Tuesday 5 June 2012


स्त्री-विषयक कविताएँ

उम्र पार करती लड़कियां

उन्हें गाली-सा लगता है
उम्र पूछा जाना
"उम्र' छू लेती है उनका निजी दुःख
जिसकी जड़ें फैली होती हैं
अंदर से बाहर तक
बड़े जतन से छिपाए रखती हैं जिसे वे
वे जानती हैं
दुनियां में उनका अस्तित्व
अब खतरे की सीमा पार कर रहा है
चुकती जा रही है उपयोगिता
वे जानती हैं
तमाम सीमाओं की तरह
बनाई गयी है उनके लिए
उम्र की भी सीमा
जिसके पार होते ही
नकार दी जायेगी उनकी सामर्थ्य
और जीना पड़ेगा बाकी उम्र
दया और उपेक्षा के सहारे
उम्र उनकी दुखती रग
जिसपर हाथ धरने वालों पर
बरस पड़ती हैं
अकेले में बरसती हैं खुद पर
बार-बार देखती हैं दर्पण
फिर हताश होकर सिमट जाती हैं
थोड़ी-सी और अपने में
हसरत से देखती हैं
छोटी बहनों की चढ़ती उम्र को
और कुढ़ती हैं
अपनी बढ़ती उम्र से
कितनी सशंकित,उदास,डरी-हुई होती हैं
उम्र पार करती लड़कियां
और आप आसानी से कह देते हैं
सही उम्र नहीं बताती लड़कियां |

खैनी खाती है माँ

घर लौटते ही
भाइयों ने शिकायत दर्ज कराई है
कि खैनी खाती है माँ
देखा जब माँ को
बना रही थी वह खैनी
अपनी अँधेरी कोठरी के एकांत में
चुपचाप बैठी अकेली
डिबिया से सूरती के तीन छोटे टुकड़े
चुनौटी से चूना निकाल
रखा उसने बायीं हथेली के बीचो -बीच
फिर मलने लगी दाहिने हाथ के अंगूठे से
बीच-बीच में ठोंकती भी जाती
देखते ही मुझे ठहाका लगाया
'तीन चुटकी तेरह ताल
तब देखो खैनी का कमाल'
और ठोंका अंतिम बार खैनी को
दाहिने हाथ की चिटुकी से उठाकर
दबा लिया अधरोष्ठों के बीच
व्यवस्थित कर जीभ से
बतियाने लगी मजे से
'माँ क्यों एसी चीज खाती हो
जिससे भाइयों की इज्जत जाती हो '
गम्भीर हो गयी माँ
-उनकी इज्जत अब मेरी हर बात से जाती है बेटी
हंसने-रोने ,जागने -सोने
खाने -पीने ,घूमने-बतियाने सबसे
एक बात पूछूँ तुमसे
बड़ा पीता है शराब
मंझला सिगरेट
छोटा जाने क्या-क्या
क्या मुझे बुरा नहीं लगता
मेरी इज्जत नहीं जाती ?

कैसी है ये आजादी !

हर प्रोडक्ट में विज्ञापित हो रही
तुम्हारी देह
कच्छा-बनियान से लेकर बीड़ी-तम्बाकू तक पर
मोहित तुम
कैसी है यह आजादी
जिसे भोग रही हो स्त्री ?
चल देना किसी भी मर्द के साथ
दिखना टी.वी.सीरियलों,फिल्मों में
जैसे कि कोई बिछा हुआ बिस्तर
तत्पर अभिसार के लिए
खोजती हुई मर्द की छाती में
सुरक्षा और
खर्च करती हुई खुद की खुद्दारी को
चांदी के चमकते चंद टुकड़ों के लिए
क्या यही है आजादी ?
तुम्हारा स्वप्न ?
मस्ती और ऐश्वर्य की इस मर्दवादी
दुनिया ने
क्या दिया है तुम्हे आजादी के नाम पर
कामातुर आँखों की तृप्ति को समर्पित
तुम्हारी देह में कहाँ है
आत्मा
क्या है तुम्हारी पहचान
पूँजी के बाजार में स्वतंत्र तुम
सोचो कैसी है यह आजादी ?

आग

वे छिपकली नहीं हैं
हैं भी
रहती हैं उसी की तरह
घर के अंदर
जहाँ उनकी सुरक्षा है भी
नहीं भी
भोजन जरूर मिलता है
अगर मान ले उसे भोजन
मन बहलाने के लिए
कभी-कभी वे निकलती हैं घर से बाहर
घर उनसे चिपका बाहर भी आ जाता है
इसलिए घर में ही बहला लेती हैं मन
नहीं भी
बाहर के कीट-पतंगों का शौक नहीं पालती
घर के ही क्या कम हैं ?
घरवाले खुश कि होने से उनके
घर है साफ़-सुथरा,सुरक्षित
और वे निश्चिन्त
जा सकते हैं बाहर कहीं भी
जब-तक सब होते हैं घर में
चुप ही रहती हैं वे
सुनती हैं सबकी चीख-पुकार
पर अकेले होते ही कट-कट की आवाज
गूँजने लगती है घर में
जैसे चिटक रही हो जलती लकड़ी से चिंगारी
क्या उनमें भी बची होती है आग ?

 वल्दियत

आखिर इन बच्चियों की वल्दियत क्या है?
जो रेलवे प्लेटफार्म के किन्हीं अँधेरे कोनों में
पैदा होती हैं
और किशोर होने से पहले ही
औरत बना दी जाती हैं
जो दिन भर कचरा बीनती हैं
और शाम को नुक्कड़ों...चौराहों के
अंधरे कोनों में ग्राहकों का
इंतजार करती हैं
जो पूरी तरह युवा होने से पहले ही
अपनी माँ की तरह
यतीम औलादें पैदा करती हैं
जो समय से पहले ही असाध्य रोगों से
ग्रस्त हो एड़ियाँ रगड़कर मर जाती हैं
कोई तो बता दे मुझे
इन बच्चियों की वल्दियत क्या है ?

अच्छा नहीं लगा

इस बार थोड़ी बूढ़ी लगी माँ
अच्छा नहीं लगा
उसका झुककर चलना
सुंदर ,सुगढ़,मजबूत
तनी-तनी सी माँ अचानक झुक गयी
अच्छा नहीं लगा
कभी नहीं देखा था माँ को झुके हुए
तन से, न मन से
पड़ोस से..न समाज से
न किसी भी बात से
यहाँ तक कि पिता से भी
पिता थे परम्परा
माँ थी प्रगति
दोनों में पूरब-पश्चिम का फर्क था
निभा लिया जीवन भर साथ
झुकी नहीं माँ
वह तब भी नहीं झुकी
जब नहीं रहे पिता
गर...

आजादी की कीमत

उड़ती चिड़िया को
हसरत से देखती है
पिंजरे की चिड़िया-आकाश में
कैसी आजाद
कैसी खुशहाल
उड़ान बस उड़ान!
मौसम की चिंता से मुक्त
समय से दाना-पानी
देखभाल,सुकून
इतना सब-कुछ
सिर्फ पिंजरे में रहने के लिए
कितने मजे हैं- सोचती है चिड़िया आकाश की
सोचती है चिड़िया आकाश की
परों को हमेशा चलाते रहना
घर ना ठिकाना
कुंआ खोदना पानी पीना
बहेलियों से प्राण-भय,मौसम की मार
चुभना सबकी निगाहों में
इतना जोखम
सिर्फ आजाद रहने के लिए
उदास हो जाती है चिड़िया
आकाश की
उड़ती चिड़िया क्या जाने
दुःख
पंख ना फैला पाने का |

उतान चलती लड़कियों के लिए

तुम्हें किस बात का अभिमान है लड़कियों
क्यों चल रही हो इस तरह उतान
सीना तान
बार-बार निहारती हो अपनी देह
लपेटती हो दुपट्टा गले में
इतराती हुई गोलाइयों पर
क्या जताना चाहती हो ?
देह के बदले कुछ पाने की पुरानी आदत
क्यों नहीं छूटती तुमसे ?
क्यों चाहती हो दिमाग नहीं देह से पहचानी जाओ
नश्वर है यह उठान
जिसके कारण चल रही हो उतान
कब जानोगी कि तुम्हारे पहले भी थीं
रहेंगी भी उतान चलती लड़कियां
खिलौना बनती खिलौनों सी इस्तेमाल होती
नारीत्व के उपहार का कुछ तो रखो मान
मत चलो बहनों इस तरह उतान |

 ललमुनिया

चढ़ रही है ललमुनिया
पहाड़ी की सबसे ऊँची चोटी
फिसलन भरे रास्तों को पार करती
साड़ी को घुटनों
झुल्ले को बाहों के ऊपर कसे
पीठ पर चादर
कमर में खोंसे हँसियाँ
छिलते घुटनों,कुहनियों
हथेलियों से बेपरवाह
नंगे पाँव चढ़ रही है ललमुनिया
खड़ी शक्ल की पहाड़ी पर
नीचे हैं गहरी खाईयाँ
गिरकर जिसमें दफन हो जाती हैं
हर साल कई ललमुनिया
कई होकर अपंग
उपचार और मुआवजे को तरसती हैं
जिनकी प्रजा हैं वे
कब सुनते हैं उनकी आवाज !
ललमुनिया नीचे नहीं,देखती है बस ऊपर
मीलों पहाड़ी पर चढ़ती चली जाती है
जहाँ घास से लकदक चोटी है
ललमुनिया तेजी से काटती है घास
घास से आती है रोटी-दाल की खूशबू
बच्चों की पेट-भरी किलकारी
मवेशियों की तृप्त डकारें !
जा चुकी है बरसात खत्म हो चुकी है
गांवों के आस-पास की घास
नहीं बचे भीमल,खड़ीक,कचनार
तिमला के पेड़ों के हरे पत्ते भी
चलो,कट जाएगा जाड़ा इन घासों की बदौलत
सोचती हुई ललमुनिया लाद लेती है
साठ किलो वजन अपनी पीठ पर |
उतर रही है ललमुनिया
अपनी वजन से ज्यादा वजन
पीठ पर लादे खड़ी पहाड़ी से
उतरना चढने से ज्यादा खतरनाक है
चारे के जुगाड़ की यात्रा
बन सकती है अंतिम यात्रा
जानती है ललमुनिया
फिर भी अभी कई दिन ऐसे ही
चढ़ेगी और उतरेगी वह
ललमुनिया अपढ़ है
छीलती काटती है घास
रोटी की जुगाड में गुजार देती है उम्र
नहीं करती स्त्री-अधिकारों की बात
उसके सपने आज भी श्वेत-श्याम हैं
रंगीन नहीं हुए सिनेमा
और टीवी के रंगीन युग में
सोचती हूँ
ललमुनिया की समस्या
क्यों कोई मुद्दा नहीं है
स्त्री-विमर्श के इस युग में भी !

