Friday 1 June 2012


[प्रेम-कविताएँ]
जलते सफर में 
दसों दिशाओं में छा गयी थी
अरुणाभा
तुम्हारी हँसी से उस दिन
खूब हँसे थे तुम
जाने किस बात पर
मन आँगन में फैल गयी थी घूप
बरसी थी चाँदनी इतनी
कि
बची है शीतलता आज भी
इस
जलते
सफर में |
द्वीप
दो अलग द्वीप से हम 
मिल न सकेंगे कभी 
कोई पुल नहीं है 
हमारे बीच
तो भी क्या 
प्रेम की अंतर्धारा तो 
आप्लावित कर रही है 
हमारे भूखंडों को 
नीचे ही नीचे |
तुम्हारा प्यार
जब
चाँद-सितारों की
तिरछी पड़ती
रोशनी में
दिप-दिप करता था
तुम्हारा चेहरा
शरीर में
आकुल दौड़ती थी
नदी ...
आवाज में
हँसता था आकाश
और हँसी डूबी रहती थी
फूलों में
तब
धूप की फुहारों से भीगे
शरद के दिनों-सा
होता था
तुम्हारा प्यार ...|
अविस्मृत एक क्षण वह
वह पहली भेंट न थी
हमारी
तुमसे
जश्नों -समारोहों में
मिले थे हम
कई –कई बार
लेकिन
अपनी –अपनी दूरियों को सहेजते हुए
तब हम नहीं
मिलती थीं हमारी
 परछाईयां
सम्वाद करती  हँसती-मुस्कुराती
सजग और चौकन्नी
इतनी कि
खुल न जाय
कहीं किसी भूल से
आत्मा के ...मन के भीतर
छिपा कोई मर्म
स्मृतियों में कहीं भी कुछ भी दर्ज नहीं हुआ
किसी भी भेंट का कोई भी क्षण
कोई भी घटना ऐसी कि
जिसका कैसा भी चिह्न
तनिक भी अंकित हो मन पर
कल्मष और
मन की मलिनता को
मुस्कान की सभ्यता से
आच्छादित करने की कला के
पीछे –पीछे चलते हुए जैसे हम
मिलते हैं किसी परिचित या अपरिचित से
मिलते थे वैसे ही हम भी
शब्दों और ध्वनियों की कर्कशता के बीच
एक –दूसरे को सुनने –सराहने का स्वांग करते हुए
और इस तरह
भद्र भेंटों के बीच
हमने कायम रखी अपरिचय की दूरियाँ
अभेद्य बचाए रखा
अपने भीतर का तलघर
उघरने से
जैसे एक भद्र से अपेक्षा की जाती है
जाने कैसे क्या हुआ
उस दिन भेंट हुई कुछ इस तरह कि
जैसे मिल रहे हों पहली बार
पहली बार व्याकुल हुए हम
निरावृत होने को
उझिल दिया एक ही बार में
सारा कुछ
खोल दिया आत्मा की गाँठें
आदम इच्छाएँ अपनी-अपनी
घुला-मिला दिया एक- दूसरे में
और इस तरह अपनी ही छवियों की कारा से
मुक्त हो रहे थे हम
पहली बार
देखते हुए  दिखाते हुए अपने को
अपने से बाहर
अकलंक निर्मलता के क्षितिज पर
सभ्यता के संविधान से बेपरवाह
उस वक्त शायद हम
चाहते थे
शुरू करना जीवन को
जीना शुरू से
दो अस्मिताओं का
निःशब्द सम्वाद वह
भाषा और अर्थ के बाहर
एक दुर्लभ घटना थी
सभ्यताओं के इतिहास में
हम दोनों लौट रहे थे
अपनी शिशुता में
जन्म ले रहा नया इंसान
इंसानी इच्छाओं से भरा और उन्मुक्त
हमारे ही भीतर से
जैसे कोई अचरज
कितना अद्भुत है
आदमी के भीतर खोए हुए
आदमी को आकार लेते देखना
तुम्हारी परिचित छवि से ऊबी-उकताई मैं
अचम्भित हुई देखकर तुमको
दुःख भी हुआ कि
सुंदर है कितना सरल और सुविज्ञ भी
रूप यह भीतर का तुम्हारा जिसे
कुचल दिया फेंक दिया आत्मा के तलघर में
जाने किस शाप से डर या संताप से
मुग्धकारी रूप वह तुम्हारा
अनिन्द्य सम्वेदना से आलोकित
तुम्हारी
सच्ची सरलता की सम्मोहक आभा में डूबकर मैंने
देखा तुम्हें तुम्हारेपन में
पहली बार
डूबी हूँ आज भी
अनझिप आँखों से देख रही हूँ
रूप वह तुम्हारा उत्साहित उस क्षण में
गुजर गए कितने दिन.....कितनी रातें
पर जी रही हूँ अब भी उसी चुम्बकीय क्षण को
दृश्य वही आँखों में खुभा है अभी भी
अब
इतिहास हो चुका है किन्तु
अविस्मृत क्षण वह क्या
याद है तुझे भी ?
