Saturday, 11 August 2012

मेरा ग्रह



मैं एक अनोखे ग्रह पर रहती हूँ
जो धरती पर है भी ..नहीं भी  
हालाँकि यहाँ से भी दीखता है वैसा ही आकाश
वैसे ही पहाड़,जंगल,समुद्र,नदियाँ
पशु-पक्षी,कीड़े-मकोड़े,पेड़-पौधे
और सब-कुछ यहाँ है,जो धरती पर है
पर यह धरती नहीं है
यहाँ रहने वाले मनुष्य
वहाँ रहने वाले लोगों जैसे नहीं हैं
यहाँ आजादी है ..प्रेम भी
बच्चों का उछाह..उल्लास
और यौवन की उद्दाम उमंगें-तरंगे भी
बस नहीं है बुढ़ापा..रोग-शोक
और मोह भी
इसके लिए यहाँ अवकाश नहीं
बहुत काम है ..व्यस्तता है
फिर भी शान्ति है ..सुकून भी
चारों तरफ हरापन तन-मन
और जीवन में भी
सोना-चाँदी,हीरा-मोती यहाँ नहीं है
किताबें हैं बेशुमार
नहीं है रिश्ते-नाते यहाँ
पराया नहीं फिर भी कोई
बचपन में इस ग्रह के सपने देखा करती थी
वर्षों लग गए धरती से इस तक पहुँचने में
अब मैं ढल गयी हूँ इसके अनुरूप
कभी-कभी आमंत्रित-अनामंत्रित
धरती के रिश्तों के आकर्षण में बंधी
जा पहुँचती हूँ उनके बीच
जहाँ कृत्रिमता है प्रदर्शन भी
ईर्ष्या-द्वेष और छल-छद्म भी
रिश्ते-नाते हैं,पर प्रेम नहीं
सोना-चाँदी,हीरा-मोती सब हैं यहाँ
जीने के लिए आक्सीजन नहीं
मेरा दम घुटने लगता है
मुझे अहसास दिलाया जाता है
कि अकेली हूँ मैं ..निस्सार और बेकार
जीने के लायक ही नहीं
दो कौड़ी की .. अनफिट  
अपने ग्रह पर जिन गुणों के लिए विशिष्ट हूँ मैं
उनका उपहास है यहाँ
मेरे पास न सोना-चांदी
ना चातुर्य न दुनियादारी
ना लड़ने-भिड़ने का सऊर
आत्मविश्वास खोने लगती हूँ मैं
घबरा कर भाग आती हूँ अपने ग्रह पर
जहाँ मैं पाती हूँ खुद को
जिसे मेरी जरूरत है
लौटने के बाद भी महीनों
धरती का आतंक घेरे रहता है मुझे
मैं सहज नहीं हो पाती
सोचती हूँ- क्यों धरती के अपने भी
नहीं स्वीकारते मुझे
अजीब क्यों हूँ मैं उनके लिए
जब कि उन्हीं का अंश हूँ’
तभी आती है एक आवाज 
‘तुमने शायद नहीं देखी उनकी आँखें
जिनमें तुम्हारे ग्रह के लिए घोर आकर्षण है
पर पैरों में पहुँचने की ताकत नहीं |’

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