कोढ़ी और चाँद

उस दिन पूर्णिमा थी |दमक रहा था चाँद अपनी खूबियों के साथ |नीचे धरती पर जमा थे एक जगह कुछ कुष्ट रोगी |ऐसे-वैसे कुष्ट रोगी नहीं थे वे |पढ़े-लिखे थे |वक्ता,आलोचक,कवि और कहानीकार थे उनमें से कई |अपने-अपने क्षेत्र में कुछ तमगे भी पा चुके थे[चाहे किसी भी 'भेद'से]पर अपने कोढपन के नाते नहीं पहुँच पाए थे,उस ऊँचाई पर,जहाँ दमक रहा था चाँद अपनी खूबियों के साथ |उन्हें चाँद पर गुस्सा था |उसकी चमक चुभ रही थी उन्हें |एक ने,जो आलोचक था कहा -"देखो तो इस चाँद को मुझे नैन-बैन-सैन से कोशिश में है रिझाने की,ताकि मैं कुछ लिखूँ इसकी प्रशंसा में,पर मैं तो लिखने से रहा |"चाँद सोचता रहा उसकी गली हुई अँगुलियों को दया से देखता -"ये तो लिख चुका है मदिरा के दो पैग के बदले जाने कितने ऐरे-गैरे पर भी|"
कहा दूसरे कोढ़ी ने -"कितना बेशर्म है चाँद !चमक रहा है ऐसे,जैसे रोशनी हो इसकी अपनी ही |सूरज से खींचकर ली हुई रोशनी पर इतना गुमान !"चाँद मुस्कुराया -आदमी कब लेकर आता है माँ के पेट से कोई चमक |अर्जित करता है धरती से ही कहीं न कहीं |कहा तीसरे ने -"बड़ा अराजक है हर जगह पहुँचता है |'चौथे ने मारा तीर-"दागदार है तभी तो अकेला है |"पाँचवे ने हवा दी -"सौंदर्य-प्रेमियों ने बढ़ा दिया है इसका दिमाग,वरना इसकी क्या औकात?हमें देखकर हँसता है |"छठे ने किया एलान -"इसे ख़ारिज कर देना चाहिए ,तभी बचेगा स्वच्छ नीला आसमान |"सबने समवेत निर्णय लिया कि निंदा की जाए इस चाँद की|थूका जाए इस पर |इधर चाँद ईश्वर से प्रार्थना कर रहा था कि कर दे इनकी कुरूपता का अंत,ताकि मिट सके इनकी कुंठा |उधर एक-एक कर सभी कोढ़ी थूक रहे थे चाँद पर |अनजान इस बात से कि गिर रही है थूक खुद उनके ऊपर |वे खुश थे कि गंदा कर दिया उन्होंने चाँद को |चाँद वैसे ही दमकता रहा |उस दिन पूर्णिमा थी |दमक रहा था चाँद अपनी खूबियों के साथ |

एक लोकगीत को सुनकर

राजा ने आकाश में उड़ती मैना का शिकार किया
बाँधकर घर लाए
घर वालों को पकड़ने की वजह बताई
-‘इसके पूर्व जनम का करम ही ऐसा था
कि मुझे शिकार का धर्म निभाना पड़ा |’
जबकि राजा को बौड़म बेटे के लिए
 जीती –जागती मैना की दरकार थी
घर के पिंजरे में कैद,आज्ञाकारिणी
उड़ती मैना से उन्हें चिढ़ थी
राजा ने बेटे से कहा-ले जाओ इसे और खेलो
राजकुमार ने मैना के पंख नोच लिए
और कहा-उड़ो
पंख बिना मैना कैसे उड़ती
झल्लाकर राजकुमार ने मैना के पैर तोड़ दिए
और आदेश दिया –नाचो
मैना नाच न सकी
गुस्से से पागल हो उठा राजकुमार
मैना का गला दबाकर चीखने लगा
-गाओ ...गाओ ...गाओ
मैना निष्पन्द पड़ी थी
राजकुमार रोने लगा
कि गुस्ताख मैना ने नहीं मानी
उसकी एक भी बात
इससे अच्छी तो चाभी वाली मैना थी
राजा आए और राजकुमार को समझाने लगे
-तुमने नहीं सीखी अभी तक
स्त्री साधने की कला !
कुछ और नहीं करना था
बस दिखाते रहना था
मुक्ति का स्वप्न |

जब स्त्री प्रसन्न होती है

जब
स्त्री प्रसन्न होती है
सूर्य में आ जाता है ताप
धान की बालियों में
भर जाता है दूध
नदियाँ उद्वेग में भरकर
दौड़ पड़ती हैं
समुद्र की और
खिल जाते हैं फूल
सुगंध से भर उठती है हवा
परिंदे चहचहाते हैं
तितलियाँ उड़ती हैं
आकाश में उगता है चाँद
चमकते हैं तारे ..जुगनू
खिलखिलाती है चाँदनी
आँखों में भर जाती है उजास
पुरुष बेचैन हो जाते हैं
बच्चे निर्भय |

चींटियाँ

संगठन बनाएँ
चींटियाँ
चींटियों का संगठन बनाना
कतई नापसंद है उन्हें कि
सियासी मुद्दों पर अपनी राय दें चींटियाँ
चींटियों का काम है रानी चींटी के अण्डों
और कुनबे के लिए रसद खोजे  ढोकर एकत्र करें
परिवाद संवाद और विवाद
यह चींटियों काम नहीं है
अवध्य होती हैं
अपनी प्रकृति में... परम्परा में
रसद के काम में व्यस्त चींटियाँ
भटकी हुई
अनुगामिता से बाहर की चींटियाँ
संवाद करती हुई चींटियाँ
पर वाली चींटियाँ
कुचल दी जाती हैं|

चिड़िया-
एक

बहेलिया
प्रसन्न है
उसने अन्न के ऊपर
जाल बिछा दिया है
भूख की मारी
चिड़िया
उतरेगी
ही|

दो

चिड़िया
उदास है
उसे सुबह अच्छी लगती है
पर देख रही है वह
धरती के किसी भी छोर पर
नहीं हो रही है
 सुबह|

क्या पौरुष सिर्फ छलना भर है

तुम जानते थे
स्त्री के भीतर रहती है
नन्हीं मासूम,भोली चिड़िया
भरम जाती है जादुई बातों से
परचा सकते हैं जिसे
रोज-रोज बिखेरे गए
प्यार के दानें
जानते थे तुम
सशंकित रहती है
प्रलोभनों से चिड़िया
पर भ्रम जाती है अंतत:
तुम जानते थे
आसान होगा
पंख खोलती चिड़िया को पा लेना
और बहुत आसान होगा
पंख मरोड़कर चल देना
मगर क्या पौरूष
सिर्फ छलना भर है ?

औरत को मार दिया

तुमने रूप-रंग
संगीत-शब्द उठा लिया
और औरत को मार दिया
तुमने चमकीली रंगीन दीवारों
और रोशनियों के बीच
सुंदर चेहरे
और शरीर को सजा दिया
और औरत को मार दिया
तुमने माँ,बहन,बेटी
प्रेमिका,पत्नी,रखैल की
खूबसूरत चादर ओढा दी
और औरत को मार दिया |

 नमक

उसके नमकीन चेहरे पर
गहरी आँखें थी
जिसके कोणों में
अटका हुआ था नमक
बस नहीं था
उसके घर में नमक |

वृक्ष बन जायेगी गुठली

घूरे की सूखी जमीन पर पड़ी
गुठली आम की
याद कर रही है अपना अतीत
जब वह पिता के कंधे पर चढ़ी
पूरे कुनबे के साथ
मह-मह महका करती थी
मगर कभी आंधी
कभी बंदर
कभी शैतान बच्चों के कारण
टूटता गया कुनबा
उसकी अनगिनत बहनें
बचपन में ही नष्ट हो गयीं
और अनगिनत जवानी में ही
काट-पीटकर
मिर्च-मसालों के साथ
मर्तबानों में बंद कर दीं गयीं
वह बची रह गयी
कुछ के साथ
पर कहाँ जी पाई पूरा जीवन
भुसौले में दबा-दबा कर
दवा के जोर पर
जबरन पैदा किया गया
उसमें रस
और फिर चूसकर उसका सत्व
फेंक दिया गया घूरे पर
निराश नहीं है
फिर भी गुठली
उसमें है सृजन की क्षमता
इंतजार है उसे
बादलों का
फिर फूटेगा उसमें अंकुर
और वह वृक्ष बन जायेगी |

आजाद कौन ?

उनके पंख नहीं हैं,पर वे उड़ती हैं
सलीके से बंधे जुड़े और साड़ी में परी-सी
उनकी पलके रंगीन हैं
किसी की नीली, किसी की फिरोजी
हरी तो, गुलाबी किसी की
होंठों पर भी खुशनुमा रंग है
चेहरा चमकता है शीशे-सा
जिस्म हवा की तरह हल्का और ताजा
उम्र भी नवीन है ,खुशबू से महकता है
वे बोलती नहीं, कूकती हैं
चलती हैं सधी चाल
सभ्य.. सुंदर .. शालीन
वे दादी-नानी की कहानियों की परियां हैं
ताकते रह जाते हैं बुड़बक की तरह
जिन्हें पहली बार देख कर लोग
हाथों में ट्रे लिए बाँटती हैं वे
खट्टी-मिट्ठी गोलियाँ और जो भी यात्री चाहे
टाल जाती हैं कामुक दृष्टि,छुअन व
चाहतों को मुस्कुराकर
आखिर वे परिचारिकाएं ही तो हैं!
बड़ा ही नपा-तुला-सधा
संयमित जीवन है उनका
'फीगर' के अनुशासन से
न खा सकती हैं मनचाहा
न हँस सकती हैं
शायद जी भी नहीं सकती
अपनी मर्जी से
कैरियरिस्ट ये परियां
सोचती हूँ -क्या आजाद हैं ये
कि आजाद है
वह घसियारिन चम्पा
बिखरे बालों और सूती साड़ी में औरत-सी
जिसकी पलकें और होंठ सांवले हैं
चेहरे पर पसीने का नमक
भरा-सांवला बदन
आदम गंध से महकता है
जो भर पेट खाती है
चटनी-भात
लिट्टी-चोखा
ठठाकर हँसती है
असभ्य..अनपढ़ ..अशालीन
जमीन पर चलती है अक्सर
नंगे पाँव
पर तान लेती है हँसिया
कामुक दृष्टि छुअन व चाहत पर |

कजरी और क्रीम

चार दिन में ही खत्म हो जाती है
यह गोरेपन की क्रीम
फिर भी नहीं होता जरा-सा भी रंग साफ़
झल्लाती हुई कहती है आदिवासी युवती कजरी
जो सोचती है रंग बदलते ही बदल जायेगी
उसकी बदहाल दुनिया
नहीं जानती कजरी कि मासूम निर्दोष जीवों से
छीनकर जिंदगी की चमक
चमकीले दीखते हैं सौंदर्य-वर्धक प्रोडक्ट
जिन्हें लगाकर अभिमान से भर
गुड़िया बन जाती हैं ‘अमीर”स्त्रियाँ
‘मध्यम’परेशान होती हैं बिगाड़ कर बजट
‘गरीब’कजरी की तरह सपने देखती हैं
कजरी नहीं जानती
रंग-बिरंगी शीशियों में नहीं है
रूप-रंग और तकदीर बदलने की ताकत
वह तो है उसके काले रंग
खुरदुरे हाथ-पाँवों और मजबूत जिस्म में
जिसे कुदरत ने बख्शा है उसे नेमत की तरह
नहीं जानती कि उसके जैसी सुंदरता पा ही नहीं सकतीं
रैम्प पर कैटवाक करती सुन्दरियाँ
जिनकी त्वचा नहीं सह सकती
सूरज का हल्का ताप भी
वे जो दिखाती हैं उसमें सब कुछ है
सिवाय जिंदगी के
स्वाभिमान के
और औरत के
कजरी को जानना चाहिए
कि वह बनना चाहती है जिनकी तरह
वे नकली सफेदी वाले संसार के
चमचमाते प्रोडक्टों के बीच
खुद एक प्रोडक्ट हैं
जिनका बाजार भाव कभी भी गिर सकता है
जानना चाहिए कजरी को
कि रातो-रात सब कुछ बदलने का चमत्कार
बढाता है सिर्फ उत्पादकों के चेहरे की चमकार
कजरी को बढ़ानी चाहिए अपनी सुंदरता
सांध्य-कक्षाओं में जाकर
यह जानकर कि कैसे बढ़ रही हैं अपने बूते
उसकी बहनें दुनिया में निरंतर
तभी तो मार सकेगी
उस ठेकेदार के मुँह पर थप्पड़
जो करना चाहता है
गोरेपन की क्रीम के बदले
उसकी काली देह का सौदा |