क्या चाहोगे तैरना आनंद के अंतरिक्ष में
प्रिय सखा
सच –सच बतलाना वह क्षण क्या खींचता है
तुमको भी
क्या बचा है अनभूला अभी भी
स्मृति में ..आत्मा में ?
सच –सच बतलाना
क्या चाहोगे लौटना उस
क्षण के उजाले में
चाहोगे पछीटना आत्मा की मैल को
सच –सच बतलाना प्रिय
मेरे सखा |
जबकि तुम
जबकि तुम
चले गए हो कब के बिखेर कर
जिंदगी के कैनवस पर ताजा रंग
घर में तुम्हारी गंध
फैली है अभी भी
बन ही जाती है चाय की दो प्यालियाँ
तुम्हें टटोलने लगते हैं हाथ
नींद में
अभी भी
जबकि चले गए हो तुम
कब के
सपनों से डरी मैं तलाशती हूँ
तुम्हारा वक्ष
तपते माथे पर
इंतजार रहता है
तुम्हारे स्पर्श का जबकि तुम
चले गए हो
कब के
अब जब कि तुम चले गए हो
नहीं टपकती तुम्हारी बातें
पके फल की तरह
नहीं आते खाने पंछी छत पर
चावल की खुद्दी नहीं बिखेरी जाती
झुक गए हैं फूलों के चेहरे
झर गया है पत्तियों से संगीत
नहीं उतरती
अब कोई साँवली साँझ
आंगन की मुंडेर पर |
शापित
एक थे हम
आजाद
सुखी
पूर्ण
विचरण करते
प्रकृति के बीच
दो करके
भेज दिए गए
धरती पर
पराधीन
दुखी
अपूर्ण
होकर तड़पने लगे
जब भी हमने देखा
एक-दूसरे को
एक हो जाना चाहा
शैतान आ खड़ा हुआ
हमारे बीच
फिर भी कम नहीं हुईं
हमारी मिलने की कोशिशें
अनेक नाम
अनेक युग
देशकाल
मगर रहे हम वही के वही
शापित
दो बने रहने के लिए
जाने कितनी बाधाएं
विमर्श मौजूद हैं
आज भी
हम दोनों के बीच
कम नहीं हुई मगर चाहतें
आएगा एक दिन
जब हम फिर होंगे एक
आजाद
सुखी
पूर्ण
पहले की तरह
विचरण करते
प्रकृति के बीच |
तुम्हारे साथ
मैं होना चाहती हूँ तुम्हारे साथ
जैसे नीम जंगल रास्तों में जुगनूँ
रेत की दुनिया में होते हैं
जलद्विप
गुलमोहर
मैं होना चाहती हूँ तुम्हारे साथ
जैसे सृजन में होती है पीड़ा
सिक्कों में होती है खनक
और संवाद में होती है सभ्यता
संस्कृतियों की कोख में
घृणा के बीज-सा
नहीं होना चाहती मैं
तुम्हारे साथ
तुम अपने समय की शहतीरों पर
टांकते रहो सितारे
या अपनी गुलेलों से
छेंदते रहो आसमान
खोद सको एक नदी
काट सको पहाड़ कोई
भले ही मेरे वगैर
मैं होना चाहती हूँ
तुम्हारे लिए जैसे
शीत के लिए होती है आंच
जीत के लिए होता है नशा
जैसे धरती के लिए हुआ था
कोई कोलंबस
मैं नहीं होना चाहती
गुलेल-सी करुण
तुम्हारी चोट खाई मांसपेशियों के लिए
तुम मेरे बिना
मुझसे दूर भी रह सकते हो
अडिग
अपने बनाये रस्ते पर खा सकते हो ठोकरें
जी सकते हो दुःख
