Monday, 31 March 2014

सेमल -कुछ कविताएं

माँ होती हैं टहनियाँ

इस बसंत में भी
सेमल की
नन्हीं-नन्हीं टहनियाँ
भरी हुई हैं कलियों से
कलियाँ जो फूल बनते ही
भारी हो जाती हैं
फिर भी संभाले रहती है
टहनियाँ उन्हें
सोचती हूँ
सूखी पतली काली
इन टहनियों के भीतर कितनी
हरीतिमा सुंदरता
ऊष्मा और शक्ति भरी है
कि साँवली कलियाँ भी
फूल बनते ही रक्ताभ हो जाती हैं
फूटने लगती हैं उनसे
रूप रंग रस की निर्झरिणी
जाने कहाँ से रस लोलुप
भ्रमर ..चींटे ..पाखी आ जाते हैं
टहनियाँ संभालती हैं
उनका भी भार
टूटती नहीं
पर उम्र पूरी कर गिरने लगते है
जब फूल
उदास व झुकी नजर आती हैं टहनियाँ
टहनियाँ क्या माँ होती हैं
जिन्हें कभी भी बोझ नहीं लगते अपने बच्चे
चाहे जितने और जैसे भी हों
नहीं सह पाती मगर उनसे जुदाई |
बसंत के आते ही 

बसंत के आते ही 
सजग हो गयी है 
प्रकृति अपने रख-रखाव के प्रति 
शिशिर में मुरझा गयी थी वह 
परित्यक्ता की तरह 
खो बैठी थी सुध-बुध 
अब दमक रही है 
मानो करवाया हो फेशियल 
ढंग से सवारे हैं केश 
नए पल्लवों ..फूलों से किया है श्रृंगार 
प्रिय के सामने सुंदर लगना ही चाहिए 
जानती है वह 
हर स्त्री की तरह |

 बसंत 

बिलकुल काला खुरदरा 
हो चुका है सेमल 
शिशिर के कारण
पत्ते या तो पीले पड़ चुके हैं 
या झड़ चुके हैं 
फिर भी ले आया है बसंत 
उसकी टहनियों में 
हजारों-हजार कलियाँ 
कलियों में जल्द ही 
मचेगी खिलने की होड़ 
और रक्ताभ हो उठेगा 
सेमल |
उम्मीद 

एक-एक कर झर गए थे 
सेमल के वे लाल-लाल फूल 
जिससे जगमगा रहा था 
कल तक सेमल 
पत्तों ने तो जाने कब का 
छोड़ दिया था साथ 
अकेला होने लगा था सेमल 
कि फूट पड़ी नयी कोंपले 
गुलाबी से धानी फिर 
हरी होतीं पत्तियों का रूप धरतीं 
आजकल नवजात शिशु -सा 
कमनीय दिख रहा है सेमल 
प्रकृति किसी को अकेला नहीं छोडती 
ना ही करती नाउम्मीद 
सेमल को देखकर लगता है |

इस तरह 

पत्र-विहीन सेमल की 
हर टहनी
सम्भाले है 
ढेर सारी कलियों को
टहनियों को संभाले है 
मोटी -मोटी डालियाँ 
डालियों को संभाले है
तना 
तने को जड़ें 
जड़ों को धरती 
इस तरह 
छू रही है धरती 
आकाश को |

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