लड़कियाँ

कस्बों और छोटे शहरों दुकानों में भी
दिख रही हैं आजकल
काम करती हुई
कमसिन,सुन्दर,अविवाहित लड़कियाँ
दुकान चाहे मोबाईल की हो
या डाक्टरी की
ब्यूटी की या आभूषणों की
हर जगह मौजूद हैं
कमसिन,सुंदर,अविवाहित लड़कियाँ
आप इसे बदलते समाज में
बढ़ती हुई स्त्री आत्म-निर्भरता का नाम दे सकते हैं
जबकि ऐसा बिलकुल नहीं है
ये लड़कियाँ न तो ज्यादा पढ़ी-लिखी हैं
ना उक्त काम की अपेक्षित जानकारी है
ना तो काम उनका कैरियर है
ना आत्मनिर्भरता
वे खुद भी गंभीर नहीं हैं काम के प्रति
बस टाइम-पास कर रही हैं विवाह से पहले तक
कुछ पैसे भी मिल जाते है बदले में
शौक पूरा करने के लिए
इसलिए खुश हैं
कमसिन,सुंदर,अविवाहित लड़कियाँ |
दुकानदार जानते हैं यह बात
रखते भी हैं इन्हें इसीलिए
उनको काबिलियत नहीं,फ्रेश चेहरे से मतलब है
जिनसे खींचे चले आते हैं ग्राहक
वेतन भी देना पड़ता है मामूली-सा
दिल भी बहलाती हैं
और चली जाती हैं आसानी से
जब तक कि बासी पड़ें इनके चेहरे
इनके जाते ही आ जाते हैं फिर
कुछ नए फ्रेश चेहरे
जिनसे खींचे चले आते हैं ग्राहक
लड़कियाँ भी खुश हैं
काम के बहाने पा लेती हैं
चूल्हे-चौके से फुरसत
सज-धजकर निकलती हैं
मुक्त होती हैं बंदिशों
वर्जनाओं से
लेती हैं खुली हवा में साँस खुलकर
जी लेती हैं जिंदगी अपनी मर्जी से
कुछ घंटे
कहती हैं –‘शादी की पड़ते ही नकेल
 बनना ही है कोल्हू का बैल’
लड़कियों की इस सोच से
दुकानदारों के पौ बारह हैं |
खुद्दार,समझदार,और ज्यादा पढ़ी-लिखी लड़कियाँ
नहीं टिक पाती इन दुकानों पर
खुद्दार आग हो जाती हैं
खुद को समझे जाने पर ‘सामान’
समझदार हिस्सा चाहती हैं उस मुनाफे में
जो आता है उनकी बदौलत
 उच्च –शिक्षित काम के अनुसार वेतन और
काम के घंटे निर्धारित करने की बात करती हैं
दुकानदार निकाल फेंकता है बाहर
ऐसी लड़कियों को दूध की मक्खी की तरह
उनके जाते ही आ जाती हैं और भी कम पैसे में
कमसिन,सुंदर,अविवाहित लड़कियाँ
दुकानदार फिर कमाने लगता है बिना तनाव के
दुहरा-तिहरा लाभ
नई उम्र की ऊर्जा,शक्ति और सौंदर्य का
करके भरपूर इस्तेमाल
आप चाहें तो इसे बदलते समाज में
बढ़ती हुई स्त्री आत्म-निर्भरता का नाम दे सकते हैं
पर ऐसा बिलकुल नहीं है |किस मंत्र से

फेसबुक पर स्त्री

कुछ ने संस्कृति के लिए खतरा बताया
कुछ के मुँह में भर आया पानी
कुछ ने बेहतर कहा
कुछ ने सिर-दर्द
कुछ हँसे- इनके भी विचार ?
कुछ सपने देखने लगे
कुछ दिखाने लगे
कुछ के हिसाब से प्रचार था
कुछ के विचार
कुछ दबी जुबान व्यभिचार भी कह रहे थे
हैरान थी स्त्री
इक्कीसवीं सदी के पुरुषों की मानसिकता जानकर
देह से दिमाग
मादा से मनुष्य की यात्रा में
नहीं है पुरुष आज भी उसके साथ
कुछ को उसने फेसबुक से हटा दिया
हटने वाले कुछ झल्लाए
कुछ इल्जाम लगाए
कुछ चिल्लाए-एक औरत की ये मजाल!
स्त्री ने भी नहीं मानी हार
सोच लिया उसने
बदल कर रहेगी वह
फेसबुक की स्त्री के बारे में
पूर्वाग्रहियों के विचार|

खतरनाक मुद्दा क्यों

पूर्वांचल के अखबारों में
अक्सर ऐसी खबरें छपती हैं
जिसमें औरत होती है ...बच्चे होते हैं
और होती है "भूख"
भूख के कारण बच्चों के साथ
जहर खाकर..कभी जलकर
कटकर,तो कभी डूबकर मर जाती है औरत
लोग कुछ पल ठिठकते हैं ..अफ़सोस करते हैं
फिर चल देते हैं अपनी राह |
भूख से जुड़ी कुछ और भी खबरें होती हैं
जो चर्चा में रहती हैं कुछ दिन
उसमें भी औरत होती है...बच्चे होते हैं
पर औरत बच्चों को छोड़कर भाग जाती है
उस" भूख" को अखबार
"हवस"का नाम देते हैं ,लोग भी !
जिसके लिए एक-दो-तीन नहीं
कभी-कभी आठ बच्चों को भी
छोड़कर भाग जाती है औरत |
सोचती हूँ
अगर "भूख" ही सच है तो
उस औरत को भूख तब क्यों नहीं सताती
जब कुमारी होती हैं या
तब,जब यौवन के उत्कर्ष पर होती है
क्या ढलने के बाद ही अधिक सताती है
देह की भूख ?
और क्या निर्दोष होता है बिलकुल
औरत का निर्दोष माना जाता पति
जिससे एक औरत की भूख नहीं संभलती ?
जिस समाज में पेट के लिए
औरत बिकती हो,समझौते करती हो
हत्या-आत्महत्या करती हो
वहाँ सिर्फ उसका भागना ही
इतना खतरनाक मुद्दा क्यों है?

अमृत

मन-समुद्र में
होता रहता है
मंथन हर पल
निकलता है
हर बार विष
निराश नहीं हूँ
कभी तो निकलेगा
अमृत |

मानसिकता

ठसाठस भरी बस में
चढ़ती है एक स्त्री
युवक बैठे रहते हैं
एक बूढ़ा उठ जाता है
युवक मुस्कुराते हैं
'चालू बूढ़ा'|
दायरा

स्त्री 1

अनंत तक होकर भी
क्यों लौट आती है
उसी परिचित दायरे में
जहाँ होता है उसका
कोई बहुत अपना
मनचाहा सपना |
बेहतर जगह

स्त्री 2

जिंदगी भर ढूंढती है
सिर छुपाने की जगह
और अंत तक नहीं मिलती
अपनी हथेलियों से
बेहतर जगह |

इच्छा

मुझे
सूरजमुखी बनने की चाह नहीं
नहीं चाहती मैं
जमीन से जुड़ी रहकर भी
ताकती रहूँ आकाश
सूरज की कृपा पर
खिलूँ
मुरझाऊँ|

सपने

पहला सपना टूटा
लगा काट ली हो
किसी ने किसान की पहली फसल
फसल बोई जाती रही
काटी जाती रही
अब उनकी नजर खेत पर है
कहाँ बोऊँगी सपने |

जैसे

तुम्हारे कठोर शब्दों को
सहकर जिन्दा हूँ
जैसे चट्टानों को धारण कर
धरती कायम है |

विश्वास

हमारे-तुम्हारे बीच
दूरियाँ कुछ खास हैं
फिर भी मैं
पहुँच जाऊँगी
तुम तक
मन को ये विश्वास है |

चल-आजादी

ओ री भोली चिड़िया
तू ऐसी निश्चिन्त बैठी है !
जानती नहीं -"सावधानी हटी,दुर्घटना घटी"
आजादी की उड़ान भरी है तो
उड़ो,निरंतर फैला कर पर
ताक में हैं सूखी डालियाँ तक
कि थके कभी तो तू
और कसे उनका शिकंजा
चिड़ियों की चल-आजादी के शत्रु हैं
जो चल नहीं सकते
जिन्हें उड़ना नहीं आता |

सहेली

धूप में तपकर काम से खटकर
ज्यों मैं घर पर आती हूँ
चीं-चीं करतीं मेरी सखियाँ
मेरे पास आ जाती हैं
कोई चूमती हाथों को
कोई कंधे सहलाती हैं
दाना-पानी कर लो जल्दी
वे मुझको समझाती हैं
कंचे जैसी इनकी आँखें
जुड़ी लौंग-सी चोंच
जैसे चाहे मुड़ जाए
ऐसी देह में लोच
इनकी छुअन से
फर-फर करके
मेरी थकान उड़ जाए
सुबह-सवेरे मुझे उठाती
रात को मगर जल्दी सो जाती
दिन-भर चाहे रहें कहीं पर
शाम-ढले घर आ जातीं
मैं अब नहीं अकेली
घर में मेरे कई सहेली !

रचनाकार

स्त्री लिखते समय ही होती है
रचनाकार
या तब भी
जब बना रही होती है कोई व्यंजन
रसोईघर में
निखार रही होती है
दाल -चाय -सब्जी के
पीले -कत्थई-हरे रंगों को
रच रही होती है
अपने भीतर एक नया इन्सान
क्या तब भी स्त्री रचनाकार नहीं होती ?

 चाची

ब्याह के आईं तो लाल गुलाब थीं
जल्द ही पीला कनेर हो गयीं चाची
घर भर को पसंद था
उनके हाथ का सुस्वाद भोजन
कड़ाई-बुनाई-सिलाई
सलीका-तरीका
बोली-बानी
बात-व्यवहार
नापसंद कि दहेज कम लाई थी चाची
जाड़े की रात में ठंडे पानी से नहातीं
झीनी साड़ी पहनतीं
गूंज रहे होते जब कमरे में
चाचा के खर्राटे
बेचैनी से बरामदे में टहलतीं
जाने किस आग में जलतीं थीं चाची
चाचा जब गए विदेश
एक हरा आदमी उनसे मिलने आया
बचपन का साथी है _कहकर जब वे मुस्कुराईं
मुझे बिहारी की नायिका नजर आईं चाची
उस दिन से चाची हरी होती गयीं
दोनों सुग्गा-सुग्गी बन गए
पर जिस दिन लौटे चाचा
नीली नजर आईं चाची
सोचती हूँ _काश,मैं दे सकती पंख
खोल सकती खिड़की-दरवाजे
उड़ा सकती सुग्गी को सुग्गे के पास |

वे भी

जब भी उठाती हूँ कलम
फर्श खिसखिसाने लगता है
छत के कोने जालों से भर जाते हैं
रसोई में बर्तन लड़ने लगते हैं
चूहे और बिल्ली झगड़ने लगते हैं
पति के चेहरे पर झलकने लगता है तनाव
"आज कुछ स्पेशल खाने का मन था"
वही झाडूं,पोंछा,रसोई
बच्चों की जरूरतें वही
पति की चाहतें
सब कुछ वही ...वही
वे कहते हैं -
औरतों का दायरा बहुत ही छोटा होता है
निकल नहीं पातीं
प्रेम,पति,घर-परिवार से बाहर
लोपा-मुद्रा और रोमाशा थीं ऋषिकाएँ
की वैदिक मंत्रों की रचना
पर वर्ण्य-विषय वही का वही
सोच सकती हैं बड़ा
न लिख सकती हैं
सच तो यह भी है
न हों अगर औरतों के दायरे छोटे
वे भी नहीं बन पाएँगे बड़े |