मैं होना चाहती हूँ तुम्हारे बिलकुल साथ
जैसे समय से घिर जाने पर
साथ होती हैं स्मृतियाँ
मस्तियों में होती है थिरक
होती है थाप
बुखार में बिलकुल सिरहाने होती है माँ
तुम्हारी कमजोरी को
अपनी सभ्यता का सबसे बड़ा मूल्य
बताने वाले बलिष्ठ स्वर सा
नहीं होना चाहती मैं तुम्हारे साथ |
बार बार 
बार-बार आँखों में 
तिर आता है तुम्हारा चेहरा
हालाँकि समझा चुके हो तुम
दिल नहीं दिमाग से करना चहिये प्रेम
कि जिस समय कर रहे हों प्रेम
बस उतनी ही देर के लिए
ठीक होता है सोचना
प्रेम के बारे में
जैसे खाने के समय खाना
सोने के समय सोना ठीक होता है
हर वक्त प्रेम में होना अच्छा नहीं
न वर्तमान के लिए
न भविष्य के लिए
सच है तुम्हारा कहना भी
तेज रफ्तार में
निरंतर भागता आदमी
कर भी कैसे सकता है
इत्मीनान से प्रेम?
सच यह भी है कि
सारी बेइत्मीनानी के बावजूद
याद आता है मुझे
प्रेम के इत्मीनान में डूबा
तुम्हारा वही चेहरा |
सोचा है कभी
लगातार सूर्य के चक्कर काटती
धरती सोचा है कभी
सीलन भरे अँधेरे में गुमनाम 
तुम्हें धरता है कोई प्रेम से 
हजारो -हजार सिर-माथे पर 
ढोता है तुम्हारी ममता का अतिरिक्त भार
निमिष मात्र की जिसकी विचलन 
खतरा है तुम्हारे अस्तित्व के लिए 
उसके स्पर्शों की सुरक्षा में हरी -भरी रहती हो तुम 
फिर भी नहीं समझती उसका दुःख 
सोचो धरती 
किसका प्रेम है सच्चा 
तुम्हारा या शेषनाग का !
प्रेम की यह कैसी 
भर्तृहरि नियति है 
कि जिसे चाहो 
वही चाहता मिलता है 
किसी और को |
शायद इसीलिए
मेरी हथेली पर
तुम्हारा नाम
लिखा रहता है
शायद इसीलिए
एकांत मिलते ही
खुद–ब-खुद
हथेलियाँ ढँक लेती हैं
आँखों को
और आँखों एवं हथेलियों के बीच
तुम्हारा चेहरा उभर आता है |
तुम समुद्र थे
अपने प्रेम के बारे में
ज्यों ही कहा मैंने
तुम मुस्कुराए
तनिक भी आश्चर्य नहीं हुआ तुम्हें
ना अभिमान,ना संकोच
ना गुस्सा,ना अपमान-बोध 
कुछ भी नहीं
जबकि तुम समुद्र थे
मैं एक छोटी नदी
अब मैं चकित थी
संकोच से धरती निहारती
तुमने कहा –‘मैं सब जानता हूँ सब’
“सब” जानकर भी तुम स्थिर थे, और मैं आतुर
तुमने कहा-मोड़ दो इस प्रेम को
लेखन की तरफ
मैं उसी में मिलूंगा तुम्हें
अब निरंतर बह रही है एक नदी
समुद्र को समेटे अपने भीतर |
कितना कुछ
कितना कुछ रह गया
तुम्हारा मेरे पास
सारा का सारा ही शायद
जबकि खड़े हो तुम दूर
अलग व्यक्तित्व बने
अजनबी निर्लिप्त
क्या कुछ भी शेष नहीं रहा
मेरा तुम्हारे पास?
