उसे हर पल पुरूष की याद आती है
वह रोने लगती है फिर
दिन ...महीने ...वर्ष लग जाते हैं उसे
खुद पर काबू पाने में ..|
जब मेरे भीतर का पुरूष स्त्री के साथ प्रेम से रहता है
प्रेम में पड़ जाती हूँ मैं
बदल जाती है मेरी आवाज ..रूप -रंग ...दिनचर्या
सुंदर ,कोमल ,मधुर हो जाता है मेरा व्यक्तित्व
जन्म लेती हैं प्रेम -कविताएँ
मनुष्य हो जाती हूँ सही मायने में
पर जब रंग दिखलाता है वह
तकलीफ देने लगता है मेरी स्त्री को
बदल जाती हूँ मैं
करने लगती हूँ विमर्श की बातें
असफल हो जाता है मेरा प्रेम भी
तब सोचती हूँ -कब आया होगा यह पुरूष मेरे भीतर
शायद तभी जब मैं माँ के गर्भ में थी
माँ की पुत्र -कामना ने ही बोया होगा इसका बीज मेरे भीतर
तो मार क्यों न डालूँ इस पुरूष को
सोचते हुए मार भी देती हूँ अक्सर उसे
पर वह फिर -फिर जिन्दा हो जाता है
पता चलता है तब
जब फिर प्रेम हो जाता है मुझे
मेरे भीतर एक पुरूष रहता है एक स्त्री के साथ
इनके प्रेम -घृणा मान -अपमान
और विमर्शों के बीच झूलती मैं
अक्सर सोचती हूँ -किससे मुक्त होना है मुझे
स्त्री से या पुरूष से
क्या किसी एक के भी बिना
बच पाएगा मेरा अस्तित्व
बन पाएगा पूर्ण व्यक्तित्व |
दोनों में से तकलीफ किसी को पहुँचे
तड़पती हूँ मैं ही
पुरूष हँसता रहता है अक्सर स्त्री रोती रहती है
अक्सर ही उनमें छिड़ा रहता है विवाद
जब -जब कहा जाता है पुरूष -विरोधी मुझे
ठठाकर हँसता है मेरे भीतर का पुरूष
चिढाता हुआ स्त्री को कि क्या सच !
तिलमिलाकर रह जाती है स्त्री मेरे भीतर की |
स्त्री के रोने की कई वजहें हैं जो पुरूष के लिए
कभी भी खास नहीं होतीं
मसलन स्त्री को अपने ही नहीं
दूसरी स्त्रियों के दुःख भी सालते हैं
विशेषकर तब ,जब मिलें हों किसी पुरूष से
तब वह चिल्लाती है इतना कि बेदम होकर हांफने लगती है
अक्सर बीमार हो जाती है तब पुरूष ही संभालता है उसे
वह रोने लगती है फिर कि दुःख की वजह और इलाज
दोनों ही क्यों है पुरूष ?
कभी -कभी उसे अपनी इस कमजोरी पर होती है कोफ़्त
कि हर हाल में क्यों चाहती है पुरूष का प्यार ?
जबकि जब नाराज होता है पुरूष
तो होता है नाराज ही तुरत ही कर लेता है अलग खुद को
तब असहनीय दर्द से छटपटाती है स्त्री
भले ही जताने की कोशिश करे कि कोई फर्क नहीं पड़ता
उसे भी
पर बड़ा खोखला साबित होता है उसका विश्वास
उसे हर पल पुरूष की याद आती है
वह रोने लगती है फिर
दिन ...महीने ...वर्ष लग जाते हैं उसे
खुद पर काबू पाने में ..|
जब मेरे भीतर का पुरूष स्त्री के साथ प्रेम से रहता है
प्रेम में पड़ जाती हूँ मैं
बदल जाती है मेरी आवाज ..रूप -रंग ...दिनचर्या
सुंदर ,कोमल ,मधुर हो जाता है मेरा व्यक्तित्व
जन्म लेती हैं प्रेम -कविताएँ
मनुष्य हो जाती हूँ सही मायने में
पर जब रंग दिखलाता है वह
तकलीफ देने लगता है मेरी स्त्री को
बदल जाती हूँ मैं
करने लगती हूँ विमर्श की बातें
असफल हो जाता है मेरा प्रेम भी
तब सोचती हूँ -कब आया होगा यह पुरूष मेरे भीतर
शायद तभी जब मैं माँ के गर्भ में थी
माँ की पुत्र -कामना ने ही बोया होगा इसका बीज मेरे भीतर
तो मार क्यों न डालूँ इस पुरूष को
सोचते हुए मार भी देती हूँ अक्सर उसे
पर वह फिर -फिर जिन्दा हो जाता है
पता चलता है तब
जब फिर प्रेम हो जाता है मुझे
मेरे भीतर एक पुरूष रहता है एक स्त्री के साथ
इनके प्रेम -घृणा मान -अपमान
और विमर्शों के बीच झूलती मैं
अक्सर सोचती हूँ -किससे मुक्त होना है मुझे
स्त्री से या पुरूष से
क्या किसी एक के भी बिना
बच पाएगा मेरा अस्तित्व
बन पाएगा पूर्ण व्यक्तित्व |
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