मैं बेचारी अह्ल्या

तुम इंद्र
गौतम
राम
चाहें जिस रूप में रहे
कब समझा है मुझे
कुदृष्टि
शाप
उद्धार
यही रही मेरी नियति
हर बार गलत ठहराई गई मैं
तुम
देवताओं के राजा
धर्म रक्षक
उद्धारक महान बने
और मैं
हर बार
बेचारी अहल्या |

अजनबी स्त्री

जब भी देखती हूँ दर्पण
चौंक जाती हूँ
कौन है यह स्त्री ?
मैं खुद को नहीं पहचानती
जीवन में किया जो भी काम
जैसे मैंने नहीं किया
किया उसी अजनबी स्त्री ने
जब-जब मिली बधाइयाँ
या धिक्कार
मैं ताकती रह गयी
लोगों का मुँह
'क्या यह मैंने किया ?'
जब भी सोचा ज्यादा इस बारे में
हो गयी बीमार
इसलिए बस उसी पल को जीती रही
करती रही वही काम
जो होता रहा सामने और जरूरी
भविष्य के बारे में नहीं बना सकी योजना
हालाँकि लोग जब कहते हैं-
छोटी उम्र में मैंने
किया है बहुत-सा काम
बड़ी डिग्री
कई किताबें
इतना नाम
रूप-रंग..भव्य व्यक्तित्व
क्या नहीं है मेरे पास!
मैं सोचने लगती हूँ-क्या ये कर रहे हैं
मेरे ही बारे में बात ?
वह कौन स्त्री है,जो इतनी आकर्षक है
जिसने किया है इतना सारा काम!
मैं तो नहीं हो सकती
क्या वह रहती है मेरे ही भीतर
जिसे लोग जानते-पहचानते हैं
मैं नहीं जानती !
कुछ मुझे बोल्ड कहते हैं
जो मैं नहीं हूँ
कुछ सफल कहते हैं
जो महसूस नहीं किया कभी खुद को
बेटी,बहन,प्रेयसी,पत्नी
यहाँ तक कि माँ कहकर
पुकारता है जब कोई
मैं परेशान हो जाती हूँ
क्या ये पूर्व जन्म के रिश्ते हैं
जिनके प्रेत लगे हुए हैं मेरे पीछे
जीने नहीं देते सामान्य जिंदगी मुझे
एक जन्म में कितनी बार जन्मी हूँ मैं
कितने रिश्तों को जीया है
जब भी गिनती हूँ
घबरा जाती हूँ
कि क्या ये मैं हूँ ?
मेरी बेचैनी का सबब यह भी है कि
मुझ पर जितने जीवन जीने का आरोप है
उसे जीया है दूसरी स्त्रियों ने,मैंने नहीं
मैंने तो जब भी अपने बारे में सोचा है
आ खड़ी हुई है सामने
एक भोली,मासूम,निर्दोष बच्ची
जो चाहती है प्यार
वह ना तो बड़े काम कर सकती है
ना गलत
इसलिए दर्पण में खड़ी स्त्री को देखकर
विश्वास नहीं होता कि ये मैं हूँ
मेरी कविताओं में जो स्त्रियाँ हैं
उन्हें भी तो जीती हूँ मैं
तो क्या सभी स्त्रियाँ मैं ही हूँ
लोग दावा करते हैं मेरे बारे में
सब-कुछ जानने का
मैं भी कर सकती हूँ यह
उनके बारे में
पर नहीं कह सकती
दावे के साथ कि
कि मैं ..मैं ही हूँ
क्या ये कोई मनोरोग है !
माँ कहती है -तुम्हारा दिमाग
बचपन से ही कमजोर है |

घास छीलती स्त्री

कई दिन से देख रही हूँ
सामने के मैदान में
घास छीलती स्त्री को
साठ की उम्र
झुकी कमर व सफेद बाल
हाथों में कमाल इतना
कि एक पल में ही
लगा देती है घास का ढेर
'सहज होता होगा घास छीलना'
सोचा था बचपन में मैंने
छीनकर सुरसतिया के हाथ से खुरपी
छीलना चाहा था घास
और घायल करके अंगुलियाँ
पकड़ लिया था कान  |
'पढ़ोगी नहीं तो घास छीलोगी'
मास्टर साहब की ये बात
हमेशा याद रखी मैंने
सोचती हूँ-घास छिलती हुई स्त्री ने
शायद नहीं सुनी होगी
अपने मास्टर की बात !
पास जाकर पूछती हूँ
स्त्री व्यंग्य से
देखती है कुछ पल मुझे
फिर पैर के पंजों पर
तेजी से सरकती
घास का लगाने लगती है यूँ ढेर
मानों ढेर कर रही हो व्यवस्था |

चश्मा केस

मेरे सामने मेज पर एक चश्मा-केस है
जिसे भूल गए थे तुम उसी तरह
जैसे भूल जाते हो अक्सर मुझे |
केस की मजबूती में सुरक्षित रहता है
कोमल चश्मा
जैसे आघातों के बीच तुम्हारा प्रेम
हालांकि केस की तरह कठोर लगता है
तुम्हारा ऊपरी आवरण भी
पर जानती हूँ तुम काठ नहीं |
केस छूट जाने से हुए थे तुम परेशान
मानो छूट गया हो अपराध का कोई प्रमाण
जबकि छूट जाते हो तुम खुद
देह-मन और घर के कोने-अतरों में
हर बार |
‘प्रेम खुले तो उड़ जाती हैं धज्जियाँ’
बताते हुए तुम ऐसे ही खाली लगते हो
जैसे बिना चश्मे का
तुम्हारा यह चश्मा केस |

बोनसाई

चाहता था मैं
छतनार वृक्ष होना
थके राही विश्राम पाएं
जिसकी छाँह में
गिलहरियां दौड़े
जिसके मोटे तनों पर
पक्षी घोंसले बनाएं
सूखी डालियाँ,पीले पत्ते
गरीबों का ईंधन बनें
जड़ें अन्वेषण करें
दूर तक जाकर भोजन की
गहरे पैठें धरती में
मीठे पानी की तलाश में
पर कमरे में हरियाली कैद करने की
तुम्हारी लालसा ने
बनाया मुझे बोनसाई
गमले-भर मिट्टी
अंजुरी-भर खाद
चुल्लू-भर पानी
विस्तार की सारी आकांक्षाएं
इन्हीं सीमाओं में
कैद कर दी गईं
कमरे के बाहर का आकाश
हवा,धूप,बारिश
झूमते सजातीय बन्धु
सब पराये कर दिए गए
जब भी मैंने बाहें फैलानी चाहीं
कस दिया तुमने
धातु के तार में
कैंची चलाई
मेरी पीड़ा सुने वगैर
पक्षी नहीं आते घोंसला बनाने
मेरी बाहें सूनी रह जाती हैं
तुम्हारे ड्राइंगरूम की
शोभा बना मैं बोनसाई
तुम्हारे इच्छाओं का दास|

किससे मुक्त होना है मुझे

मेरे भीतर एक पुरूष रहता है एक स्त्री के साथ
दोनों में से तकलीफ किसी को पहुँचे
तड़पती हूँ मैं ही
पुरूष हँसता रहता है अक्सर स्त्री रोती रहती है
अक्सर ही उनमें छिड़ा रहता है विवाद
जब-जब कहा जाता है पुरूष-विरोधी मुझे
ठठाकर हँसता है मेरे भीतर का पुरूष
चिढाता हुआ स्त्री को-क्या सच !
तिलमिलाकर रह जाती है स्त्री मेरे भीतर की |
स्त्री के रोने की कई वजहें हैं जो पुरूष के लिए
कभी भी खास नहीं होतीं
मसलन स्त्री को अपने ही नहीं
दूसरी स्त्रियों के दुःख भी सालते हैं
विशेषकर तब,जब मिलें हों किसी पुरूष से
तब वह चिल्लाती है इतना कि बेदम होकर हांफने लगती है
अक्सर बीमार हो जाती है तब पुरूष ही संभालता है उसे
वह रोने लगती है फिर कि दुःख की वजह और इलाज
दोनों ही क्यों है पुरूष ?
कभी-कभी उसे अपनी इस कमजोरी पर होती है कोफ़्त
कि हर हाल में क्यों चाहती है पुरूष का प्यार ?
जबकि जब नाराज होता है पुरूष
तो होता है नाराज ही तुरत ही कर लेता है अलग खुद को
तब असहनीय दर्द से छटपटाती है स्त्री
भले ही जताने की कोशिश करे कि कोई फर्क नहीं पड़ता
उसे भी
पर बड़ा खोखला साबित होता है उसका विश्वास
उसे हर पल पुरूष की याद आती है
वह रोने लगती है फिर
दिन ...महीने ...वर्ष लग जाते हैं उसे
खुद पर काबू पाने में ..|
जब मेरे भीतर का पुरूष स्त्री के साथ प्रेम से रहता है
प्रेम में पड़ जाती हूँ मैं
बदल जाती है मेरी आवाज ..रूप -रंग ...दिनचर्या
सुंदर,कोमल,मधुर हो जाता है मेरा व्यक्तित्व
जन्म लेती हैं प्रेम-कविताएँ
मनुष्य हो जाती हूँ सही मायने में
पर जब रंग दिखलाता है वह
तकलीफ देने लगता है मेरी स्त्री को
बदल जाती हूँ मैं
करने लगती हूँ विमर्श की बातें
असफल हो जाता है मेरा प्रेम भी
तब सोचती हूँ -कब आया होगा यह पुरूष मेरे भीतर
शायद तभी जब मैं माँ के गर्भ में थी
माँ की पुत्र-कामना ने ही बोया होगा इसका बीज मेरे भीतर
तो मार क्यों न डालूँ इस पुरूष को
सोचते हुए मार भी देती हूँ अक्सर उसे
पर वह फिर-फिर जिन्दा हो जाता है
पता चलता है तब
जब फिर प्रेम हो जाता है मुझे |
मेरे भीतर एक पुरूष रहता है एक स्त्री के साथ
इनके प्रेम-घृणा, मान-अपमान
और विमर्शों के बीच झूलती मैं
अक्सर सोचती हूँ -किससे मुक्त होना है मुझे
स्त्री से या पुरूष से
क्या किसी एक के भी बिना
बच पाएगा मेरा अस्तित्व!
बन पाएगा पूर्ण व्यक्तित्व|

अच्छी चिड़िया

जब मैं कहती हूँ
चिड़िया
उसके पास होती है
तीखी चोंच
मजबूत पंजे
डाली को मजबूती से पकड़ना
जानती है वह
पहचानती है
कहाँ तक है आसमान
उड़ना कहाँ तक है !
समझती है
कहाँ बैठता है बाज
कैसा होता है जाल ?
कहते हो तुम
लड़की चिड़िया होती है
पर तीखी चोंच
मजबूत पंजे
जो बन सके हथियार
नहीं पसंद तुम्हें
तुम चाहते हो ऐसी चिड़िया
जो घर की छत को
आसमान समझे
माफ़ करना भाई
मेरी चिड़िया इतनी अच्छी
नहीं हो सकती |

इंसान नहीं था

मुझे इतनी जोर से प्यार मत करो अंकल
देखो तो,मेरे होंठो से निकल आया है खून
मेरे पापा धीरे से चूमते हैं सिर्फ माथा
मुझे मत मारो अंकल ..दुखता है
मैं आपकी बेटी से भी छोटी हूँ
क्या उसे भी मारते हो इसी तरह
मेरे कपड़े मत उतारो अंकल
अभी नवरात्रि में
चूनर ओढ़ाकर पूजा था न तुमने
तुम्हें क्या चाहिए अंकल
ले लो मेरी चेन घड़ी,टाप्स,पायल
और चाहिए तो ला दूंगी अपनी गुल्लक
उसमें ढेर सारे रूपये हैं
बचाया था अपनी गुड़िया की शादी के लिए
सब दे दूंगी तुम्हें
अंकल-अंकल ये मत करो
माँ कहती है -ये बुरा काम होता है
भगवान जी तुम्हें पाप दे देंगे
छोड़ो मुझे,वरना भगवान जी को बुलाऊंगी
टीचर कहती हैं -भगवान बच्चों की बात सुनते हैं
...अब बच्ची लगातार चीख रही थी
पर भगवान तो क्या,दूर-दूर तक
कोई इंसान भी न था |