मैं तो इतना रह गयी हूँ तुम्हारे पास कि
जरा भी नहीं बची हूँ
खुद के लिए|
फिर से
पुरानी किताब के
पियराये पन्नों में
आज
मिले हैं कुछ
सूर्ख गुलाब
हरे हो गए
अधूरे ख्वाब
फिर से|
आज भी
उन विहसित आँखों से 
आज भी छनकर आती हैं 
कुछ दिव्य किरणें 
और बंद हृदय के पट बेंध 
कर देती हैं विकसित 
अनगिनत अलौकिक पुष्प 
मेरा पूरा अस्तित्व 
भर उठता है सुगंध से 
मेरे अधर गुनगुनाते हैं 
वही आदिम गीत 
और मेरा चेहरा 

किताबी हो उठता है |
पका रिश्ता
कच्ची मिटटी था 
गढ़ा  पकाया 
समर्पण और विश्वास की आंच पर 
रिश्ता 
पका हुआ 
सौप दिया तुम्हें
अब कहते हो तुम कि
पकी फसल की तरह होता है
पका रिश्ता |
कच्चा घड़ा
घड़ा 
कच्चा था 
उतरी थी 
जिसके सहारे
दरिया में 
डूबना 
ही 
था |
आकाश और नदी
एक आकाश था 
एक नदी थी 
मिलना मुश्किल था 
हालाँकि 
पूरा का पूरा आकाश 
नदी में था |
कोई रास्ता
खो गये हम 
भूल-भुलैयामें 
मैं ढूँढती रही तुम्हें 
कि शायद ढूँढ़ रहे होगे तुम भी 
कोई रास्ता 
मुझ तक पहुँचने का |
क्रांति है प्रेम
कैसे इतना 
उलट -पलट जाता है सब कुछ 
प्रेम में 
प्रेम करके जाना
कि प्रेम एक क्रांति है 
एक आश्चर्य 
विलीन हो जाता है अहंकार 
अनछुए अर्थ 
खुद हम हो उठते हैं इतने नए कि
मुश्किल हो जाये पहचान 
अपनी ही 
कैसे तमाम बड़ी -बड़ी बातें भी 
बेमानी लगने लगती हैं 
रूमानी बातों के आगे 
यह जान सकता है 
कोई 
प्रेम करके ही| 
नहीं जानती थी मैं
कभी मैं भावनाओं की डोर पर चलती हुई
तुम्हारी तरफ आ निकली थी
अजीब रहा ये चाहना
मैं गुम ही रही
उपस्थित रहे बस तुम
जीवन में अर्थ की तरह
अर्थ में दीप्ति की तरह
उतर चुके थे तुम मेरी
आत्मा की गहराई में
अपनी भावनाओं में डूबी मैं
तुम्हारे प्रेम से भरी हुई
भला कैसे जान सकती थी
प्रेम भी ख़रीदा-बेचा जा सकता है
बाजार में
दिल ही नहीं दिमांग से भी
किया जाता है प्रेम
महज एक सौदा है प्रेम
सौदागर हो तुम प्रेम के
कहाँ जानती थी ?
