Sunday 2 October 2011

अजनबी स्त्री

जब भी देखती हूँ दर्पण 
चौंक जाती हूँ 
कौन है यह स्त्री ?
मैं खुद को नहीं पहचानती 
जीवन में किया जो भी काम 
जैसे मैंने नहीं किया 
किया उसी अजनबी स्त्री ने 
जब-जब मिली बधाइयाँ 
या धिक्कार 
मैं ताकती रह गयी 
लोगों का मुँह 
'क्या यह मैंने किया ?'
जब भी सोचा ज्यादा इस बारे में 
हो गयी बीमार 
इसलिए बस उसी पल को जीती हूँ 
करती हूँ वही काम 
जो होता है सामने और जरूरी 
भविष्य के बारे में नहीं करती प्लान 
लोग जब कहते हैं- छोटी उम्र में मैंने
किया है बहुत-सा काम 
बड़ी डिग्री 
कई किताबें 
इतना नाम 
रूप-रंग ,व्यक्तित्व 
क्या नहीं है मेरे पास! 
मैं सोचने लगती हूँ -क्या ये कर रहे हैं 
मेरे ही बारे में बात ?
वह कौन स्त्री है ,जो इतनी आकर्षक है 
जिसने किया है इतनी सारा काम!
मैं तो हो नहीं सकती 
क्या वह रहती है मेरे ही भीतर 
जिसे लोग जानते-पहचानते हैं 
मैं नहीं जानती 
कुछ मुझे बोल्ड कहते हैं 
जो मैं नहीं हूँ 
कुछ सफल कहते हैं 
जो महसूस नहीं किया कभी 
बेटी ,बहन ,प्रेयसी ,पत्नी 
यहाँ तक कि माँ भी कहकर 
पुकार लेता है कभी-कभी कोई 
मैं परेशान हो जाती हूँ 
क्या ये पूर्व जन्म के रिश्ते हैं 
जिनके प्रेत लगे हुए हैं मेरे पीछे 
जीने नहीं देते नार्मल जिंदगी मुझे 
एक जन्म में कितनी बार जन्मी हूँ मैं 
कितने रिश्तों को जीया है 
जब भी गिनती हूँ 
घबरा जाती हूँ 
कि क्या ये मैं हूँ ?
मेरी बेचैनी का सबब यह भी है कि 
मुझपर जितने जीवन जीने का आरोप है 
उसे जीया है दूसरी स्त्रियों ने 
मैंने तो जब भी अपने बारे में सोचा है 
आ खड़ी हुई है सामने 
एक भोली ,मासूम ,निर्दोष बच्ची 
जो चाहती है प्यार 
वह ना तो बड़े काम कर सकती है 
ना गलत 
इसलिए दर्पण में खड़ी स्त्री को देखकर
विश्वास नहीं होता कि ये मैं हूँ 
 मेरी कविताओं में जो स्त्रियाँ हैं 
उन्हें भी तो जीती हूँ मैं 
तो क्या सभी स्त्रियाँ मैं ही हूँ 
लोग दावा करते हैं मेरे बारे में 
मैं भी कर सकती हूँ यह
उनके बारे में 
पर नहीं कह सकती 
दावे के साथ कि 
कि मैं ..मैं ही हूँ 
क्या ये कोई मनोरोग है 
माँ कहती है -तुम्हारा दिमाग 
बचपन से ही कमजोर है |

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