साड़ी और जींस

एक दिन जींस और साड़ी में हो गई तकरार
कहा साड़ी ने ठसक से
-मैं हूँ मर्यादा,परम्परा,संस्कृति-संस्कार
सौ प्रतिशत देशी
तू क्यों घुस आई मेरे देश में विदेशी
वैदिक-काल से मैं स्त्री की पहचान थी
आन-बान-शान थी
घूँघट आँचल और सम्मान थी
बेटियाँ बचपन में मुझे लपेट
माँ की नकल करती थीं
दसवीं के फेयरवेल तक
पिता को चिंतित कर देती थीं
उनकी पुतरी-कनिया भी
मुझे ही पहनती थीं
भारत-माँ हों या हमारी देवियाँ
देखा है कभी किसी ने
सिवा साड़ी के पहनते हुए कुछ
जबसे तू आई है बिगड़ गया है
सारा माहौल
हर जगह उड़ रहा है
मेरा मखौल
बेटियाँ तो बेटियाँ
गुड़िया तक जींस पहनने लगी है
गाँव-शहर की बड़ी-बूढ़ी भी
तुम्हारे लिए तरसने लगी हैं
ना तो तू रंग-बिरंगी है
ना रेशमी-मखमली
फिर भी जाने क्यों लगती है सबको भली
नए-नए फतवे हैं तुम्हारे खिलाफ
नाराज हैं तुमसे हमारे खाफ
फिर भी तू बेहया-सी यहीं पड़ी है
मेरी प्रतिस्पर्धा में खड़ी है |
मुस्कुराई जींस-
बहन साड़ी मत हो मुझपर नाराज
मैंने कहाँ छीना तुम्हारा राज
हो कोई भी पूजा-उत्सव
पहनी जाती हो तुम ही
सुना है कभी जींस में हुआ
किसी लड़की का ब्याह
फिर किस बात की तुमको आह
मैं तो हूँ बेरंग-बेनूर
साधारण-सी मजदूर
ना शिकन का डर,ना फटने का
मिलता है मुझसे आराम
दो जोड़ी में भी चल सकता है
वर्ष-भर का काम
तुम फट जाओ तो लोग फेंक देते हैं
मैं फट जाऊं तो फैशन समझ लेते हैं
अमीर-गरीब,स्त्री-पुरूष का भेद मिटाती हूँ
कीमती समय भी बचाती हूँ
युवा-पीढ़ी को अधिक कामकाजी
सहज और जनतांत्रिक बनाती हूँ
सोचो जरा द्रोपदी ने भी जींस पहनी होती
क्या दुःशासन की इतनी हिम्मत होती
फिर भी जाने क्यों पंडित-मौलवी और खाफ
रहते हैं मेरे खिलाफ
दीखता है उन्हें मुझमें अंहकार
और तुझमें संस्कार
जबकि सिर्फ अलग हैं हमारे नाम
करते हैं दोनों एक ही काम
सुनो बहन
देशी-विदेशी,अपने-पराये की बात आज बेकार है                    
,बसुधैव-कुटुम्बकम’ प्रगति का आधार है |

मेट्रो में महिला केबिन

पुरुष नाराज हैं
कि मैट्रो में महिला केबिन बन गए
ज्यादा नाराज हैं
कि उनके केबिनों में भी
महिलाओं के लिए आरक्षित जगह है
वे चाहते हैं
पुरुषों के भी ऐसे केबिन बनें
जहाँ महिलाएं प्रवेश न कर सकें
वे कहते हैं –कितनी ज्यादती है पुरुषों के साथ
कि आपातकाल में भी नहीं रख सकते
महिला केबिन में पाँव
भले ही केबिन पूरी तरह खाली हो
और वे जब चाहें घुस आएँ
जनरल केबिनों में साधिकार
दोनों केबिनों के बीच
जो [बाघा] बार्डर है
होती है लगभग रोज ही लड़ाई
स्त्री-पुरुष के बीच
स्त्री का पक्ष है
कि मेट्रो की भीड़ में
महिलाओं के बीच वे सुरक्षित हैं
अभद्रता छेड़खानी
अवसर देख मनमानी
नहीं कर पा सकने से
पुरुषों में बौखलाहट है
मैं चिंतित हूँ
निरंतर बढ़ती जाती
इस विभाजक रेखा से
बार्डर के दोनों तरफ
एक-दूसरे को शत्रु भाव से घूरते
गुर्राते-किटकिटाते
स्त्री-पुरुष आखिर
कौन सा इतिहास रच रहे हैं ?          

डर लगता है

आजकल
सुबह- शाम
मेरे घर में गूँज रही है
सुखद चहचहाहट
मेरी बसंतमालती के फूलों से भरे
पत्तों से सघन घर में
चिड़ियों ने अपना
घर-संसार बसाया है
मैं नहीं जानती
कि उनके चिड़े भी
साथ हैं या नहीं
कितने बच्चे हैं उनके
मेरे काम पर चले जाने के बाद
क्या करती है वे दिन-भर
किस-किस डाल पर बैठती हैं
कहाँ खाती-पीती हैं
मैं तो इसी में खुश हूँ
वे रहती हैं मेरे अकेलेपन के साथ
कभी-कभी डर लगता है
कहीं उन्हें भा ना जाए
कोई दूसरी सघन फूलों-फलों भरी लता
और मेरा घर फिर सूना हो जाए |

तुमने ठीक कहा था माँ

तुमने ठीक कहा था माँ
किसी पर भरोसा ना करना
ना करना प्यार
बहुत दुःख होता है
जब टूटता है भरोसा
छलता है प्यार
टूट जाते हैं सपने
उड़ जाती है आँखों की नींद
खो जाता है चैन
बोझ बन जाती है जिन्दगी
ऊपर से हँसता है संसार
तुमने ठीक कहा था माँ
तुमने ये तो बताया नहीं
कैसे जिया जा सकता है
बिना भरोसा
बिना प्यार के
अकेले |

मैं भी माँ हूँ

एक सपना
सूखे बीज की तरह
दबा रहा बरसो
मेरी कोख में
प्रेम-वर्षा में आकाश के
भीगकर कुछ पल
अंकुरित हुआ
बढ़ने लगा
अपनी छाती का रक्त पिलाकर
पाला उसे
बरसात में सूखा रखा
ग्रीष्म में नम
आज वह सबल,सक्षम वृक्ष है
पिता से हँसता-बतियाता है
दुनिया को देता है फल-फूल भरपूर
झुककर नहीं देखता कभी मेरी ओर
उसकी नजर में
मैं सूखी-बंजर जमीन हूँ
उसकी सफलता में कहीं नहीं हूँ
मैं भी जाने कैसी माँ हूँ !

एक लोक कथा को सुनकर

यह स्त्री सशक्तीकरण का दौर है
अब डरने की कोई बात नहीं
छिप कर रहने का समय गया
मैं भी हूँ आजाद
घूम-फिर सकती हूँ मर्जी से
झूम सकती हूँ प्रेम-बीन पर
-मुस्कुरा उठी सर्पिणी यह सोचकर
पेड़ की डाल पर बैठा बंदर
कुढ़ रहा था सर्पिणी को आजाद देखकर
कई बार कर चुका था कोशिश
उसे लुभाने की ..डराने की
चाहता था कि उसकी ही बोली बोले सर्पिणी
सर्पिणी पर जागरण क भूत सवार था
एक दिन हद हो गयी
नाराज बंदर ने लपक कर पकड़ ली उसकी गर्दन
और जा बैठा सबसे ऊंची डाल पर
सर्पिणी का चेहरा अपने चेहरे के सामने कर बोला
-बोल कू ऊउउऊ
कैसे बोले सर्पिणी
गर्दन की नसें तन गयी थीं
मुँह लाल था मजबूत मुट्ठियों की गिरफ्त में
छटपटा रही थी वह
बंदर और नाराज हुआ
कि नहीं निकली अभी अकड़
और रगड़ डाला बेदर्दी से
उसका मुँह डाल से
फिर चलता ही रहा यह क्रम
मुँह का डाल से रगड़ना
फिर चेहरे के सामने चेहरा लाकर
अपनी बोली बोलने को कहना
सर्पिणी कमजोर नहीं थी
था उसे नियम-कानून भी पता
छूट पाती तो हर लेती अपने विष से
बंदर के प्राण
कमजोर नस बंदर के गिरफ्त में थी
इसलिए विवश थी
अंतत: वह निर्जीव हो गयी
तब फेंककर उसे बेदर्दी से धरती पर
बंदर जोर से हँसा-वाह रे,स्त्री जागरण !

जलकुम्भी

न जाने किस सम्मोहन में बंधी
आई थी तुम यहाँ
किसी ने भी तो
स्वागत नहीं किया तुम्हारा
आश्रय दिया जब गदले पानी ने
तुम उसी की होकर रह गयी
हमेशा के लिए
बनाया साफ़-सुंदर-स्वच्छ उसे
डालकर अपना हरा आँचल
कुछ नहीं चाहा अपने लिए
बार-बार काटा गया तुम्हें
धूप ने भी जलाया खूब
फिर भी नहीं नष्ट हुई
तुम्हारी जड़ें
बेहया-सी जिन्दा रही
तुम हर हाल में
जलकुम्भी
क्या इसलिए बुरी हो तुम
कि पनप जाती हो हर बार
काट दिए जाने के बाद भी
कि हर हाल में निभाती हो
सिर्फ एक का साथ
कि बिखेरती रहती हो
विपरीत परिस्थितियों में भी
अपनी भोली बैगनी हँसी |