अनुबंध
कहीं खोल न दें
मेरे ही अवयव
मेरा रहस्य
इसलिए भागता है मन
भीड़ से
उपवन में
चुपचाप बैठना
अच्छा लगता है
मगर वहाँ भी
छेड़ते हैं सभी
धीरे-धीरे
अपनी पंखुरियों को खोलती
कलियाँ कहती हैं
मेरी तरफ देखो
देखो न!
उनकी पंखुरियों में मुस्कुराते हैं
तुम्हारे होंठ
पक्षी शरारत से
उतर आते हैं
मेरे पास
पूछते हैं हाल
उनकी चहचाहट में
सुनाई पड़ती है
तुम्हारी आवाज
निगोड़ी घास भी
अपनी सुगबुगाहट में
छिपाए रहती है
तुम्हारा स्पर्श
महुए के पेड़ से
अभिसार कर लौटी
मदमाती हवा में
होती है तुम्हारी सुगंध
और प्रकृति के होंठों पर
प्रेममय अनुबंध |
कुछ तो है
जाने क्या तो है
तुम्हारी आँखों में
मन हो उठा है अवश
खूशबू ऐसी कि महक उठा है
तन-उपवन
बंध जाना चाहता है मेरा
आजाद मन
कुछ तो है तुम्हारी आँखों में
कि यह जानकर भी कि
गुरुत्वाकर्षण का नियम
चाँद पर काम नहीं करता
छू नहीं सकता आकाश
लाख ले उछालें
समुद्र
अवश इच्छा से घिरा मन फिर
क्यों पाना-छूना चाहता है तुम्हें
असंभव का आकर्षण
पराकाष्ठा का बिंदु
कविता की आद्यभूमि|
तुम भी
गणित में माहिर तुम
प्रेम भी गणित ही रहा
तुम्हारे लिए
जोड़ते रहे –प्रेम-एक
प्रेम-दो प्रेम-तीन
बढ़ती रही संख्याएं
भर गयी
तुम्हारी डायरी
प्रेम की अगणित संख्याओं से
गर्वित हुए तुम अपनी उपलब्धि पर
गर्वित हुई मैं भी अपने प्रेम पर
जहाँ दो मिलकर होते हैं एक
संख्याएं जहाँ घटती जाती हैं
दो से एक में विलीन होते हुए निरंतर
अंत में शून्य में विलीन हुई मैं
शून्य जो
प्रेम का उत्कर्ष है ब्रह्मांड
समाया है
जिसमें सबकुछ
प्रेम करती मुझमें
समाए हो
तुम भी|
क्या तुम्हें भी
भीड़ के शोर-शराबे में भी
कान कुछ नहीं सुनते
आँखें कुछ नहीं देखतीं
सुनाई पड़ता है बस
एक मधुर आदिम गान
दिखाई पड़ता है
बस तुम्हारा ही चेहरा
तुम्हारी याद आते ही होता है ऐसा
क्या तुम्हें भी कभी होता है ऐसा?
क्या नहीं ?
सीपियों में
मोती का बनना
छीमियों में दानों का उतरना
जाना
तुमसे मिलने के बाद
कहाँ जानती थी क्या होता है प्रेम
तुमसे मिलने से पहले
भरोसा भी कहाँ था
किसी पर
कहाँ पता था यह भी कि प्रेम
एक बार ही नहीं होता
जीवन में..कल्पना में ..बसते हैं
असंख्य प्रेम
कहाँ जाना था तुमसे प्रेम से
पहले
अब जबकि हो दूर
फड़कते होंगे
तुम्हारे होंठ
जब तितली होती हूँ यहाँ
पढ़ते होगे तुम वहाँ मेरी सांसों की लिखी चिट्ठी
किसी चुराए क्षण में
सच कहना
क्या नहीं?
क्या तुम आ रहे हो ?
क्यों है आज
हवा में इतनी सुगंध
इतना पागलपन
घास क्यों समेट रही है
बारिश की बूंदों को
इस तरह
उषा में इतनी हया क्यों
तुम आ रहे हो क्या
?
