कैसे बताऊँ
कैसा लगता है
आपके बिना यह शहर
नामी दादा सियासी पार्टियों के नेता
हिंदी उर्दू के अदीब
गोष्ठियां बहस-बाजियां चिंताएं देश-दुनिया की
सब हैं
सिर्फ आप नहीं हैं
आप नहीं हैं अब
सिर्फ गोष्ठियां बहसबाजियाँ हैं
भटकती हुई अज्ञानता के अँधेरे में दिग्विहीन
जहाँ सिर्फ बचा है शब्दों का शोर
भाषा का अजीर्ण
सुनाओ न कुछ
क्या लिख रही हो आजकल ?
कोई नहीं पूछता अब
कैसी हो
कविता सुनकर पीठ ठोंकने वाला
अब कोई नहीं रहा
कविता की हमारी इस छोटी सी दुनिया में
करीने से सजी वस्तुओं के इस शहर में
संवेदना भी एक जिंस है
खरीद-फरोख्त के लिए सरे बाजार
दुःख को सहनीय बनाने की
तकनीकों का जानकार हो गया है
तुम्हारा यह शहर
तुम जो आए थे काशी से
गोरखपुर
तुम कबीर थे हमारे लिए
साफगोई ,दयालुता और थाम लेने को तत्पर
तुम्हारे दोस्ताना हाथ
अड़े हैं आँखों में अब भी
कौन भूल सकता है
'आओ प्यारे'का तुम्हारा मुखोच्चार
पान की गिलौरियाँ कौन भूल सकता है
गिलौरियों में घुली तुम्हारी आत्मा के
गेह में कितनी जगह थी
हम सबके लिए
रोशनियों की बाढ़ से उबा यह शहर
डूब रहा है
अपने-अपने अंधेरों के
निविड़ एकांत में
डरता है आदमी से आदमी
अदीब से अदीब
दोस्त से दोस्त
बाँटने में अपना दुःख
अपनी भावनाएँ
खंडित अस्तित्व हैं हम सब आत्मविभाजित
टुकड़ों में
अब कोई पुल नहीं रहा इस शहर में
समाप्त होते जा रहे हैं संवाद सेतु
मेरे बुजुर्ग दोस्त
तुम्हारी वैचारिकी
उम्मीदों को हर हाल में
बचे रखने की
तुम्हारी अडिगता
बची हुई है
अब भी तुम्हारी स्मृति की रोशनी में
हम सीख रहे हैं जीवन जीने की वैचारिकी
कभी भी खत्म नहीं होगे तुम
जैसे कि
खत्म नहीं होगी कभी उम्मीद |
कैसा लगता है
आपके बिना यह शहर
नामी दादा सियासी पार्टियों के नेता
हिंदी उर्दू के अदीब
गोष्ठियां बहस-बाजियां चिंताएं देश-दुनिया की
सब हैं
सिर्फ आप नहीं हैं
आप नहीं हैं अब
सिर्फ गोष्ठियां बहसबाजियाँ हैं
भटकती हुई अज्ञानता के अँधेरे में दिग्विहीन
जहाँ सिर्फ बचा है शब्दों का शोर
भाषा का अजीर्ण
सुनाओ न कुछ
क्या लिख रही हो आजकल ?
कोई नहीं पूछता अब
कैसी हो
कविता सुनकर पीठ ठोंकने वाला
अब कोई नहीं रहा
कविता की हमारी इस छोटी सी दुनिया में
करीने से सजी वस्तुओं के इस शहर में
संवेदना भी एक जिंस है
खरीद-फरोख्त के लिए सरे बाजार
दुःख को सहनीय बनाने की
तकनीकों का जानकार हो गया है
तुम्हारा यह शहर
तुम जो आए थे काशी से
गोरखपुर
तुम कबीर थे हमारे लिए
साफगोई ,दयालुता और थाम लेने को तत्पर
तुम्हारे दोस्ताना हाथ
अड़े हैं आँखों में अब भी
कौन भूल सकता है
'आओ प्यारे'का तुम्हारा मुखोच्चार
पान की गिलौरियाँ कौन भूल सकता है
गिलौरियों में घुली तुम्हारी आत्मा के
गेह में कितनी जगह थी
हम सबके लिए
रोशनियों की बाढ़ से उबा यह शहर
डूब रहा है
अपने-अपने अंधेरों के
निविड़ एकांत में
डरता है आदमी से आदमी
अदीब से अदीब
दोस्त से दोस्त
बाँटने में अपना दुःख
अपनी भावनाएँ
खंडित अस्तित्व हैं हम सब आत्मविभाजित
टुकड़ों में
अब कोई पुल नहीं रहा इस शहर में
समाप्त होते जा रहे हैं संवाद सेतु
मेरे बुजुर्ग दोस्त
तुम्हारी वैचारिकी
उम्मीदों को हर हाल में
बचे रखने की
तुम्हारी अडिगता
बची हुई है
अब भी तुम्हारी स्मृति की रोशनी में
हम सीख रहे हैं जीवन जीने की वैचारिकी
कभी भी खत्म नहीं होगे तुम
जैसे कि
खत्म नहीं होगी कभी उम्मीद |
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