मैं जीत जाऊँगी

मैं
बार-बार हारकर भी
हार नहीं मानती
अकेले लड़ती रहती हूँ
एक लम्बी लड़ाई
जिंदगी
और वक्त के
कठोर ..क्रूर पंजों में
तिलमिलाती
छटपटाती
मैं
सोचती रहती हूँ
कभी तो कोई आएगा
चिर प्रतीक्षित
और
मैं
जीत जाऊँगी|
देह-तन्त्र में स्त्री का जनतंत्र
माना कि तुम्हारे देश में
आजाद है स्त्री
कुछ भी करने को
कोई कुछ नहीं कहता उसे
वह किसी भी समय
कैसे भी कपड़ों में
अकेली या किसी के भी साथ
आ-जा सकती है
घूम सकती है
पी सकती है
[सो भी सकती है]
पुलिस उसकी सुरक्षा के लिए है
पीकर गिर जाने पर उसे
सुरक्षित जगह पहुंचाती है
जरूरत पर अस्पताल
सरकार को चिंता है
उसकी सेहत की
हर हफ्ते मुफ्त निरीक्षण कराती है
निरोधक सामग्रियां उपलब्ध कराती है
छोटे-बड़े कई रोजगार है उसके लिए
दूकान-रेस्तरां,बार,डिस्कोथेक
मसाज-पार्लर,होटलों में
वेटर से मैनेजर तक बन सकती है
साईकिल-मोटरसाइकिल पर
फेरी लगा सकती है
सड़कों के किनारे फूल-खिलौने
सिगरेटें बेच सकती है
कहीं कोई दबाव,जोर-जबरदस्ती
या बलात्कार नहीं
न देह पर,ना मन पर
ना ही जीवन पर
उसका निश्चिंत चेहरा देखकर लगता है
सुखी और सुरक्षित है तुम्हारी स्त्री
देश का अर्थतन्त्र उसके हाथ में है
पर क्या यह सच है?
तुम कहते हो –“सैलानियों का स्वर्ग है मेरा देश”
एक बात बताओ -इस स्वर्ग में
क्यों आते हैं अधिकतर पुरूष-सैलानी ही ?
क्या इसलिए नहीं कि अप्सराओं की तरह
कामनाओं को उत्तेजित और संतुष्ट करती
हर तरह की
हर उम्र,हर कीमत की
और हर तरह से पुरूषों का
मन बहलाने को
उपलब्ध है स्त्री यहाँ
तन-मन और क़ानून की
किसी भी उलझन के बिना |
कैसा जनतंत्र है तुम्हारा
जहाँ स्त्री स्वतंत्र नहीं है
खड़ी रहती है
शो-विंडों में पुतलों की जगह
दिखाए जाते हैं उसके स्त्री-अंग स्क्रीनों पर
ग्राहकों के बेहतर चयन के लिए
दिन-भर कई सारे दूसरे काम करने के बावजूद
रात को ग्राहक तलाशती है वह ?
 इसे आजादी कहेंगे कि
गरीबी..मजबूरी..लाचारी
या सुविधा-साधनों की प्यास
या कुछ और !
कि गांवों से भी पुरूष अपनी स्त्रियों को
शाम-ढले छोड़ने आते हैं शहर
और सुबह ले जाते हैं
बिना किसी अपराध-बोध के !
जिस तन्त्र में
टूरिज्म और अर्थव्यवस्था
स्त्री-देह पर टिकी हो
बिना भावना व एहसास के
स्त्री देह बेचती हो
उसे पुरूष-जनतंत्र तुम भले कहो
वह स्त्री का जनतंत्र कभी नहीं हो सकता |

द्रोपदी और सभा

नए हस्तिनापुर में एक बार फिर पुरानी घटना दुहराई गई |इस बार द्रोपदी घसीटकर नहीं,सम्मान से बुलाई गई |मंशा थी वही देखने को अग्निगर्भा को अपमान में निर्वसन|द्रोपदी को संदेह था कुछ-कुछ,पर भरोसा था खुद पर कि कर लेगी सामना चाहे जैसी आए परिस्थिति|सभा शुरू हुई और अपने-अपने क्षेत्र के महारथी देहबल से नहीं,बुद्धिबल से खींचने लगे द्रोपदी की चीर |वे देखना चाहते थे महाभारत की द्रोपदी की तरह आज की द्रोपदी को भी निस्तेज,बेवश और लाचार |थे आश्वस्त भी कि नहीं है कलयुग में कोई कृष्ण,जो आएगा बचने द्रोपदी की लाज |इसलिए और भी शेर हो रहे थे वे,जो दरअसल सियार थे |अपनी कुंठा,बदसूरती को छिपाने के लिए रंग लिया था खुद को लाल रंग में यानी रंगे हुए सियार थे |द्रोपदी सोच रही थी कि ये जो महारथी बन उस पर जोर आजमा रहे हैं,कई तो चरणों में उसके गिड़गिड़ा चुके हैं |उसके इंकार का बदला लेने के लिए साजिशन आज एकजुट हुए हैं|एक अकेली स्त्री को पराजित करने के लिए इतने पुरूषों का संगठित प्रयास !शक्ति-रूपा स्त्री को नग्न करने की फिर-फिर आस!वे हँस रहे थे,मुस्कुरा रहे थे,विजयी भाव से |भूल गए थे शायद कि वह आज की द्रोपदी है,जिसने प्रसाद की तरह बंटने से इंकार किया है |उसे ही अपनाया है,जिससे प्यार किया है |मुहताज नहीं कृष्ण की,अपनी कृष्ण खुद है |स्त्री की शालीनता में कब तक निर्लज्जता को सहती ?सियारों की हुआ-हुआ शेरनी कब तक सहती ?वह दहाड़ी,तो सभा हिल उठी |महारथी फिर सियार हुए और सभा विसर्जित हुई |

रमरतिया

पांच बच्चों की माँ थी रमरतिया
औरत के नाम पर कलंक थी
डायन,कठकरेजी,छिनाल थी रमरतिया
बच्चों का मुँह भी नहीं देखा
और चुपचाप भाग गयी रमरतिया
अपने इर्द-गिर्द भिनकते बच्चों को बिठाये
गरिया-गरिया कर भड़ास निकाल रहा था
रमरतिया का शराबी पति
सबकी सहानुभूति उसी के साथ थी
मेरी आँखों के सामने नाच गयी
मेहनत-मजूरी करती रमरतिया
पति की मार-गाली खाती रमरतिया
बच्चों के पीछे कउवाहँकनी बनी रमरतिया
आज अचानक कहीं चली गयी
साँवली-सलोनी,छरहरी रमरतिया
सोचती हूँ
जाने,कहाँ,किस हाल में होगी रमरतिया?

औरत होना

'पोते की शादी है नाचो माँ'
कहा मैंने माँ से -
पकड़कर ले आई ड़ीजे के जगमगाते फर्श पर
नए गाने,नए तराने
नए लड़के-लड़कियाँ
एक नयी दुनिया
बिलकुल अलग, माँ की जी हुई दुनिया से
फिर भी नाची माँ
खूब नाची
हाथ उठाकर कमर हिलाकर
भीगी आँखों से माँ के नृत्य को
कैमरे में कैद करती
सोचती रही मैं -कितनी घुलनशील होती है औरत
जैसे ढालो ढल जाती है
हर रूप हर माहौल में रंग भर जाती है
पर इतना नाचने के बाद भी
आंचल सिर पर रखना नहीं भूली माँ
औरत होना नहीं भूली माँ|
माँ का बुढ़ापा
तुम्हारा आंचल कितना बड़ा था माँ
समां जाते थे जिसमें मेरे सारे खेल
सारे सपने सारी गुस्ताखियाँ
मेरा दामन कितना छोटा है माँ
नहीं समा पाता जिसमें
तुम्हारा बुढ़ापा!

बेटी

मैं एक समर्थ माँ
चलती हूँ उठाकर
ढेर-सी जिम्मेदारियां
घर और बाहर की
थक जाती हूँ जब
लेटकर कुछ क्षण
तुम्हारे पास
लिपटा लेती हूँ तुम्हें
तुम्हारी नन्हीं अंगुलियां
सहलाने लगती हैं
मेरे गालों और बालों को स्नेह से
तब अनायास
फुर्र हो जाती है सारी थकान
बन जाती हूँ मैं
एक नन्हीं बच्ची
और तुम मेरी माँ |

बेटे

तेरे पिता के घर
मैं कभी नहीं आऊँगी
तुम बुलाओगे तब भी नहीं
तुम मेरे लिए
आज भी उसी उम्र में हो
बमुश्किल पांच वर्ष के
जब अलगा दिए गए थे मुझसे
तुम्हारा नन्हा नेकर
मोज़े
फूलों वाला स्वेटर
सुरक्षित है मेरे पास
तुम्हारी वह कॉपी
जिस पर लिखा था तुमने
जल,फल,कल
कैट,मैट,रैट
और एक से पच्चीस तक गिनती
एकांत में चूमती हूँ
सीने से लगाती हूँ
मानों गले से लगाया है
तुम्हें ही
जब भी आती है सर्दी
बेचैन हो जाती हूँ
कि इसी मौसम में
जकड़ती है तुम्हारी छाती
सपने में तुम्हें गर्म कपड़े
पहनाती हूँ
फिर भी नहीं लौटूँगी
तुम्हारे पिता के घर
क्योंकि माँ से पहले एक औरत हूँ |

योद्धा स्त्री

सुबह –सबेरे निकलती है
स्त्री
झेलती है
देह और मन पर
टुच्ची निगाहों
बातों और
हरकतों के वार
दिन भर करती हुई काम
पाती है सहकर्मियों की
आँखों और होंठों पर
मुस्कान |
दफ़्तर
बाजार
सड़क
समारोह
घर
हर जगह वही..वही
सिर्फ देह समझे जाने का अपमान
घर लौटकर साबुन-पानी और आंसुओं से
रगड़-रगड़कर धोती है
देह और मन पर चिपकी गंदगी
देर रात तक बिस्तर पर लेटे
सोचती है-
‘इन दिनों जल्दी थकने लगी हूँ
कैसे चलेगा ऐसे’
एक अनिश्चित भविष्य
उड़ा देता है उसकी नींद
फूट-फूटकर रोती है
दिन भर तटस्थ रही स्त्री
जाने कब उतर आता है
नींद में उसका मनचाहा पुरुष
टूटता है सपना
सोचती है स्त्री
क्यों होता है उसकी आँखों का सपना
फिर-फिर वही पुरुष
जिसकी हकीकत जान चुकी है
सपनों से ठगी गयी स्त्री
सुबह होते ही चल पड़ती है
फिर अपने मोर्चे पर |

तुम्हारा भय

रिक्तता भरने के लिए
तुमने चुनी स्त्री
और भयभीत हो गए
तुमने बनाये
चिकें..किवाड़ ..परदे
फिर भी तुम्हारा डर नहीं गया
तुमने ईजाद किए
तीज ..व्रत,पूजा-पाठ
नाना आडम्बर
मगर डर नहीं गया
तुमने तब्दील कर दिया उसे
गूँगी मशीन में
लेकिन संदेह नहीं गया
जब भी देखते हो तुम
खुली खिड़की या झरोखा
लगवा देते हो नई चिकें
नए किवाड़ ..नए पर्दे
ताकि आजादी की हवा में
खुद को पहचान न ले स्त्री |

पर्व-त्यौहार

पर्व-त्यौहार
हँसते-खिलखिलाते बच्चों की तरह
झाँक लेते हैं कभी -कभी
उस घर में
जिसकी खिड़की के पास
रहती है
प्रतीक्षा -रत
एक स्त्री
अंदर नहीं आते हैं
पर्व-त्योहार
दूर से ही
हेलो-हाय कर लेते हैं
वह चाहती है उन्हें बुलाना
वे हाथ हिलाकर बढ़ जाते हैं आगे
कभी मजाक में मुँह भी बिरा देते हैं
कंकड़ी भी फेंक देते हैं
शांत मन के पसरे सन्नाटे में
कुछ अनचाहे हिलोर पैदा करते हुए
उसके घर को छूने से बचते हैं |

मेरी दाई

मेरी दाई का मरद
अक्सर भाग जाता है
चार बच्चों के साथ अकेला छोड़कर उसे
इस दावे के साथ
कि औरत तो मिल जाती है कहीं भी
और जब चाहे लौटकर
लेट जाता है उसके पास
इस अधिकार से
 कि पति है
दाई रोती  है ..कलपती है
फिर भी मांग में
चटख सिन्दूर भरती है
करती है सुहाग वाले सारे व्रत
साँवली-सलोनी ,छरहरी दाई
घर -घर मांजती है बरतन
पालती है बच्चों का पेट
नाक पर बैठने नहीं देती
मक्खी भी
ठसक ऐसी कि छोड़ देती है
धन्ना सेठों का भी काम
ठीकरा समझती है पैसे को
आबरू के आगे
पर नहीं कर पाती लागू
अपने बनाये नियम
शराबी ,भगोड़े पति पर
टोकने पर कहती है "_इ  त अउरत के धरम ह दीदी "
और मैं सोचती हूँ _’इतना अलग क्यों है स्त्री का धरम
पुरूष के धरम से|’