Top of Form

उत्तराधिकारी
क्षण-प्रतिक्षण 
व्यतीत हुआ जाता है जीवन 
और व्यय हो रही हूँ मैं 
इन सबके बीच 
अभी भी अक्षुण्ण रख रखा है 
मैंने कहीं 
तुम्हारा प्रेम-पगा वह पहला स्पर्श 
कोमल अपनत्व-भरा 
तुम्हारी देह की मादक गंध 
श्वासों की सुरभित सुगंध 
मेरे पूर्णरूपेण व्यय हो जाने के बाद 
यही तो एक धरोहर है 
जिसका कोई 
उत्तराधिकारी नहीं होगा |
चला गया है कोई
इच्छाओं के
उड़ गए हैं रंग
नहीं कूकती कोयल
आसमान भी है फीका-फीका
चला गया है कोई|
छूट रही है
तुम जा रहे हो
ब्रीफकेश में
अपने सामान सहेज कर
पर ठहरो
इस घर की दीवारों
आलमारियों
कमरों
और कोनों-अतरों  में
छूट रही है
तुम्हारी याद
इन्हें भी लेते जाओ साथ|
मन
मेरे दो मन हैं शायद 
एक दिन-रात 
तुममें रमा हुआ 
और दूसरा 
इस दुनिया में|
जब चूक जाते हैं रिश्ते
भाँय-भाँय बजता है
सन्नाटा
सींग से सींग भिड़ाते शब्दों से शब्द
हाथापाई पर उतर आते हैं
पढ़ा जाता है
मंतब्यों को उलट कर
बदल जाती है
तर्कों की ध्वनियाँ
सूख जाती है
कटुता की आंच से
डंसती है भाषा
बन जाती है
द्विजिह्वा सर्पिणी
जब चुक जाते हैं रिश्ते |
तुम बिन
घर
बिखरा-बिखरा
मन भी
तिनका-तिनका
तुम बिन ..|
तुम्हारे लिए
तुम रो रहे हो
मेरी गोद में
सिर रखकर
किसी और के लिए
मैं तो रो भी नहीं सकती
किसी के सामने
तुम्हारे लिए |
प्रेम-पत्र
पीले पड़ गए हैं प्रेम पत्र
अक्षर उकेरती उँगलियों की
ध्वनियाँ
गुम गयी हैं कहीं स्मृति के
निविड़ में
हथेलियों की ओट में सरसराती उँगलियों
के रास्ते
आँखों के मार्दव का
पन्नों पर
उतरना
चुप चुप
सांसों की उसांसों में .....उतरते हुए महसूस करना
शब्दों की गरमाई
अब याद नहीं कुछ याद के सिवा
बस बची रह गयी है कोई खुशबू
कोई महसूस
कोई नामालूम
ऊष्मा
पन्नों पर सरकती उँगलियों की
सांकेतिक ध्वनियाँ
आँखों में
अनभूला छूटा हुआ
रहस्यमय किसी अर्द्धस्वप्न-सा
क्या है जो फिर भी बचा रह गया है
आज भी!
