धरती की कोख से
फूटते ही
मैंने फैलाईं
अपनी नन्ही बाहें
सहारे के लिए
खुद को लता समझकर
आस-पास के
झाड-झंखाड़ भी
मुझे पेड़ लगते थे
किसी ने नहीं
संभाला
दुखी मन से यूं
ही बढ़ती गयी
जिस-किसी को अपना
माना
सबने झटक दिया
फिर भी देखती रही
उनकी तरफ
अंजान थी खुद से
कि बिन सहारे भी
बढ़ रही हूँ
निरंतर हो रही
हूँ मजबूत
नीचे उसी आकार मे
खड़े हैं
झाड-झंखाड़
और मैं छू रही
हूँ आकाश |
उस दिन हैरान रह
गयी
जब जाना
कि मैं तो खुद ही
एक पेड़ थी
आश्रय चाहती हैं जिससे अनगिन लताएँ |
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