रवना

क्यों रवना
तुमने क्यों दी स्वीकृति
कि काट ले तुम्हारी जीभ
तुम्हारे ही कोख का जना
रक्त से पला-बढा
पति आर्यभट्ट की आज्ञा थी
काट ली जाए तुम्हारी जीभ
तुम दुराचारिणी नहीं थी
ना ही तोड़ी थी
पिता या पति के कुल की मर्यादा
तुम्हारी जीभ पर सरस्वती का वास था
बस यही तुम्हारा अपराध था
थी “पाटीगणित”में इतनी प्रवीण
कि भारी पड़ गयी गणितज्ञ पति पर
बुलाया गया राज सभा में सम्मान के लिए
पति के दम्भ पर चोट लगी
दे दिया पुत्र को आदेश
कि काट ले तुम्हारी जीभ
जिस पर विराजती है सरस्वती
धर्मसंकट पुत्र का नहीं देखा गया तुमसे
दे दी स्वीकृति
तुमने ऐसा क्यों किया रमना
क्यों नहीं खड़ी हुई इस अन्याय के खिलाफ
क्या नहीं जानती थी
कि इस देश में
स्त्री को स्त्री होने का दंड दिलाया जाता है
पुत्र के हाथों
मातृत्व के महिमा-मंडन के नाम पर
कि स्त्री की दो अंगुल मात्र प्रज्ञा ही
सहन कर पाती है पितृसत्ता
अधिक बुद्धि महंगी पड़ती है उसे
अपाला से गार्गी तक का लम्बा इतिहास है
खड़ा होना चाहिए था तुम्हें इस व्यवस्था के खिलाफ
तुम्हारे व्यक्ति पर क्यों हावी हो गयी
वही सनातन स्त्री
जिसकी दुनिया घूमती है
एक छोटे दायरे में साजिशन
और ताना भी सुनती है वही
कि नहीं है बड़े दायरे के लायक
रवना आज भी जब किसान
तुम्हारी अन्वेषित पद्धति से
भविष्यवाणी करते हैं वारिश और सूखे की
सोचती हूँ मैं
नहीं दिया होता जो तुमने
पुरूष की अहंकार-वेदी पर अपना बलिदान
कितना कुछ दिया होता संसार को |

भाई!सच –सच बतलाना

सुबह से देर रात तक काम करती
फिर भी न थकती माँ
बेतरह थक जाती
जब पिता प्रेम की जगह
गालियाँ बरसाते
माँ हमें सीने से लगाकर रोती
रोते-रोते सो जाया करती
दागदार होता रहा माँ का
धुला कलफदार आंचल
हल्दी,तेल,आँसू से
चीकट होती माँ ने
एक दिन माँ से अलग
अपने इंसान होने का
सपना देखा
और उस सपने ने तोड़ दीं दीवारें
ढाह दी छत
पिता तुम्हें लेकर चले गए
माँ रोती रही मुझ अकेली को
सीने से लगाये
इन्सान होने का सपना कलमुंहा लगने लगा
फिर एक दिन जब तुम
पिता की बारात में गए थे
माँ रो रही थी
अपने लिए नहीं
तुम्हारे लिए
धीरे-धीरे माँ ने जीना सीख लिया
देखने लगी सपने जीवन के
उसकी आँखों को भी भाने लगा
एक महबूब चेहरा
अब वह भी शुरू करने जा रही है
एक नया जीवन
मैं खुश हूँ
पर तुम बौखला उठे हो
औरों के साथ
तभी तो वैसा ही गालियों-भरा पत्र
माँ को लिखकर भेजा है
जैसा दिया करते थे पिता
भाई,क्यों तुम्हें स्वीकार नहीं है
कि माँ नया जीवन जीये
पिता ने तो आदम हक समझकर
ऐसा किया था
तुम भी तो साक्षी थे
क्या माँ ऐसा इसलिए नहीं कर सकती
कि माँ है
सच-सच बतलाना भाई !
माँ क्या इंसान नहीं होती ?
क्या देह पिता की ही होती है
माँ की नहीं ?

अजीब

जब मैंने तुम्हें पिता कहा
हँस पड़े तुम
मजाक मानकर
जबकि यह सच था
तब से आज तक का सच
जब पहली बार मिले थे हम
तुम्हारा कद ..चेहरा
बोली –बानी
रहन –सहन
सब कुछ अलग था पिता से
फिर भी जाने क्यों
तुम्हारी दृष्टि
हँसी
स्पर्श
और चिंता में
पिता दिखे मुझे
मेले में तुम्हारी अंगुली पकड़े
निश्चिन्त घूमती रही मैं
पूरी करवाती रही अपनी जिद
मचलती-रूठती
तुरत मान जाती रही
तुम निहाल भाव से
मुझे देखते और मुस्कराते रहे
मैंने यह कभी नहीं सोचा
कि क्या सोचते हो तुम मेरे बारे में
तुमने भी नहीं चाहा जानना
कि किस भाव से इतनी करीब हूँ मैं
आज जब तुमने कहा मुझे ‘प्रिया’
मैंने झटक दिया तुम्हारा हाथ
कि कैसे कर सकता है पिता
अपनी ही पुत्री से प्यार !
मैं आहत थी उस बच्ची की तरह
जिसने पढ़ लिया हो
पिता की आँखों में कुविचार
नाराज हो तुम भी
कि समवयस्क कैसे हो सकता है पिता
कर सकता है इतना प्यार
एक कल्पित रिश्ते को
निभा सकता है आजीवन
तुम जा रहे हो मुझसे दूर
मैं दुखी हूँ
तुम्हारा जाना पिता का जाना है
जैसे आना
पिता का आना था |

भाड़ में जाओ

भाड़ में जाना उसके लिए
रोजी है ..गाली नहीं
मुर्गों को उठाती-सी
उठती है प्रतिदिन
सिर पर लादकर
रहेठे,खर-पुआल की गट्ठर
जाती है भाड़ की तरफ
जो मुँह बाए कर रहा होता है उसका इंतजार
सुस्ता कर पल भर जलाती है उसे
और गर्म होने लगता है
मेटियों में रखा बालू
फिर पूरी तन्मयता से सुनती रहती है
चावल,चने,मटर और मक्के का सोंधा संगीत
गरीबी में रिश्तों की तरह
दूर छिटक जाते हैं कुछ दानें
कुछ दांत दिखाकर
दीनता दिखाते हैं अनाथ बच्चों की तरह
कुछ जल कर कोयला हो जाते हैं
गर्भपात करा दिए गए भ्रूण की तरह
पर ..नहीं रूकते उसके हाथ ताकि
न छिटकें ...न छटपटाएं
न दिखें दीन
उसके अपने बच्चे
मौसम के प्रहारों से बेखबर
अँधेरा होने तक
वह रहती है भाड़ में
इसी के बल पर तो थूक दिया था उसने
भाग गए मर्द के नाम पर
बनी थी नंगों के लिए नंगी
रखा था बिरादरी को ठेंगे पर
फेरा था रसिकों की रसिकता पर झाडूं
थी जीवन-संघर्ष में अजेय
और बनाए.. बचाए.. जिलाए
संवारे हुई थी दुनिया
अपने ढंग से |

महरी

भयंकर सर्दी है
छाया है कुहासा
अँधेरा है
पसरा है सन्नाटा चारों ओर
हो चुकी है सुबह जाने कब की
झल्ला रही है गृहिणी
‘नहीं आई अभी तक महरी
करना पड़ेगा उठकर
इस ठंडी में काम
मनबढ़ हो गए हैं ये छोटे लोग
चढ़ गया है बहुत दिमाग
जब से मिला है आरक्षण
सो रही होगी पियक्कड़ मर्द के साथ गरमाकर
तभी तो बियाती है हर साल |’
कालोनी के हर घर में
वही झल्लाहट है ..कोसना है
जहाँ-जहाँ करती है महरी काम
किसी के मन नहीं आ रहा
कि महरी भी है हाड़-मांस की इन्सान
उसके भी होंगे कुछ अरमान
मन भाया होगा देर तक रजाई में लेटना
सर्दी से मन जरा अलसाया होगा
हो सकता है आ गया हो उसे बुखार
या किसी बच्चे की हो तबियत खराब
गृहणियों को अपनी-अपनी पड़ी है
काम के डर से उनकी नानी मरी है
निश्चिन्त हूँ कि नहीं आती मेरे घर कोई महरी
घर की महरी खुद हूँ
हालाँकि इस वजह से पड़ोसिनों से
थोड़ी छोटी है मेरी नाक
सोचती हूँ कई बार
रख लूँ मैं भी महरी
कि बोल पड़ती है मेरे भीतर की स्त्री
‘एक महरी कर सकती है
इतने घरों में काम
और नहीं संभलता तुमसे
अपने ही घर का काम
महरी स्त्री नहीं है या
समझती हो खुद को
महरी से कुछ खास |’

माँ की नसीहत

माँ बचपन में
सुनाया करती थी
पुरुषों की बेवफाई के किस्से
ताकि बेटियां
प्रेम न करें
माँ किशोर वय में ही
कर देती थी शादियाँ
ताकि बेटियां
ऊंच-नीच न कर बैठें
माँ सुनाती रहती थी सतियों के किस्से
ताकि बेटियां
पति को परमेश्वर समझें
और उसके बेटों का
सिर ऊंचा रखें |

माँ बच्चे के लिए

माँ बच्चे के लिए
पेड़ की छाल होती है
भले ही एक दिन माली को
जवान सुंदर पेड़ की देह पर
धब्बे की तरह नजर आए
बूढ़ी-सूखी छाल
वह जानता है
उसे हटाना पेड़ को खो देना है
छाल ही बचाती है तने को
मौसम के प्रहार से
सब-कुछ खुद पर झेलती है
और असमय खोकर अपनी हरीतिमा
जल्द ही टुकड़ा-टुकड़ा होकर गिरने लगती है
छाल को पेड़ का मोह नहीं छूटता तब भी
मिट्टी और पत्तों से मिलकर खाद
बनती है ताकि जिन्दा रहे पेड़
उसके ना रहने पर भी
उसका वंश बढ़े |

माँ

अद्भुत दृश्य था
आगे रिक्शे पर
ग्वाले की गोद में
बीमार बछड़ा था
पीछे दौड़ती ..हांफती गाय थी
जो पहुँच ही गयी पैदल
माँ ..हूँ ..माँ ...हूँ करती
लम्बी दूरी तय कर अस्पताल
और गेट पर रोक लिए जाने पर
छटपटाती ....चिल्लाती
आँसू बहाती इंतजार करती रही
बछड़े के लौटने का |

साईनबोर्ड

मूछें आगे हैं
घूंघट पीछे
प्रधानी चुनाव के लिए
दाखिले का दिन है
मूंछें प्रचार कर रहीं हैं
हाथ जोड़े खड़ा है घूंघट
हर गाँव में यही हाल है
परम्परावादी हैरान
“घर की इज्जत यूं चौपाल पर”
प्रगतिशील परेशान
‘ऐसी प्रगति अचानक!
मूंछें तो वही हैं सदियों पुरानी
मर्दों की आन-बान-शान
छीन रखा है जिन्होंनें
औरत का चेहरा घूंघट के नाम’
मूंछें बदलीं नहीं हैं
समय के हिसाब से बदल लिया है बस
आकार-प्रकार
आचार-विचार
बोली-व्यवहार
‘काबिज’ रहने का यह नया तरीका है
घूंघट इस बात से अनजान है
मूंछें नाच रहीं हैं
जीता है घूंघट
उत्सव का माहौल है
बंट रही हैं मिठाईयां
ले-देकर घूंघट भी खुश है
घूंघट घर में चूल्हा जला रहा है
मूंछें चौपाल में जश्न मना रहीं हैं
सामने खुली पड़ी हैं बोतलें
देर रात डगमगातीं घर लौटी हैं मूछें
घूंघट को सोता देख चिल्लाईं हैं
थरथराता घूंघट अब जमीन पर है
सीने पर सवार हैं मूंछें
बाहर साइनबोर्डों पर
घूँघट सवार है |