पुरइन मगन हो जाती है
जब भी
जीती हूँ तुममें
तुम
आ जाते हो
मुझमें
और हर लेते हो
मेरे अंदर का सूनापन
बाहर पसर जाती है
एक चुप्पी
और भीतर मच जाती है
हलचल
रातें
सजल हो जाती हैं
दिन तरल
पोखर भर जाता है
पुरइन मगन हो जाती है |Top of Form
प्रेम करना
प्रेम करना
ईमानदार हो जाना है
यथार्थ से स्वप्न तक ..समष्टि तक
फैल जाना है
त्रिकाल तक
विलीन कर लेना है
त्रिकाल को भी ..प्रेम में.. अपने
जी लेना है अपने
प्रेमालाम्ब में सारी कायनात को
पहली बार देखना है खुद को
खोजना है
खुद से
बाहर
मन को छूता है कोई
पहली बार
बज उठती है देह की वीणा
सजग हो उठता है मन-प्राण
चीजों के चर-अचर जीव के ..जन के
मन के करुण स्नेहिल तल तक
छूता है कोई जब पहली बार
सुंदर हो जाती है
हर चीज
आत्मा तक भर उठती है
सुंदरता
अगोरती है आत्मा  अगोरती है
देह
देखे कोई नजर
हर पल हमें|
सब्ज-नील कविता
मन की गुनगुनी आँच पर
पकते हैं
कच्चे हरे शब्द
बनती हैं तब
प्रेम की
सब्ज-नील कविताएँ |
चाह
चाहती हूँ ऐसा साथी 
जिसमें आग हो इतनी 
हर गलत को जला सके 
इतना जले खुद 
कि हर जला शीतल हो सके 
पर मिलते हैं हर कदम 
धुँआ फैलाने वाले 
साथ रहो कालिख लगे 
ना जले ना बुझे |
गीत
जब तुम आओगे 
मैं तुम्हें दूँगी 
तुम्हारी हथेलियों से 
ज्यादा प्यार 
बदले में तुम भी देना 
मुझे थोड़ा विश्वास 
मैं एक गीत 
रचना चाहती हूँ |
ऋतुएँ
अपने
पतझर के साथ 
मैं लौट आई हूँ 
अपने भीतर 
ऋतुएँ
क्यों खटखटा रही हैं 
मेरा दरवाजा |
तितली
दूर बैठी है 
फूलों से नाराज 
तितली 
फूल आश्वस्त 
मुस्कुराए जा रहा है 
जानता है 
आखिर जाएगी कहाँ 
तितली ?
डर
डराते हैं 
अँधेरे में 
मन के द्वारा
रचे गए 
मकड़ी के जाले|
स्लेट
स्लेट तो 
नहीं है मन 
कि पिछला लिखा 
मिटाकर लिख लूँ 
कुछ नया |
सुगंध
अपनी अंजुरी में 
भरकर नदी 
ले आए थे तुम 
मेरे होंठो तक
और मैं 
समुद्र बन गयी थी 
सुगंध की |
हर बार
आतुर प्रेयसी -सी 
लहरें 
बार-बार 
टकराती हैं 
तट से 
खोजती हैं 
संवेदना 
और लौट आती हैं 
उदास 
हर बार |
एल्बम
मन 
एक रंगीन 
चलता हुआ-सा 
एल्बम 
सुरक्षित हैं 
जिसमें तुम्हारी सारी 
तस्वीरें |
पकता रहा
जिंदगी की धूप में 
पकता रहा
तुम्हारा प्रेम 
जैसे पकता है 
कच्चा दूध 
धान की बालियों में |
जीने की चाह
मछली की 
डब-डब आँखों में है 
जीने की 
अपार तरलता 
और समुद्र की प्यास |
तुम ना थे
अपने ही अंदर से फूटती
कस्तूरी-गंध  से विकल होकर
भागी थी
तुम तक किन्तु
तृष्णा से विकल हो
खत्म हो गयी अंततः
क्योंकि वहाँ सिर्फ मरीचिका थी
तुम न थे |
कमल-सा मन
तुम्हारी
तलाश में
कई बार
गिरी हूँ
दलदल में
और हर बार
जाने कैसे
बच निकली हूँ
कमल-सा
मन लिए |
हर बार
जेठ की
चिलचिलाती धूप में
नंगे सिर थी मैं
और
हवा पर सवार 
बादल की छाँह से तुम
भागते रहे निरंतर
तुम्हारे ठहरने की उम्मीद में
मैं भी भागती रही
तुम्हारे पीछे
और पिछडती रही
हर बार |
और तुम
हरी-भरी है
मेरे मन की धरती
हालाँकि
दूर हैं
सूरज
चाँद
तारे
आकाश
बादल
और ..
