Friday 19 October 2012

अकेली स्त्री



पुरूष 
उसकी चाल-चलन में बदचलनी
हाव-भाव में छाव
हँसी में फंसाव
मुस्कुराहट में आमंत्रण देखते हैं
उसकी देह और सम्पत्ति ऐसी लावारिस
कीमती वस्तु होती है
जिसे लपकने को सब झपटते हैं
हाँ,उसका मन बेजान वस्तु की तरह
उपेक्षित होता है सबके लिए
वह स्त्रियों के लिए खतरा होती है
पुरूषों के लिए प्रलोभन
उसकी उपलब्धियां दूसरों की कृपा मानी जाती है
असफलता उसका अपना दोष
कोई उसकी उस कमी को नहीं पुर पाता
जो उसे सही मायने में है
हाँ ,जो  कुछ उसमें बचा है
उसे लूटने को नाना षड्यंत्र रचे जाते हैं
अपने-पराये सभी करते हैं उससे
बुढ़ापे और मृत्यु की बातें
ताकि उसका यौवन और जीवन
उनके इशारों का मुहताज बनकर रह जाए
कोई नहीं समझना चाहता
सामजिक प्राणी अकेली स्त्री  के
असामाजिक हो जाने की व्यथा-कथा
यहाँ तक की स्त्रियाँ भी
मुझे लगता है
शायद स्त्रियाँ उससे नहीं
अपने-आप से नाराज रहती  हैं
कि नहीं कर सकतीं वे सब
जो कर गुजरती है अकेली स्त्री
वे सब असहय सहती हैं 
पाले रहतीं हैं जीवन में कई-कई रोग
क्योंकि अकेली होने से डरती हैं
असुविधाओं और बुढापे से डरती हैं
डरती हैं उन उपाधियों के छीन  लिए जाने से
जो उन्हें अच्छी और अकेली स्त्री को
बुरी के कटघरे में ला खड़ा करता है
वे अपनी असामयिक मृत्यु से भी 
गौरवान्वित होती हैं
कि सतीत्व की बेदी पर दिए गए
उनकी बलि को सराहेगी
आने वाली नस्लें
अकेली स्त्री उन्हें इसलिए भयभीत करती है 
कि बेदर्दी से काटकर फेंक देती है
असाध्य रोग से ग्रस्त अंग को
बुरी स्त्री कहलाने से नहीं डरती
अकेली होने से नहीं डरती 

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