मेरा बेटा

जो कुछ दिन पूर्व ही
उछला करता था
गर्भ में मेरे
और मैं मोज़े के साथ
सपने बुना करता थी
मेरा बेटा
जब पहली बार माँ बोला था
मैं जा पहुंची थी
कुछ क्षण ईश्वर के समकक्ष
मेरा बेटा
जब पहली बार घुटनों चला था
मैंने जतन से बचाए रूपये
बाँट दिए थे ग़रीबों में
मेरा बेटा
जब पार्क की हरी घास पर
बैठकर मुस्कुराता था
मुझे दीखते थे
मंदिर ..मस्जिद ..गुरुद्वारे
मेरा बेटा
जब पहली बार स्कूल गया
उसके लौटने तक
मैं खड़ी रही
भूखी-प्यासी द्वार पर
मेरा बेटा
जब दूल्हा बना
सौंप दिया स्वामित्व मैनें
उसकी दुल्हन के हाथ
मेरा बेटा जब पिता बना
पा लिया उसका बचपन
एक बार फिर मैनें
...और आज
मेरा वही बेटा
झल्लाता है
चिल्लाता है
"बुढिया मर क्यों नहीं जाती ?"
क्योंकि टूट जाती है
जवानी की नींद उसकी
मेरे रात भर खांसने से |

भरवा लाल मिर्चा

क्या खूब लग रहा है
खान्चियों में भरा हुआ
निर्मल सुंदर सुर्ख
सुडौल चमकदार और जवान
भरवा लाल मिर्चा
फल और तरकारियां हतप्रभ हैं
बाजार मेंस प्रतियोगी के आ जाँव से
उत्साहित हैं मगर स्त्रियाँ
बूढ़ी..जवान...सास...बहू सब
उन्होंने पहले ही धो-सुखा भून-पीस रखा है
धनिया,अजवाइन,जीरा,मेथी,राई,कलौंजी
सौंफ,सरसों और खटाई का मसाला
महमह रहा है जिससे पूरा घर
आज वे जायेंगी बाजार
देखभाल,छंट-बीनकर खरीदेंगी भरवा लाल मिर्चा
नहीं चलेगा जरा-सा भी टेढ़ा-पतला,इचका-पिचका
लगा-सड़ा एक भी मिर्चा
अपने मर्दों पर भी नहीं करती भरोसा
वे भरवा मिर्चे के बारे में
पाक-साफ़ होकर एक-एक मिर्चे को
पोंछेंगी वे सूती कपड़े से
धूप दिखाएंगी थोड़ी देर
ताकि नरम पड़ जाए मिरचे का कड़ापन
हथेलियों के बीच कोमलता से घुलाएंगी
निकल सके आसानी से बीज और डंठल
फिर बीज,तेल,नमक मिले मसाले को
पतले दातुन से भरेंगी मिर्चों में इस तरह
कि फट ना पाए एक भी मिर्चा
तेल-भरे मर्तबान में करीने से भरकर
रख देंगी धूप में पकने को
इस कठिन साधना से करेंगी स्त्रियाँ
भरवा मिर्चा तैयार
चटनी हो या पिट्ठी चने की
रोटी हो या भात
भूजा...सत्तू चाहें जो भी
सबके साथ मजेदार लगता है
भरवा लाल मिर्चा
वैसे तो बाजार में बना-बनाया भी मिलता है
एसिड में पका वह क्या खाक करेगा मुकाबला
कोक्गीतों की तरह जन-स्वाद में बस चुके
घर के बने,अपनेपन की खुशबू से लबरेज
भरवा लाल मिर्चे का
मुझे तो लगता है दुनिया की बेहतरीन कविता है
भरवा लाल मिर्चा
जिसे रच सकती हैं सिर्फ स्त्रियाँ |

मैं देवी नहीं हूँ

मैं देवी नहीं हूँ
फिर भी मेरे नाम के दाएँ
पूरे आन-बान-शान से चमक रहा है यह शब्द
शैक्षिक प्रमाणपत्र लिखने वाले संस्कृति रक्षक
किसी देव की कृपा से
मुझे नाम के दाएँ कोई शब्द पसंद नहीं
बाएँ की तरह ही
बायां उद्घोषणा करता है-स्वतंत्र नहीं है स्त्री
तो दायाँ मनुष्य ही नहीं मानता उसे
हालांकि मेरा नाम मुक्त नहीं है इस दायें –बाएं से
भरसक काटती रहती हूँ इन्हें
क्योंकि मैं देवी नहीं हूँ
“देवी”सुनते ही सामने दिखने लगती है
 एक प्रस्तर-प्रतिमा,जिसकी देह पर
कपड़े भी चढ़ते-उतरते हैं किसी देव की कृपा पर
जो हर हाल में जाड़ा,गर्मी,बरसात में
चेहरे पर शिकन लाए बिना चुप रहती है
जीती-जागती स्त्री को देवी कहने के पीछे
इसके अलावा भी कई वजहें हैं
जैसे पुत्र-रत्न की कामना की जाती है दोनों से ही
“देने”पर चढ़ती है “कढ़ाई”
वरना होती है “कटाई-छँटाई”
यानी कि स्त्री के खिलाफ स्त्री की तैयारी
और तो और स्त्री पर ही सवार होती है देवी
तब वह हाथ-पैर पटकती है गंवारू भाषा बोलती है
,गालियाँ बकती है अपढ़ गंवार स्त्री की तरह
तो क्या देवी भी पुरानी स्त्रियों की तरह निरक्षर होती है
जो नहीं बोल सकती संस्कृत के श्लोक !
पर मैं देवी नहीं हूँ
इसलिए मुझे पसंद है समर्थ,स्वतंत्र,सक्षम,अस्तित्व बोधक
सिर्फ स्त्री नाम |

मेरा मरद जानता है

र्मैं फसल उगाती हूँ
वह  खा जाता है
चुनती हूँ लकड़ियाँ
वह ताप लेता है
मैं तिनका तिनका बनाती हूँ घर
वह गृह स्वामी कहलाता है
उसे चाहिए बिना श्रम किये सब कुछ
मैं सहती जाती हूँ
जानती हूँ
ऐसे समाज में रहती हूँ
जहाँ अकेली स्त्री को
बदचलन साबित करना
सबसे आसान काम है
और यह बात मेरा मरद
अच्छी तरह जानता है |

स्त्री और चना

एक बार चना पहुँचा
विधाता को सुनाने अपनी व्यथा
श्रीमान,आप भी सुनें वह कथा
..:भगवन!आप ही करें न्याय
मेरे साथ होता है धरती पर
बहुत अन्याय
जब मुझे बोने के लिए
ले जाता है किसान
लेता है हमको फाँक रास्ते में ही
पहुँचता है खेत पर चबाते हुए
अंकुरित होते ही मेरे
पैदा हो जाते हैं अनगिनत प्रेमी
करते भी नहीं इंतजार उगती हुई नन्ही
मुलायम पत्तियों के जरा हरा होने तक
गड़ाने लगते हैं अपने बेसब्र नाखून नुकीले
मेरी अनउगी गुलाबी पत्तियों में आते ही
कुछ अमलोन खटास
खोंटने लगते हैं मुझे
चबा डालते हैं नमक के साथ
थोड़ा बड़ा होता हूँ तो
मुँह मारते हैं पशु और
आदमी भी काटता है बस –
जड़ों को जरा-सा छोड़कर
फनगने के लिए
यहाँ प्राकृतिक आपदाओं
पानी और खाद आदि की बात का
वैसे भी कोई मतलब नहीं
अन्नों में एक अकेला ऐसा अन्न मैं
जो उगता हूँ
ढेलहर खेत में भी
कम से कम पानी में
खाद के बिना भी
किसान की उपेक्षा का शिकार
अन्न गरीब का फिर भी होता हूँ जवान
भर आते हैं दानें हरे मुलायम जब
कैसे हैं आदम के वंशज कि
चबाने लगते हैं नाजुक दानों को भ्रूणावस्था में ही
मेरी जड़ों में आग लगाकर ‘होरह” देते हैं
मेरे हरेपन को
बचा रह जाता हूँ तब भी
प्रोढ़ पके ललौंछ दानों से भरी
छीमियाँ खनखनाती हैं
बजती है जैसे गोंडीन की पायल
रौंदा जाता हूँ खलिहान में
डंठल और छिलकों से
अलग होते ही शुरू होता है
अत्याचार का एक अलग अध्याय
भिंगोकर,छौंककर
चपटाकर कभी खपरी में
गर्म बालू के साथ भून ही डालते हैं
छिड़कते हैं मेरे जले पर नमक मिर्च
प्रभो!कब तक रहेगा मेरा यह हाल
मैं हूँ बहुत बेहाल”
मुस्कुराते हुए विधाता ने होंठों पर
फिराई जुबान और बोले –
‘चने,सच नहीं है कोई सानी
देखो,मेरे मुँह में भी आ गया है पानी’
चने की यह कहानी
सुनी थी मैंने किसी स्त्री की जुबानी
हो सकता है स्त्री और चने में
हो कोई नाता
कह सकती हूँ सिर्फ इतना ही कि
स्त्री चना नहीं है |

सपने

स्त्री
निचोड़ देती है
बूँद –बूँद रक्त
फिर भी
हरे नहीं होते
उसके सपने |
आवाज
स्त्री की आवाज
कुँए से निकल कर
दरिया तक
पहुँचती है
और मौजों पर
सवारी गांठ
जा पहुँचती है
समुद्र तक |
उम्र-भर
स्त्री के दुःख की जड़ें
धंसी होती हैं
इतने गहरे
कि छिपाए रख सकती है
सबसे
उम्र भर |
इसलिए
स्त्री
जीना चाहती है
इसलिए बार –बार
मरना पड़ता है
उसे |

रेत

स्त्री
मरुस्थल में
फूल खिलाने की
कोशिश में
बन जाती है
मुट्ठी-भर रेत |
मेरे भीतर
चुपचाप चलती हूँ
भीड़ में
स्त्री
बुदबुदाती है
मेरे भीतर |

खंडहर

स्त्री
महलों से
निकलती है
बरसों बाद
खंडहर होकर |
कला
स्त्री जानती है
न कुछ से
कुछ न कुछ
निकाल लेने की कला |
घर-परिवार
स्त्री
तमाम दचकों को
झेलकर भी
बचा ले जाती है
अपना
घर-परिवार |

स्मृति में

स्त्री
काट रही है
जंजीरें
थोड़ी-थोड़ी रोज
और तड़प रही है
कट गयी
जंजीरों की
स्मृति में |

खुद

स्त्री की
दुनिया में
सब कुछ है
घर-परिवार
नाते-रिश्ते
समाज-संसार
बस नहीं है
वह खुद |

भाग्य

कहते हैं वे
स्त्री के चरित्र
और पुरूष के
 भाग्य का
पता नहीं होता
तो क्या
पुरूष के चरित्र
और स्त्री के
भाग्य का होता है |
कोई पता !

गेहूँ की तरह

गेहूं की तरह
उगाई जाती है
काटी जाती है
पीसी जाती है
बेली जाती है
सेकी जाती है
और तीन –चार
निवालों में ही
निगल ली जाती है
स्त्री |

सारा सच

स्त्री के पास
जल से भरी
दो आँखों के आलावा
होती है
एक तीसरी आँख भी
जान-समझ लेती है जिससे
अपने-पराये का
सारा सच
और बहाती है
रक्त के आंसू |

जड़ें

स्त्री
धान का बीजड़ा
एक खेत से उखाड़कर
रोप दी जाती है
दूसरे में
यह सोचकर
कि जमा ही लेगी
अपनी जड़ें |

मर्जी से

पहले सोना
फिर चांदी
लोहा फिर
लकड़ी
मान ली जाती है स्त्री
जिसे फूंका जा सकता है
अपनी मर्जी से
जहाँ  जब
जी चाहे |















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