तुम |
प्रेम-कविता
पूरी उम्र
लिखती रही मैं
एक ही प्रेम कविता
जो पूरी नहीं हुई
अब तक
क्योंकि
इसमें मैं तो हूँ
तुम ही नहीं हो
क्या ऐसे ही अधूरी रह जायेगी
मेरी प्रेम –कविता ?
शाश्वत होता है प्रेम
प्रेम
खत्म नहीं होता
कभी ..
दुःख
उदासी
थकान
अकेलेपन को
थोड़ा और बढ़ाकर
जिन्दा रहता है |
कैसे कह दूँ
कैसे कह दूँ 
भुला दिया है तुम्हें 
छलक उठती हैं आँखें 
आज भी तुम्हारे नाम पर
ये बात और है 
नाम लाती नहीं जुबान पर |
काठ
पौधों पर होता है 
बारिश का असर 
सूखे काठ पर नहीं |
यूं ही नहीं
मेरे पास जो रत्न हैं 
असली हैं 
यूँ ही नहीं मिले 
मिले रत्नगर्भा माँ की 
कोख में उतरने के बाद |
क्योंकि
यह शहर
मुझे अच्छा लगता है
क्योंकि यहाँ तुम रहते हो  
भले ही हमारे घरों के बीच
मीलों का फासला है
भले ही तुम्हें देखे
गुजर जाते हैं
बरसों –बरस
भले ही हमारे बीच
खड़ी हैं सैकड़ों दीवारें
भले ही यह शहर
हो गया है असुरक्षित |
प्रेम में पुरूष
उसकी पलकों पर
रहने लगते हैं मेघ
जो छलक आते हैं अक्सर
आँसू बनकर
होंठों में छिपी दामिनी
कौंध-कौंध जाती है
मोहक मुस्कान बनकर
उषा चेहरे पर जमा लेती है कब्ज़ा
कठोरता पर
विजय पा लेती है
कोमलता
अब वह समुद्र नहीं
नदी होता है
सच कहूँ तो पूरी स्त्री होता है
प्रेम करता पुरूष|
प्रेम
एक ने कहा –एक ही बार होता है प्रेम
कहा दूसरे ने –कई बार हो सकता है प्रेम
उसी भावना और समर्पण के साथ
जैसे हुआ हो पहली बार |
पहला चिल्लाया-लस्ट है ऐसा प्रेम
दूसरे ने मुस्कुराकर इसे ही प्रकृति बताया
सोचने लगी मैं –
भिन्नता कहाँ है दोनों की सोच में
प्रेम तो होता है सच ही एक
पहला ..दूसरा या तीसरा नहीं
अमूर्त प्रेम की चाह में
बढ़ जाए भले ही
मूर्त प्रेमियों की संख्या
चेहरा बदल जाए
बदल जाए देह और
अभिव्यक्ति प्रेम नहीं बदलता
भाग्यवान होते हैं वे
मिल जाता है जिन्हें
साबुत प्रेम पहली ही बार
टुकड़े-टुकड़े में मिलता है जिसे प्रेम
जोड़कर बनानी होती है उसे
प्रेम की साबुत मूर्ति एक
प्रेम कभी लस्ट नहीं होता |
भाषा की तलाश में
रिश्तों के जंगल में
अपनी कुदरती भाषा के साथ
अपनी-सी भाषा की तलाश में
भटकती रही मैं
तुम मिले
तुम जो मेरे जैसे न थे
मैं जो तुम्हारे जैसी न थी
कोई समानता नही थी
हममें
सिवा भाषा के
जो कुदरत ने बख्शी थी
तुम्हें भी
हमें भी
जीते हुए बस तुममें
महसूस करने लगी अचानक
कि दुनिया के सामने
बदल जाती है तुम्हारी भाषा
तुम खूब जानते हो
बाहरी रिश्तों को निभाना
उस वक्त मैं
बिल्कुल अकेली पड़ जाती थी
तुममें ही
ढूंढते हुए
तुमको|

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