फलों का राजा भले हो आम
मुझे भाते हैं अमरूद
हरे-पीले,लाल-चितकबरे
लम्बे,गोल,सुंदर ,बेडौल ,बड़े-छोटे
सफेद,पीले या लाल गुद्दे वाले
पर थोड़े कड़े,थोड़े फूले,अधपके अमरुद
इलाहाबादी हों या देशी
बारहमासी या मौसमी
अमरुद तो होते हैं बस अमरुद |
बचपन में कहाँ पकने पाते थे
बाग-बगीचे ,आस-पड़ोस के पेड़ों पर अमरुद
बंदरों से पहले ही टूट पड़ती थी बच्चों की टोली
मार-गाली खाकर भी कहाँ भूल पाते थे अमरूद
होते भी थे तब वे हर घर के अगवाड़े-पिछवाड़े
शहरों में कहाँ जगह कि लगाएं लोग अमरूद
वृक्षारोपण कार्यक्रम में भी नहीं शामिल हैं वे
तरस जाता है मन सीजन में भी अमरूदों के लिए |
महाकवि केदारनाथ सिंह को भी खूब भाते हैं अमरूद
एक दिन जाते हुए मित्र हरिहर सिंह के घर
ललक उठे देखकर धर्मशाले पर बिकते हुए अमरुद
लपककर खरीद लिया एक किलो
दो को कटवाकर लगवाया नमक
एक को खाते दूसरे को मुझे थमाते
मुग्ध भाव से बोल उठे -"आहा,कितने अच्छे लगते हैं अमरुद "
डॉ० देवराज के फ्रिज में पड़े ही रहते थे एकाध अमरूद
कहते -"बूढों का यौवन होता है अमरूद "
सोचती हूँ क्या कोई ऐसा भी हो सकता है
जिसे भाते न हों सस्ते,सुपाच्य,स्वादिष्ट अमरूद
फिर क्यों घटते जा रहे हैं वे
बच्चों में बचपने की तरह ?
जिसकी पत्तियाँ खाकर पशु मुस्कुराएं
फल खाकर बूढ़े,बच्चे जवान
जो दवा,दुआ और सेहत बन जाए
क्यों हुआ उपेक्षित लोक-संस्कृति ही तरह
डरती हूँ कहीं स्मृतियों में ही ना रह जाए
गरीबों का सेब अमरूद |
sach kaha aapne ranjana ji
ReplyDeletewww.bebkoof.blogspot.com